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हंगामा है यूं बरपा

अरविंद सुब्रह्मण्यम ने जीडीपी वृद्धि दर के करीबी आकलन के लिए नई अंतरराष्ट्रीय पद्धति अपनाई तो सरकार के तेवर गरम हो गए
अब वक्तह जीडीपी के गलत-सही अनुमानों पर उलझने के बजाय गंभीर मुद्दों से निपटने का है

अपने एक अध्ययन में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. अरविंद सुब्रह्मण्यम ने यह कहकर तहलका मचा दिया कि 2011-12 से 2016-17 के बीच सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर का अनुमान 2.5 फीसदी ज्यादा लगाया गया। इसलिए उस अवधि में वृद्धि दर सात फीसदी के बजाय 4.5 फीसदी ही रही होगी। ज्यादा सटीक आकलन तो यह है कि वृद्धि दर 3.5 फीसदी से 5.5 फीसदी के बीच रही होगी।

इससे कुछ लोगों को यह भ्रम हो गया कि इसका संबंध मौजूदा जीडीपी वृद्धि दर के आंकड़ों से है जिसके मुताबिक, भारतीय अर्थव्यवस्था 5.8 फीसदी की दर पर धीमी रफ्तार की शिकार है। लेकिन सुब्रह्मण्यम अर्थव्यवस्‍था की रफ्तार धीमी पड़ने की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे 2016-17 की अवधि तक के पिछले वर्षों के बारे में गलत अनुमान की बात कर रहे हैं। अगर उनके विश्लेषण को आगे बढ़ाएं तो मौजूदा वृद्धि दर 3.3 फीसदी के आसपास हो सकती है। सुब्रह्मण्यम की बात को मौजूदा जीडीपी गणना में असंगठित क्षेत्र के गलत आंकड़ों से संबंधित मानकर भी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।

तो, फिर सुब्रह्मण्यम आखिर कह क्या रहे हैं? उन्होंने अपने अध्ययन में जीडीपी और उसकी वृद्धि दर के अनुमान के लिए अमूमन इस्तेमाल की जाने वाली पद्धति से अलग प्रणाली अपनाई। आखिर इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? सामान्य पद्धति के तहत अर्थव्यवस्था को सेक्टरों में बांटा जाता है और हर सेक्टर के योगदान को जोड़कर समूची अर्थव्यवस्था के आकार का अनुमान लगाया जाता है। अर्थव्यवस्था में मुख्य तौर पर नौ सेक्टर हैं जिन्हें सार्वजनिक तथा निजी सेक्टर और संगठित और असंगठित क्षेत्र में बांटा जाता है। इस तरह कुल 27 सेक्टर की बात होती है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र पूरी तरह संगठित है। इनमें से हर सेक्टर के आंकड़ों और जीडीपी में उसके योगदान के अनुमान के लिए एक पद्धति की आवश्यकता होती है। केंद्र सरकार का सांख्यिकी विभाग जब इतनी विस्तृत पद्धति का इस्तेमाल करता है तो फिर दूसरी पद्धति अपनाने की आवश्यकता क्यों है?

जनवरी 2015 से जीडीपी और उसकी वृद्धि दर को लेकर विवाद उठने लगा। जीडीपी की गणना के लिए समय-समय पर आधार वर्ष बदला जाता है। आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 किया गया। नई सीरीज के नतीजे जनवरी 2015 में जारी किए गए। तब केंद्र में एनडीए सरकार थी। नई सीरीज के हिसाब से अर्थव्यवस्था में तेज उछाल दिखाया गया। यहां तक कि यूपीए-2 सरकार के दौर की सुस्त रफ्तार भी बेहतर दिखाई देने लगी। एनडीए सरकार के दौरान भी वृद्धि दर यूपीए सरकार के प्रदर्शन से बेहतर दिखाई दी। यूपीए के दौर में सुधरी वृद्धि दर पर गौर नहीं किया गया। इसलिए एनडीए ने आर्थिक रिकवरी का क्रेडिट खुद ले लिया।

