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कांग्रेस: फिर बैताल डाल पर

बिहार चुनावों के बाद फिर आत्ममंथन की बातें हवा में लेकिन कहीं कुछ खड़कता नहीं दिखता
राहुल गांधी

लगता है, चुनावी राजनीति में कांग्रेस का पतन अब कोई अपवाद नहीं रहा। हाल में संपन्न बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजों ने जैसे इस पर मुहर लगा दी। लेकिन बिहार में देश की सबसे पुरानी पार्टी ने सिर्फ मुंह की ही नहीं खाई, बल्कि गैर-भाजपाई पार्टियों की आशंका भी उसके प्रति गहरा गई हैं। यही नहीं, उसके संगठन की कमजोरियां और घटते जनाधार के साथ यह भी जाहिर हो गया कि उसमें अपने पुराने वोट आधार को वापस पाने का न आकर्षण बचा है,  न नेतृत्व में कुछ नया करने की कुव्वत बची है। जाहिर है, ऐसे में सवाल उठने ही थे। असंतोष की आवाजें सिर्फ सहयोगियों से ही नहीं उठीं, पार्टी में कुछ समय से नेतृत्व को लेकर घुमड़ रही हवाएं भी तेज हो गईं। कुछ समय से असंतोष के मुखर प्रवक्ता और पार्टी में सभी मंचों तथा पदों के लोकतांत्रिक चुनाव के लिए कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिखने वाले 23 वरिष्ठ नेताओं में एक, कपिल सिब्बल ने पार्टी के सिकुड़ते जनाधार के प्रति सबसे पहले सवाल उठाया। फिर गुलाम नबी आजाद ने भी पार्टी की पांच सितारा संस्कृति के प्रति कुछ तीखे अंदाज में नेतृत्व को घेरा। इससे कांग्रेस नेतृत्व का बचाव करने की जिम्मेदारी अधीर रंजन चौधरी, सलमान खुर्शीद, अशोक गहलोत वगैरह ने उठाई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी तईं तीन समितियों का गठन किया, जिनमें कुछ असंतुष्ट स्वरों को जगह दी, ताकि हल्ला कुछ शांत हो।

लेकिन हल्ला शांत करने की कवायद और ‘देखि दिनन को फेर’ वाला रवैया अपना कर सिर्फ ‘दिन बहुरने’ का इंतजार करना क्या काफी है? पार्टी के भीतर की आवाजों से बढ़कर उन सहयोगी दलों की आशंकाएं ज्यादा घातक हो सकती हैं, जिनके सहारे कांग्रेस को ज्यादातर राज्यों में अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिशें परवान चढ़ानी हैं। बिहार तो इसका एकदम ताजा उदाहरण साबित हुआ। वहां राष्ट्रीय जनता दल, वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस का महागठबंधन जीत के एकदम करीब आकर ठिठक गया तो कमतर प्रदर्शन का दोष कांग्रेस के माथे आकर चिपक गया। तेजस्वी यादव की राजद और वामपंथी पार्टियों का प्रदर्शन तो बेहतर रहा लेकिन कांग्रेस अपने पाले की 70 सीटों में से महज 19 पर आकर आ टिकी। इस पर राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने फौरन कहा,  “महागठबंधन की नाव में कांग्रेस छेद साबित हुई।” वामपंथी पार्टियों ने भी शंकाएं जाहिर कीं। भाकपा-माले के दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा, “कांग्रेस को 40-45 सीटों पर लड़ाया जाता और वामपंथी पार्टियों को 29 के बदले 50 सीटें मिली होतीं, तो नतीजे कुछ और हो सकते थे।”

हालांकि राजद का औपचारिक बयान कांग्रेस पर दोषारोपण का नहीं आया, लेकिन पार्टी के प्रति सहयोगी दलों का नजरिया स्पष्ट होता जा रहा है। कांग्रेस नेताओं ने झेंप मिटाने के लिए यह जरूर कहा कि उनके जिम्मे सबसे कठिन सीटें आई थीं। उसके बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने कहा, “ज्यादातर शहरी सीटें हमें मिली थीं, जहां एनडीए की काफी बढ़त रही है।” बिहार के एक नेता प्रेमचंद मिश्रा ने बताया कि हमारा सीटों के संबंध में दावा, तो सही था और कई सीटों पर हम अपने पुराने जनाधार को पाने में कामयाब भी रहे हैं, लेकिन दूसरे और तीसरे चरण के चुनावों में फिजा बदलने से हम थोड़ा पिछड़ गए।

लेकिन कांग्रेस की दुर्दशा की कहानी इतनी-सी नहीं है। पार्टी देश भर में करीब 60 विधानसभा सीटों के अहम उपचुनाव में बुरी तरह झेल गई। इनमें अधिकांश 28 सीटें मध्य प्रदेश की थीं, जहां पार्टी सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए बैठी थी। ये चुनावी पराजय ऐसे वक्त आई, जब पार्टी ने काफी समय से लंबित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बुलाकर नेतृत्व के सवाल के समाधान की दिशा में आगे बढ़ रही थी। पार्टी मध्य प्रदेश की 28 में से 9 सीटें ही जीत पाई जबकि गुजरात, उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में एक भी सीट नहीं जीत पाई। 29 अक्टूबर को चुनाव प्रचार के चरम दिनों में ही पार्टी नेता मधुसूदन मिस्‍त्री ने देश भर के कांग्रेस पदाधिकारियों से अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का सत्र बुलाने के लिए जरूरी जानकारियां “जल्दी से जल्दी” मुहैया कराने को लिखा। कांग्रेस सूत्रों से बात करें, तो पता चलता है कि बतौर पार्टी केंद्रीय चुनाव समिति की अध्यक्ष के नाते मिस्‍त्री का काम पार्टी की बागडोर सोनिया गांधी की जगह उनके बेटे राहुल गांधी के हाथों सौंपने की प्रक्रिया को आसान करना है। लेकिन चुनावी पराजयों ने उनका काम थोड़ा मुश्किल बना दिया है।    

