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बालाकोट हमला और मसूद

पश्चिमी देशों से मिली खुफिया सूचनाओं के बावजूद जैश सरगना को लेकर तस्वीर साफ नहीं
जैश सरगना अजहर मसूद पर कार्रवाई को लेकर  अहमदाबाद में प्रदर्शन

इस साल 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर पुलवामा हमले के मास्टरमाइंड जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर को लेकर क्या चल रहा है, इस बारे में दुनिया भर के, खासतौर पर पाकिस्तान और इस्लामी दहशतगर्दी पर नजर रखने वाले सुरक्षा विश्लेषक कुछ समझ नहीं पा रहे। भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञों का यह सवाल बार-बार पीछा करता रहेगा कि क्या मसूद बालाकोट में 26 फरवरी के हवाई हमलों में वाकई मारा गया? क्या वह बेहद बीमार है और पाकिस्तान के किसी अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है?

यह समान रूप से पेचीदा है कि हमारे अपने स्रोतों और वैश्विक आतंकवाद से लड़ रहे हमारे मित्र पश्चिमी देशों की एजेंसियों से उपलब्ध खुफिया सूचनाओं के बावजूद हमें अभी तक हाई-प्रोफाइल आतंकवादी मसूद अजहर की मौजूदा स्थिति के बारे में कोई सुराग नहीं मिला है।

एकबारगी मान लें कि मसूद बीमारी से या हमले में मारा गया है, तो जैश के बाकी आतंकियों और सहयोगियों को खत्म करने के लिए सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों का अगला एजेंडा क्या होगा, जो बहावलपुर या पाकिस्तानी सेना के महफूज ठिकानों में अड्डा जमाए बैठे हैं? हम इस तरह की संवेदनशील योजनाओं को छिपा नहीं सकते हैं। अगर कोई योजना है, तो भी यह उम्मीद की जाती है कि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकी ढांचों को नेस्तनाबूद करने के लिए आक्रामक और सक्रिय ऑपरेशन हमारी विचार प्रक्रिया और योजनाओं में होनी चाहिए।

इस पर जोर देने का कारण यह भी है, क्योंकि पुलवामा हमले के बाद बालाकोट में हवाई हमले और भारत की आक्रामक सफल वैश्विक कूटनीति के बाद विपरीत परिस्थितियों में विंग कमांडर अभिनंदन की रिहाई और अन्य घटनाक्रमों से इसकी चमक काफी हद तक खो गई है, इसे विशेष रूप से भारतीय वायु सेना ने कड़ी मेहनत से हासिल किया था। इसे खोना दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा संभवतः आतंक के खिलाफ कार्रवाई और वह भी थोड़े समय के भीतर ही इसे लेकर राजनीति की वजह से हुआ। सत्तारूढ़ दल और उसके राजनीतिक विरोधियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है, जो हमारी सैन्य क्षमताओं की सफलता के लिहाज से नुकसानदेह है। अरसे बाद लोगों को लगा कि देश अब सभी राजनीतिक मतभेदों को दूर कर मजबूती से एकजुट हो रहा है और अब दुश्मनों से प्रभावी तरीके से निपटा जा सकता है। लेकिन अफसोस कि यह उत्साह ज्यादा देर तक नहीं रहा।

एक के बाद एक सभी नेता अपमानजनक शब्दों और तंज का इस्तेमाल करने लगे हैं। ऐसा चुनाव करीब होने के कारण हो रहा है। अब ऐसा लगने लगा है कि उड़ी हमले का बदला लेने के लिए की गई सर्जिकल स्ट्राइक के तुरंत बाद अपने रुख को नरम करना गलत था। सर्जिकल स्ट्राइक को अब लगभग तीन साल हो गए हैं और अगर इस स्थिति को बनाए रखा गया होता, तो शायद पुलवामा या बालाकोट में ऑपरेशन की जरूरत नहीं होती, जो इलाज से बेहतर रोकथाम है, के पुराने मुहावरे की तस्दीक करता है। इस तरह के घृणित और दुष्प्रचार अभियान के पीछे संभवतः चुनावी और आक्रामक प्रचार एकमात्र वजह है।

हाल में ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआइसी) से मिले झटके ने पाकिस्तान की विश्वसनीयता को बेहद चोट पहुंचाई है। पाकिस्तान ने ओआइसी में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बतौर अतिथि निमंत्रण का विरोध किया, जिसकी अनदेखी की गई और संभवतः पहली बार मुस्लिम देशों ने आतंक को बढ़ावा देने के लिए एक मुस्लिम देश की आलोचना की। इसके बावजूद आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने के बजाय पाकिस्तान बौखलाहट में भड़काऊ कदम उठा सकता है। यहां यह भी बताया जाना चाहिए कि 50 साल पहले 1969 में मोरक्को के रब्बात में भारतीय प्रतिनिधिमंडल को मुख्य रूप से ओआइसी की ओर से अनसुना कर दिया गया था। आज चीजें नाटकीय ढंग से बदल गई हैं। इस बात के बावजूद कि भारत को युद्धोन्मादी पाकिस्तान से किसी भी विध्वंसक गतिविधि के प्रति सावधान रहना चाहिए।

ये सभी दृष्टांत भारतीय सुरक्षा और खुफिया अधिकारियों को सतर्क करने वाले हैं, ताकि वे आतंक से जुड़ी किसी भी घटना से निपटने के लिए तैयार रहें। विशेष रूप से खुफिया जानकारी एकत्र करने वाली एजेंसियों, इलेक्ट्रॉनिक खुफिया सूचना और तस्वीरों का अध्ययन करने वाले लोगों को चालाकी से लगातार जानकारी संग्रह करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, ताकि किसी भी घटना को समय रहते नाकाम किया जा सके। यह वक्त तूफान से पहले की खामोशी वाला लग रहा है।

इस बीच, हमने देखा है कि बालाकोट में हवाई हमले वाली जगह पर नुकसान के दावों को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स, अल जजीरा जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों और कुछ अन्य लोगों ने भारतीय वायु सेना के दावों पर सवाल खड़ा किया। यह ऐसे दावों या विवादों का खंडन करने का समय नहीं है। जैसा खुफिया एजेंसियों के दायित्वों को ऊपर बताया गया है, उन्हें लगातार सीमा पार आतंकी प्रशिक्षण शिविरों की जानकारी एकत्र करनी चाहिए और उन पर सुरक्षात्मक कार्रवाई करनी चाहिए। यह उस प्रचलित कहावत पर अमल करने जैसा होगा जो कहती है कि “आक्रमण ही सबसे अच्छा बचाव है।”

इसके अलावा, पाकिस्तान को बेअसर करने के लिए युद्ध के दौरान मनोवैज्ञानिक जंग की रणनीति का भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जैसा कि 1965 और 1971 में देखा गया था। साथ ही सभी जिम्मेदार नेताओं को संयम बरतना चाहिए। उन्हें संतुलित भाषा का प्रयोग करते हुए राजनीतिक नैतिकता का पालन करना चाहिए, नहीं तो विरोधी खेमा इसका लाभ उठा सकता है। इससे हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि आतंकवाद से दृढ़ता से निपटा जाएगा। और, यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि लोकसभा चुनाव तक माहौल किसी भी तरह की आतंकी हिंसा से मुक्त रहेगा। यह बहुत हद तक मुमकिन है।

(लेखक सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी और सुरक्षा विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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