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आवरण कथा/सौंदर्य स्पर्धाएं: खूबसूरती की दुनियादारी

लगातार बदलते मानदंडों से नई-नई पृष्ठभूमि से उभरती विजेताओं की जटिल दुनिया को बेरंग, बेमकसद और बेवजह करार देना नाइंसाफी होगी
हरनाज कौर संधू

इजरायल के ईलात शहर में सोमवार 13 दिसंबर को जब तालियों की गड़गड़ाहट के बीच भारत की हरनाज कौर संधू को ‘मिस यूनिवर्स 2021’ का खिताब पहनाया गया, उसके चंद पलों बाद ही करोड़ों भारतीय उंगलियों ने स्मार्टफोन के कीपैड ताबड़तोड़ दबाकर खुशी और गर्व के संदेशों की बाढ़ ला दी। दो दशक के बाद अंतरराष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिता के इस 70वें संस्करण में चंडीगढ़ के पास खरड़ में रहने वाली 21 वर्षीय हरनाज 80 देशों की प्रतिभागियों को पछाड़कर यह उपलब्धि हासिल करने वाली तीसरी भारतीय बन गईं। इसके पहले यह ताज 1994 में अभिनेत्री सुष्मिता सेन और 2000 में लारा दत्ता के सिर सजा था। सो, स्मार्टफोन पर उंगलियों के थिरकने की वजह बेजा नहीं कही जा सकती। लेकिन, इस ताजपोशी ने 21 साल से ताले में बंद पड़ी कुछ बहसों को भी फिर से सिर उठाने का मौका दिया। अंग्रेजी भाषा के एक जाने-माने अखबार और फैशन से जुड़ी एक मशहूर पत्रिका में लिखे लेखों में लेखिकाओं ने एक सुर में कहा कि आज के दौर में सौंदर्य प्रतियोगिताओं का कोई मतलब नहीं है। लेखों में कहा गया कि ऐसी प्रतियोगिताएं महिलाओं के शरीर और सौंदर्य में विविधता और आर्थिक-सामाजिक असमानता की भद्दी अनदेखी भर हैं। इसका वर्तमान दुनिया और औरतों की वास्तिवक जिंदगियों से कोई लेना-देना नहीं है, खासकर तब जब कॉस्मैटिक सर्जरी से सब कुछ बदला जा सकता हो।

इस विरोधी स्वर के सरोकारों से नाइत्तेफाकी रखी जाए, यह मुमकिन नहीं। लेकिन बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अमेरिका में जन्मी सौंदर्य प्रतियोगिताओं की यह आलोचना पारंपरिक है। उसकी जड़ें 1968 में मिस अमेरिका और 1970 में लंदन में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के जबरदस्त फेमिनिस्ट विरोध में देखी जाती हैं। 1990 के दशक में चकाचौंध भरे सैटेलाइट टेलीविजन के नए दौर में परवान चढ़ने वाली इन प्रतियोगिताओं के मूल में नारी देह, देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और सैटेलाइट टीवी की मिली-जुली आर्थिक-सांस्कृतिक राजनीति रही है, पर लड़कियों को इस चकाचौंध का शिकार मान लेने वाली जुबान को बदलना भी जरूरी है। लड़कियां दुनिया के किस हिस्से से, किस सोच-समझ और मकसद के साथ इन प्रतियोगिताओं में उतरती हैं, उनका विश्लेषण करने की बजाय उन्हें बेमानी करार देकर किनारा करने से स्त्री-पुरुष बहस को कुछ हासिल नहीं होता।