इससे देश में नेहरू-गांधी खानदान के घटते आकर्षण और राहुल को भाजपा का बेहतर विकल्प के नाते पेश करने की नाकामी फिर खुलकर सामने आ गई है। पार्टी के भीतर आवाजें उठनी शुरू हो गईं और सहयोगियों में भी बेचैनी बढ़ने लगी। ये सहयोगी हर चुनाव में कांग्रेस को अपने कंधों पर ढोते हैं और राहुल अलसाए ढंग से अपने राजनैतिक भविष्य के संवरने का इंतजार करते हैं जबकि बिहार में तेजस्वी, झारखंड में हेमंत सोरेन, महाराष्ट्र में शरद पवार या तमिलनाड़ में एम.के. स्टालिन वगैरह के कंधों पर ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है।

हाल में संपन्न चुनाव यह भी जाहिर करते हैं कि जुलाई में 23 कांग्रेस नेताओं की चिट्ठी में उठाए मुद्दे सही साबित हुए। इनमें एक अहम मुद्दा यह था कि नेतृत्व कारगर, दृश्यमान और पूर्णकालिक होना चाहिए। हालांकि इन वरिष्ठ नेताओं के खुश होने लायक अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया, जिनमें गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, कपिल सिब्बल, वीरप्पा मोइली, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पृथ्वीराज चौहान और मनीष तिवारी जैसे वरिष्ठ नेता हैं। वैसे, यह कहना भी मुनासिब है कि हुड्डा ने हरियाणा में एक सीट के उपचुनाव में बड़ी जीत हासिल करके अपनी काबिलियत भी साबित की है। अगस्त में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के दौरान भी इन नेताओं पर बगावत का आरोप लगा था लेकिन पार्टी उस दिशा में कोई सुधार करती नहीं दिख रही है। हालांकि इन वरिष्ठ नेताओं की आगे की रणनीति क्या होगी, यह साफ जाहिर नहीं है लेकिन व्यक्तिगत बातचीत में वे बताते हैं कि उनकी टोली बढ़ रही है। सिब्बल साफ-साफ कहते हैं, “हम जानते हैं कि कांग्रेस के साथ क्या गड़बड़ है...कांग्रेस को भी उसका जवाब मालूम है लेकिन उन जवाबों को स्वीकार नहीं किया जा रहा है। अगर इन जवाबों पर गौर नहीं किया जाएगा तो हमारा ग्राफ नीचे की ओर ही जाएगा। इसी दुर्दशा की कांग्रेस शिकार है।”

चिट्ठी लिखने वाले कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं में से एक जिन्होंने चिट्ठी पर हस्ताक्षर किए थे, नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “बिहार चुनाव के बाद हम फिर वही आत्ममंथन का राग अलापने लगे हैं। अभी तो 2014 और 2019 के चुनावों में हार का ही हमने विश्लेषण नहीं किया है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस कार्यकारिणी मंथन करेगी लेकिन कार्यकारिणी की वैधता क्या है, वह तो सिर्फ गांधी परिवार की इच्छाओं का ही विस्तार है। जरूरत तो नेतृत्व, स्पष्ट दिशा और विचारधारा की है।” बिहार के एक नेता यह भी स्वीकार करते हैं कि हमने सीटों के बंटवारे को देर तक लटका कर महागठबंधन की संभावनाओं को धूमिल किया और फिर 70 सीटों पर लड़ने का फैसला करके गुड़ गोबर किया जबकि 50 सीटों से ज्यादा लड़ने की हमारी क्षमता नहीं थी। फिर राज्य के सीमांचल इलाके में भी कांग्रेस का प्रदर्शन फिसड्डी जैसा रहा, जो मुस्लिम बहुल होने के नाते उसका गढ़ माना जाता है। वहां असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम ने काफी पैठ बना ली है और उसने पहली बार पांच सीटें भी जीत लीं। उस इलाके के पार्टी के वरिष्ठ नेता तारिक अनवर कहते हैं, “मुसलमानों में हैदराबाद के बाहर औवैसी की लोकप्रियता कांग्रेस के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता पर हमारी प्रतिबद्घता के बावजूद पार्टी से मुसमान क्यों बाहर जा रहे हैं।”

बिहार में पार्टी के खराब प्रदर्शन का असर बंगाल और तमिलनाडु के आसन्न चुनावों में भी झेलना पड़ सकता है। बंगाल में उसे वाममोर्चे के साथ और तमिलनाडु में द्रमुक से सीटों का तालमेल करना है। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि बिहार में अच्छा प्रदर्शन राहुल के पक्ष में होता और नेतृत्व के मुद्दे हल करने में आसानी होती। राहुल के एक करीबी सांसद कहते हैं, “अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का अधिवेशन जनवरी में तय है तब तक और कई नेता राहुल के नेतृत्व पर सवाल उठा सकते हैं। इससे पार्टी छोड़कर जाने वालों में भी इजाफा हो सकता है।”

बहरहाल, 28 दिसंबर को कांग्रेस के 136वें स्‍थापना दिवस पर नेहरू-गांधी नेतृत्व के लिए जश्न मनाने को ज्यादा कुछ नहीं है। बिहार की पराजय बगावत की नई शीत लहर ला सकती है।

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