लेकिन 2011-12 से पहले कोई बैक सीरीज नहीं थी। इसलिए कोई यह नहीं बता सकता था कि पिछला प्रदर्शन भी अच्छा था। कई विशेषज्ञों ने नए आंकड़ों पर भी सवाल उठाए क्योंकि अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन अच्छा नहीं था। वृद्धि दर सात-आठ फीसदी होने पर चारों ओर खुशहाली का माहौल दिखना चाहिए था, जो गायब था। निजी कंपनियों (जिन्हें एमसीए21 कहा जाता है) के प्रदर्शन को नए आंकड़ों में इस्तेमाल करने की सिफारिश करने वाली कमेटी के भीतर भी असहमति थी। उनमें आयकर रिटर्न न भरने वाली, बेनामी और ऐसी ही अन्य कंपनियां भी थीं। इसलिए आंकड़ों की बारीक समीक्षा की दरकार थी। आखिर रिटर्न न दाखिल करने वाली कंपनियों की गणना कैसे की जाएगी और बड़ी संख्या में फर्जी यानी शेल कंपनियों के अस्तित्व में होने का असर क्या होगा? आकार बड़ा करने के मकसद से ऐसी कंपनियों को शामिल किया गया लेकिन आलोचकों का मानना था कि इससे जीडीपी की गणना में भ्रामक वृद्धि दिख सकती है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की एक कमेटी 2018 में बैक सीरीज लेकर आई। लेकिन सरकार को यह पसंद नहीं आया क्योंकि इसमें यूपीए-1 और यूपीए-2 सरकारों के दौर में एनडीए-2 से बेहतर प्रदर्शन दिखा। इस बैक सीरीज को तैयार करने के लिए एक नई पद्धति को अपनाया गया था क्योंकि पिछली अवधि के आंकड़े उपलब्ध नहीं थे। सरकार ने इसे खारिज कर दिया।

सरकार 2018 के आखिर में एक और सीरीज लेकर आई जिसमें एनडीए-2 का प्रदर्शन यूपीए-1 और यूपीए-2 से बेहतर दिखाया गया था। नतीजों में ऐसे अंतर की संभावना हमेशा बनी रहती है क्योंकि जीडीपी का अनुमान कई मान्यताओं पर आधारित होता है। कोई चाहे तो अलग मान्यता के आधार पर अलग नतीजे निकाल सकता है। जो भी हो, इसे राजनीति से प्रेरित जीडीपी सीरीज के तौर पर देखा गया। इसकी साख पर धब्बे इसलिए उभरे कि इसमें नोटबंदी के वर्ष 2016-17 में उच्चतम वृद्धि दर 8.2 फीसदी दिखाई गई। उस दौरान सभी संकेत अर्थव्यवस्था के गोता लगा जाने की हकीकत बयान कर रहे थे। उस दौरान रोजगार, निवेश और कर्ज उठान में भारी गिरावट के साथ मनरेगा के तहत मजदूरी की मांग बढ़ गई, क्योंकि शहरों में रोजगार छिनने के बाद लोग अपने गांवों को लौट गए। सरकार ने रोजगार के आंकड़ों को चुनाव के बाद तक रोके रखा, क्योंकि उनसे जाहिर हो रहा था कि बेरोजगारी दर बढ़कर 45 साल के उच्चतम स्तर 6.1 फीसदी पर पहुंच गई। मुद्रा लोन के तहत पैदा होने वाले रोजगार के आंकड़े और किसानों की आत्महत्या के आंकड़े 2016 से ही जारी नहीं किए गए हैं। अब 2019 में पता चला कि सर्वे में शामिल कंपनियों में एमसीए के आंकड़े 38.6 फीसदी थे। इससे विशेषज्ञों की वह शुरुआती आशंका पुष्ट हुई कि एमसीए के आंकड़े जीडीपी वृद्धि में भ्रामक बढ़ाेतरी दिखा देंगे। इसलिए नई जीडीपी सीरीज को लेकर पांच विवाद उठे। इनका समाधान कठिन है क्योंकि कोई भी पिछली अवधि के आंकड़े दोबारा एकत्रित नहीं कर सकता।

लिहाजा, संदेह दूर करने के लिए जीडीपी के अनुमान के लिए नई पद्धति तलाशनी जरूरी है। सो, ऐसे अस्थिर कारकों की तलाश की जा सकती है जिनसे जीडीपी का बेहतर अनुमान लगाया जा सके। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय अनुभवों की तलाश भी की जा सकती है, जैसा कि सुब्रह्मण्यम ने किया। लेकिन अरविंद सुब्रह्मण्यम की पद्धति और नतीजों को खारिज करने के लिए सरकार की तरफ से जोरदार खंडन किया गया। निस्संदेह, कई दिक्कतों के चलते इस पद्धति की आलोचना की जा सकती है। इस लेखक ने पिछले तीन साल में उनकी ओर इशारा भी किया। मसलन, असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों, खासकर नवंबर 2016 तक के तीन सरकारी झटकों नोटबंदी, जीएसटी और एनबीएफसी संकट के असर और ब्लैक इकोनॉमी के आंकड़ों का अभाव है। इसके अलावा, दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत भारतीय अर्थव्यवस्था में विशाल असंगठित क्षेत्र है, इसलिए दूसरी अर्थव्यवस्थाओं से तुलना करना गलत हो सकता है। लेकिन सुब्रह्मण्यम के अध्ययन के बारीक विश्लेषण किए जाने तक इन मुद्दों को टाला जा सकता है। 