मिस यूनिवर्स जैसी सौंदर्य प्रतियोगिताएं विश्व मंच पर राष्ट्रीय विविधता की पहचान में लिपटी लड़कियों के भ्रामक शारीरिक सौष्ठव का बेतुका प्रदर्शन कहकर दरकिनार की जा सकती हैं, लेकिन इससे खूबसूरती की जटिल राजनीति से पीछा तो नहीं छूट सकता। असमान आर्थिक मौके, शोषण, अमीर-गरीब के बीच भयानक अंतर जैसे तमाम नकारात्मक दुनियावी अनुभवों के बावजूद नव-उदारवादी आर्थिक ढांचों और बेइंतहा वैश्वीकरण ने युवा मन को संभावनाएं तलाशने का जो नया जुनून दिया, उसके मूर्त रूप की एक चमकदार झलक रही हैं सौंदर्य प्रतियोगिताएं, खासकर भारत जैसे विकासशील देशों में। 1920 में अमेरिका में जब खूबसूरती की प्रतियोगिताओं के बीज पड़े तब से अब तक स्त्री-पुरुष बहस बहुत आगे बढ़ चुकी है और मीडिया तो उम्मीद से कहीं ज्यादा बदल चुका है। बेहतर होगा कि इन मंचों पर जा रही लड़कियों की मौजूदगी और उनकी आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों तथा विचारों को मजाक में उड़ाने के बजाए उन्हें परतदार विमर्श के दायरे में रखा जाए।

देह, सौंदर्य और प्रतियोगिता

स्त्री सौंदर्य और उसके पितृसत्तात्मक प्रतिमान नारीवादी आंदोलनों और बहसों का बेहद अहम हिस्सा रहे हैं। शरीर और उस पर अधिकार का सवाल 1960 में जन्मे फेमिनिज्म (नारीवाद) के बुनियादी सरोकारों में है। पिछले कुछ बरसों में सौंदर्य प्रतियोगिताओं की कुछ विजेताओं के जरिए स्त्री-पुरुष फर्क, रंग, राष्ट्रीयता, मानवाधिकार जैसे जटिल मसलों को करीब से समझने का मौका मिलता है।

हरनाज संधू को ही लें तो मिस यूनिवर्स 2021 के अंतिम सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “मैं युवाओं को अपने-आप पर भरोसा करने के लिए कहूंगी क्योंकि यही सबसे ज्यादा मुश्किल काम है आज की दुनिया में। यह जानना कि आप अनोखे हो, यही आपको खूबसूरत बनाता है। अपने आप की दूसरों से तुलना करना बंद करिए। पूरी दुनिया में जो हो रहा है, उस पर बात करना बेहद जरूरी है। बाहर निकलिए, खुद के लिए बोलिए क्योंकि आप ही अपने जीवन के नेता हैं। आप खुद की आवाज हैं। मैंने खुद पर भरोसा किया इसलिए मैं आज यहां खड़ी हूं।” तीस सेकेंड के जवाब में संधू के वाक्यों को अगर ग्लैमर, कपड़ों और बिजनेस के दायरों से आगे बढ़कर एक युवा लड़की की नजर से देखा जाए तो उन्होंने चंद शब्दों में उत्साह और विश्वास से भरी एक लड़की की झलक पेश की। पंजाब के एक गांव में पैदा हुई और चंडीगढ़ शहर के पास बसी एक सजग लड़की का उस मंच पर पहुंचने का सफर सिर्फ सौंदर्य के जाल में उलझी मध्यम-वर्गीय नासमझ लड़की की कहानी से ज्यादा मानीखेज है।

 अगर सौंदर्य की त्रुटिपूर्ण प्रतियोगिता में हरनाज का शरीर आर्थिक-सामाजिक असमानता और मध्यवर्गीय प्रिविलेज के लेंस से देखा जा सकता है तो वही देह इस बात का प्रतीक भी है कि भारत में उन्हें एक लड़की के तौर पर जन्म लेने और पितृसत्तात्मक परिवार में सपने देखने का मौका मिला। इसके आगे वे फिल्मों में जाती हैं या एनजीओ बनाती हैं, यह चुनने का अधिकार हरनाज को है। उनके वजूद और चुनावों को नीचा दिखाना भी उसी दमनकारी मानसिकता का प्रतीक है, जितना औरतों से एक खास तरह से सुंदर होने की उम्मीद करना। प्रतियोगिता की प्रासंगिकता, तौर-तरीकों और खूबसूरती के पैमानों पर सवाल उठाते वक्त भी यह देखना जरूरी है कि वैश्विक आर्थिक ढांचे और मीडिया की जुगलबंदी से अपनी पैठ बनाने वाले आयोजनों में जाने के लिए लड़कियां किस तरह की इमोशनल लेबर यानी भावनात्मक मेहनत करती हैं और तमाम विरोध के बावजूद इन प्रतियोगिताओं के प्रति उनका आकर्षण कम क्यों नहीं होता?  

हमें कोई एक राय बनाने से पहले कई उदाहरण देखने होंगे। मसलन, 1928 से चल रही ब्रिटेन की मिस इंग्लैंड प्रतियोगिता। 2019 में इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए 20,000 आवेदन आए। यह सोचा जा सकता है कि सोशल मीडिया स्टारडम के इस दौर में, इंस्टाग्राम और टिकटॉक पर बेहतरीन फीड बनाकर सफल इंफ्लुएंसर बना जा सकता है तो फिर इतनी लड़कियों को प्रतियोगिता में दिलचस्पी क्यों है? 2019 की उस प्रतियोगिता के अंतिम प्रतिभागियों में शामिल आएशा खान ने इस तरह के सवालों के जवाब में कहा कि यह ऐसा मंच है जहां बहुत-सी एशियाई लड़कियां कदम नहीं रखतीं इसलिए उन्होंने उसमें हिस्सा लेकर ‘सही संदेश’ देने की कोशिश की। प्रतियोगिता में आएशा की हिस्सेदारी के खिलाफ उनके समुदाय ने विरोध भी दर्ज कराया लेकिन आएशा का मानना था कि मिस इंग्लैंड वह मंच है, जहां से वो ब्रिटिश-मुसलमान लड़कियों की नई पीढ़ी की प्रेरणा बन सकेंगी।

हालांकि इस प्रतियोगिता की विजेता बनी थीं भारतीय मूल की भाषा मुखर्जी, जो पेशे से डॉक्टर हैं और कोविड महामारी फैलने के बाद ताज विजेता के नाते अपने काम से विदा लेकर अस्पताल में जूनियर डॉक्टर के तौर पर वापस लौट गईं। मिस इंग्लैंड के फाइनल में मंच पर खड़ी, पांच भाषाएं बोलने वाली भाषा मुखर्जी दो मेडिकल डिग्रियां हासिल कर चुकी थीं। सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का सफर इस बात से शुरू हुआ कि पढ़ाई से इतर कुछ और भी किया जाए जिसमें मजा आए। भाषा के प्रतियोगी बनने और जीत ने दैहिक खूबसूरती और दिमाग को अलग-अलग खांचों में रखने वाली रूढ़िवादिता को तोड़ने का काम किया। हालांकि इसकी शुरुआत तो पहली भारतीय मिस वर्ल्ड रीटा फारिया ने 1966 में ही कर दी थी जो खुद डॉक्टर थीं।

 बात रीटा फारिया की हो, आएशा खान या फिर भाषा की, सौंदर्य प्रतियोगिता में लड़कियों की दिलचस्पी कुछ हद तक इस बात से जुड़ी है कि वे उस मंच को अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थिति से कैसे जोड़ती हैं और कैसे उन ढांचों में अपनी इच्छाओं को साकार करने के सपने बुनती हैं। लड़कियां देश, वर्ग, परिवार, धर्म, परिवेश और संसाधनों के सवालों से कैसे निपटती हैं या सुलझाती चलती हैं। मंच पर खड़ी लड़कियां खुद को सिर्फ सजी-संवरी गुड़िया की बजाए ग्लोबल दुनिया में रहने वाली खुद-मुख्तार शख्सियत के तौर पर पेश करने के प्रयास में ऐसा बहुत कुछ करती हैं जिसे किसी दूसरे नौकरी-पेशे से जुड़े काम के तौर पर नहीं देखा जाता। हालांकि यह इन प्रतियोगिताओं से जुड़ा एक अहम पहलू है, जिस पर काफी शोध हुआ है।    