दरअसल, सुब्रह्मण्यम के अनुमान के चलते सरकार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी, इसलिए उसके प्रवक्ताओं ने उन पर हमले शुरू कर दिए। पहले उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों की राय से आधार वर्ष बदलकर 2011-12 किया गया। यह तो सही है लेकिन विशेषज्ञों के बीच उत्पन्न विवाद खत्म नहीं हो पाया जो सरकारी सीरीज के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। दूसरे, कहा गया कि नई सीरीज संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाई गई पद्धति (2008 में) पर तैयार की गई। लेकिन इस पद्धति को अपनाने से गलत आंकड़ों का उपयोग और सेवा क्षेत्र के लिए किए गए बदलाव न्यायोचित साबित नहीं होते। सेवा क्षेत्र के लिए हुए बदलावों के चलते किसी अवधि में विकास दर तेज दिखती है जबकि दूसरी अवधि में धीमी दिखती है। तीसरे, सरकारी आंकड़ों के समर्थन में तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक के विशेषज्ञों ने इसे स्वीकार कर लिया है। जबकि ये डाटा एकत्रित करने वाली एजेंसियां नहीं हैं। उन्हें सरकार द्वारा जो भी आंकड़े दिए जाएंगे, उन्हें वे स्वीकार कर ही लेंगी। इससे आंकड़ों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं होती। चौथे, कहा जा रहा है कि आधार वर्ष में बदलाव जीडीपी अनुमान लगाने की सामान्य प्रक्रिया है। सुब्रह्‍मण्यम आधार वर्ष में बदलाव पर कोई आपत्ति नहीं कर रहे हैं। जीडीपी अनुमान के लिए कौन से आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। निस्‍संदेह, ऐसे आंकड़े नहीं, जिनमें बड़ी गलतियां हों। पांचवें, तर्क है कि बड़ा डाटा बेस इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन कोई भी यह नहीं कह रहा है कि बेहतर डाटा बेस इस्तेमाल न किया जाए। कहा यह जा रहा है कि नया डाटाबेस गलत है, इसलिए जरूरी नहीं कि यह बेहतर हो। इनका इस्तेमाल तभी किया जाना चाहिए जब गड़बड़ियां दूर कर ली जाएं। छठें, सरकारी अनुमान स्वीकृत पद्धतियों पर आधारित बताया जा रहा है। लेकिन आलोचना अपनी सुविधानुसार चुनी गई मान्यताओं को लेकर है, इससे पद्धति निष्पक्ष नहीं रह जाती है, जैसा कि दावा किया जा रहा है। सातवें, सवाल किया जा रहा है कि डॉ. सुब्रह्‍मण्यम ने जीडीपी आंकड़ों पर तब आपत्ति क्यों नहीं की जब वे मुख्य आर्थिक सलाहकार थे? हालांकि उन्होंने 2015 के आर्थिक सर्वे में इस पर संदेह जाहिर किया था। एक जिम्मेदार सरकारी अधिकारी होने के नाते क्या उन्हें और कुछ करना चाहिए था? अगर वे इस मुद्दे पर त्यागपत्र दे देते तो क्या और ज्यादा विवाद पैदा नहीं होता?

संक्षेप में कहें तो यह समय जीडीपी अनुमान की पद्धति के इर्दगिर्द गलत मुद्दे उठाने का नहीं है, भले ही इनमें गलतियां हों। भारतीय अर्थव्यवस्था की ज्यादा सटीक विकास दर के आकलन के लिए आवश्यक गंभीर मुद्दों से निपटने की आवश्यकता है। आखिर नीतियां सटीक आंकड़ों पर ही निर्भर होती हैं।

(लेखक इंस्टीट्‍यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैलकम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर हैं)      

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