सौंदर्य का श्रम

मोटे तौर पर 1990 के बाद जन्मी नई नारीवादी धाराएं, जिन्हें पोस्ट-फेमिनिज्म भी कहा जाता है, सौंदर्य की बहस को शोषण और पितृसत्ता के दायरे से बाहर निकाल कर लेबर यानी काम के लेंस से देखने की भी अपील करती हैं। खासकर ऐस्थेटिक लेबर यानी सौंदर्यपरक श्रम के नजरिए से, जो किसी भी सौंदर्य प्रतियोगिता के मूल में है। चलने, उठने, बैठने, बोलने के लिए होंठ हिलाने से लेकर मंच पर पांव आगे-पीछे रखने तक एक-एक कदम तय दूरी और दिशा में उठाने की प्रक्रिया बाहर से बेमानी लग सकती है लेकिन ब्यूटी पेजेंट की अर्थव्यवस्था में यही महिलाओं के श्रम का वह रूप है, जिसकी झलक आम जिंदगी में भी दिखती है और कुछ अन्य नौकिरयों में भी। आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के कई सेक्टरों में महिलाओं से यही श्रम करवाया जाता है और इसे तवज्जो तक नहीं दी जाती जैसे- एयरलाइंस में काम करने वाली लड़कियों को सदा मुस्कुराने और धीमी सधी आवाज में बात करने की ट्रेनिंग। यह दफ्तर में टाइपिंग सीखने या कंप्यूटर चलाने जैसा ही हुनर है, जिसे पैदा करना हर उस शख्स के लिए जरूरी है, जो काम पर लगे रहने और सफल होने की इच्छा रखता है। समझने वाली बात यह है कि काम का संदर्भ यह तय करता है कि उसमें प्रभावी और सफल होने के लिए किस हुनर की जरूरत और अहमियत ज्यादा है। 

अगर सौंदर्यपरक श्रम के लिहाज से देखा जाए तो ब्यूटी पेजेंट को ऐसा पूंजीवादी ढांचा माना जा सकता है जिसमें हिस्सा लेने की इच्छुक लड़कियों को देह और व्यक्तित्व की प्रस्तुति की तय प्रक्रिया का हिस्सा होना पड़ता है। ऐसी तैयारी से गुजरना, जिसमें लड़कियां दैहिक दिखावट की निश्चित शर्तों के आधार पर अपनी छवि उभारने के लिए श्रम करती हैं। शायद खूबसूरत दिखने के तय मानदंड ही वह वजह हैं कि ज्यादातर प्रतियोगियों के चेहरे, मेक-अप, बाल एक जैसे नजर आते हैं और राष्ट्रीय पहचान को उभारने के लिए कॉस्ट्यूम राउंड की राजनैतिक महत्ता बढ़ जाती है। 

चाल-ढाल, बोलने, उठने-बैठने और चलने की यह तैयारी क्या सिर्फ शारीरिक श्रम के तौर पर समझी जा सकती है? क्या इसमें दिमागी और भावनात्मक स्तर पर कोई मेहनत की जरूरत नहीं पड़ती? यह सवाल पूछना बहुत जरूरी है, अगर हमें आधुनिक आर्थिक ढांचे में जीवन और श्रम की गहन पड़ताल में दिलचस्पी है। सौंदर्य प्रतियोगिता में जिस शारीरिक श्रम की बात हम कर रहे हैं उसमें लड़कियां निष्क्रिय हिस्सेदारी नहीं निभातीं। उसमें फैसले, मानसिक तैयारी और खुद को प्रस्तुत करने की उद्यमशीलता शामिल होती है, एक ऐसे प्रभावी व्यक्तित्व का गठन जो प्रतियोगियों की भीड़ से आगे निकलने में मदद करे। यहां खूबसूरती के निश्चित पैमानों के बीच शायद गुंजाइश बनती है खुद को नियमित और संयमित करने की। यह प्रतियोगिता के तय ढांचे के बीच दबाव और स्व-नियंत्रण का खेल है जिसे उद्यमशीलता के जटिल अर्थों में समझा जा सकता है। वह उद्यमशीलता, जिसमें फैसले लेने का जोखिम और नतीजे देखने का साहस शामिल है।

इसे समझने के लिए एक उदाहरण 2014 में मिस अमेरिका बनी भारतीय मूल की नीना दावुलुरी में देखा जा सकता है। पहली भारतीय-अमेरिकी नीना के ताज जीतने के बाद ट्विटर पर काफी हंगामा हुआ था कि कैसे उनके जैसी गहरे रंग वाली लड़की के लिए अमेरिका में जीतना मुमकिन था लेकिन भारत में नहीं, जहां लोग लड़कियों में गोरे रंग के दीवाने हैं। लेकिन मेरी दिलचस्पी इस बात में है कि कैसे नीना ने अपनी भारतीय सांस्कृतिक विरासत का इस्तेमाल प्रतियोगिता में बढ़त बनाने के लिए किया।

प्रतियोगिता के एक दौर में नीना ने बॉलीवुड-फ्यूजन डांस पेश किया, जिसकी सोशल मीडिया पर आलोचना भी हुई लेकिन उनके इस फैसले को रणनीतिक माना जा सकता है। प्रतियोगिता के मंच पर नीना ने मैं हूं ना फिल्म के गाने पर डांस करके प्रवासी भारतीय समुदाय को शायद अपने वजूद पर गर्व से थिरकने का मौका दिया, जिसकी पहचान सिलिकॉन वैली में सफल भारतीय इंजीनियरों तक सीमित है और मुख्यधारा की मीडिया में उपस्थिति नाकाफी। बॉलीवुड फिल्म संगीत के साथ अपनी शास्त्रीय ट्रेनिंग को मिलाने के उद्यम से नीना दावुलुरी ने सांस्कृतिक विरासत को अपने वर्तमान देश के मंच पर समेटते हुए मिस अमेरिका प्रतियोगिता को भी अपनी बहुसांस्कृतिक छवि तराशने का मौका दिया। नीना चाहती तो कुछ और भी पेश कर सकती थीं लेकिन उन्होंने एक फैसला किया और उस फैसले के पीछे एक पूरी रणनीति रही, जो अंत में उन्हें जीत तक ले गई। उनकी जीत अमेरिका में जातीय रिश्तों के इतिहास और उससे पार निकलने के युवा प्रयासों के दायरे में देखी जाती है। दावुलुरी ने डांस को सिर्फ प्रतिभा के तौर पर नहीं पेश किया, बल्कि उसके जरिए अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को मंच पर स्थापित करने का श्रम किया। इसकी विवेचना और आलोचना हो सकती है लेकिन उनके श्रम और रणनीतिक फैसले को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सौंदर्य प्रतियोगिताएं दरअसल नव-उदारवादी दुनिया का ऐसा मंच हैं, जहां लड़कियां लगातार खुद को तराशने और तलाशने का श्रम करती हैं। प्रतियोगिता के नियम-कायदे इस प्रक्रिया की संभावनाएं तय करते हैं लेकिन लड़कियां अपने निजी अनुभवों और सामाजिक-सांस्कृतिक दायरों को समेटे अपना बेहतर स्वरूप पेश करने की उद्यमिता में लगी रहती हैं। ये प्रयास सिर्फ रंग, वजन और कद के दायरों में सीमित नहीं रहता, बल्कि खुद को बेहतर करने की संभावनाओं का भी उत्सव मनाता है। जहां शख्सियत एक ऐसी वस्तु है जिसे लगातार बदला जा सकता है। बेहद ऊंचे प्रोडक्शन वैल्यू के साथ प्रसारित होने वाली ये प्रतियोगिताएं दर्शकों में शामिल लड़कियों को प्रतिभागियों के साथ एक रिश्ता बनाने का भी मौका देती हैं। बिना मिले, बिना जाने करीने से तराशी गई उन शख्सियतों के करीब महसूस करने का मौका जिनकी शारीरिक और आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों में शायद करोड़ों लड़कियां अपने लिए संभावनाएं तलाश सकती हैं। प्रतिभागी लड़कियों के संदेश भी लगातार यही बताने का प्रयास करते हैं कि कैसे एक इनसान की शख्सियत लगातार बदली जा सकने वाली विकासशील वस्तु है। ये भावात्मक श्रम का ही एक पहलू है, जहां कोई लड़की खुद को एक प्रतीक के तौर पर देखती और प्रस्तुत करने का अथक प्रयास भी करती चलती है।

इन तमाम उदाहरणों और पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह कहना मुमकिन है कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं को शोषण और उथलेपन का मंच कहने के बजाय उनकी मूर्त राजनीति और अमूर्त प्रभावों के रेशे खोलने से उनमें हिस्सेदारी करने वाली युवा लड़कियों के इरादों और प्रयासों को समझने में मिलती है। हर वह जगह, जहां दैहिक सौंदर्य को प्रमुखता दी जा रही हो, अपने आप में जटिल आर्थिक-सामाजिक राजनीति का संकेत है। प्रतिभागियों के इरादों-प्रयासों का समागम उस वक्त की मौजूदा चिंताओं और तनावों को समझने में मदद करता है। मंच पर खड़ी हर लड़की सिर्फ रंग, वजन और कद के नियमों का संगम नहीं होती। मेकअप में छिपे चेहरे और निर्देशों पर लहराते शरीरों में लिपटा होता है वह पूरा सफर जिससे होकर एक लड़की गुजरती है। उस सफर के कई रंग हो सकते हैं और उन रंगों को कलाकारी से पेश करने की जिम्मेदारी होती है प्रतिभागी लड़कियों के कंधों पर, इसलिए सौंदर्य की इस जटिल दुनियादारी को बेरंग, बेमकसद और बेवजह करार देना नाइंसाफी होगी।

लारा दत्ता

मिस यूनिवर्स, 2000

लारा दत्ता

लारा दत्ता मिस यूनिवर्स खिताब जीतने वाली दूसरी भारतीय हैं। 16 अप्रैल 1978 को उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में जन्मी लारा की पढ़ाई बेंगलूरू में हुई। हिंदी सिनेमा में फिल्म अंदाज से कदम रखने वाली लारा ने कई सफल फिल्मों में काम किया है। उन्होंने 2011 में भारतीय टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति से शादी की। लारा को कुछ समय पहले फिल्म बेल बॉटम में इंदिरा गांधी के किरदार में देखा गया था। हाल ही उनका वेब शो हिकप्स एंड हूकप्स रिलीज हुआ है।

निकोल फारिया

मिस अर्थ, 2010

निकोल फारिया

इंटरनेशनल ब्यूटी पेजेंट मिस अर्थ का खिताब आज तक केवल एक भारतीय, निकोल फारिया के नाम है। 9 फरवरी 1990 को बेंगलूरू में पैदा हुईं निकोल 15 वर्ष की आयु में फैशन की दुनिया में आईं। उन्होंने मिस इंडिया 2010 सौंदर्य प्रतियोगिता में मिस इंडिया अर्थ का खिताब जीता था। वे 2014 में फिल्म यारियां में नजर आई थीं। उसके अगले साल फिल्म कट्टी-बट्टी और एक तुर्की फिल्म में भी काम किया। जनवरी 2020 में उन्होंने दोस्त रोहन पवार से शादी कर ली।

मानुषी छिल्लर

मिस वर्ल्ड, 2017

मानुषी छिल्लर

मानुषी मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता जीतने वाली छठी भारतीय हैं। वे 14 मई 1997 को रोहतक में पैदा हुईं। डॉक्टर माता-पिता की संतान मानुषी ने पहले प्रयास में ही ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट (अब एनईईटी) पास कर लिया था। प्रतियोगिता के समय सोनीपत के भगत फूल सिंह मेडिकल कॉलेज में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थीं। मानुषी, अक्षय कुमार के साथ पृथ्वीराज से फिल्म करियर की शुरुआत करेंगी। इसके 2022 में रिलीज होने की उम्मीद है। वे 'संयोगिता' की भूमिका में हैं।

डायना हेडन

मिस वर्ल्ड, 1997

डायना हेडन

ऐश्वर्या के तीन साल बाद फिर एक भारतीय के सिर मिस वर्ल्ड का ताज सजा। डायना का जन्म 1 मई 1973 को सिकंदराबाद में हुआ था। मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता जीतने के बाद उन्होंने रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट, लंदन से अभिनय की पढ़ाई की। शेक्सपीयर के नाटक 'ओथेलो' पर 2001 में बनी फिल्म में काम किया। अब बस और तहजीब, दो हिंदी फिल्मों में भी काम किया है। 2013 में अमेरिकी बिजनेसमैन कॉलिन डिक से शादी की। डायना अब कैमरे से दूर हैं।

युक्ता मुखी

मिस वर्ल्ड, 1999

युक्ता मुखी

युक्ता मिस वर्ल्ड बनने वाली चौथी भारतीय हैं। 7 अक्टूबर 1977 को बेंगलूरू में जन्मी युक्ता मिस वर्ल्ड बनने के बाद एचआइवी/एड्स, स्तन कैंसर और थैलेसीमिया प्रभावित लोगों के लिए काम करने लगीं। 2001 में तमिल फिल्म पोवेल्लम उनवासम से फिल्मों में आईं। अगले साल उनकी हिंदी फिल्म प्यासा आई जो फ्लॉप रही। 2005 में मेमसाहब और लव इन जापान में नजर आईं। युक्ता ने 2008 में न्यूयॉर्क के बिजनेसमैन प्रिंस टुली से शादी, लेकिन 2014 में तलाक हो गया।

प्रियंका चोपड़ा

मिस वर्ल्ड, 2000

प्रियंका चोपड़ा

ग्लोबल आइकन प्रियंका बॉलीवुड में झंडे गाड़ने के बाद हॉलीवुड में काम कर रही हैं। उनका जन्म 18 जुलाई 1982 को जमशेदपुर में हुआ था। 2002 में तमिल फिल्म थमिजन से फिल्मी सफर शुरू किया और द हीरो से बॉलीवुड में कदम रखा। उन्हें एक राष्ट्रीय और पांच फिल्मफेयर पुरस्कार मिल चुके हैं। 2016 में पद्मश्री से सम्मानित प्रियंका को टाइम पत्रिका ने दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल किया था। 2018 में उन्होंने अमेरिकी गायक निक जोनस से शादी की।

रीटा फारिया

मिस वर्ल्ड, 1966

रीटा फारिया

'मिस बॉम्बे' रहीं रीटा, मिस इंडिया कॉन्टेस्ट हार गई थीं, लेकिन 1966 में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में इतिहास रच दिया। पहली बार किसी भारतीय ने अंतरराष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिता जीती थी। रीटा का जन्म 23 अगस्त 1943 को मुंबई में हुआ। मिस वर्ल्ड बनने के बाद उन्हें फिल्मों के प्रस्ताव मिले, लेकिन वे डॉक्टर बनीं। 1971 में एंडोक्राइनोलॉजिस्ट डेविड पॉवेल से शादी की और 1973 में डबलिन चली गईं। वहीं मेडिकल प्रैक्टिस शुरू की। उनके दो बच्चे और पांच पोते-पोतियां हैं।

सुष्मिता सेन

मिस यूनिवर्स, 1994

सुष्मिता सेन

19 नवंबर 1975 को हैदराबाद में जन्मी सुष्मिता सेन महज 18 वर्ष की उम्र मंे मिस यूनिवर्स बनीं। मिस यूनिवर्स बनने के 23 साल बाद जनवरी 2017 में मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता की जज भी बनीं। 1996 में दस्तक फिल्म से अभिनय की दुनिया में कदम रखा। 1999 में बीवी नंबर 1 में 'रूपाली' के किरदार के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। हाल ही में आई वेब सीरीज आर्या और आर्या 2 के लिए उन्हें काफी सराहना मिल रही है।

ऐश्वर्या राय

मिस वर्ल्ड, 1994

ऐश्वर्या राय

रीटा फारिया के 28 साल बाद 21 वर्षीय ऐश्वर्या ने मिस वर्ल्ड का ताज पहना। मेंगलूरू में 1 नवम्बर 1973 को जन्मी ऐश्वर्या की प्रारंभिक शिक्षा हैदराबाद में हुई, बाद में परिवार मुंबई आ गया। स्कूल दिनों से उन्हें मॉडलिंग के प्रस्ताव मिलने लगे थे। तमिल फिल्म इरुवर से अभिनय में कदम रखा। बॉलीवुड में देवदास और गुरु जैसी कई बड़ी फिल्में कर चुकी हैं। ऐश्वर्या मणिरत्नम की फिल्म पोन्नियन सेल्वन में नजर आने वाली हैं। 2007 में अभिषेक बच्चन से शादी की।

 

 

स्वाति बक्शी

(लेखिका वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय, लंदन के मीडिया और संचार विभाग में हिंदी सिनेमा पर शोध कर रही हैं। वे सम-सामयिक मुद्दों पर लिखती हैं)

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