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गांधी जयंती: आनंद वन अमृत वर्ष पचहत्तर बरस के प्रयोग

बाबा आमटे और उनके परिवार ने आनंदवन में लिखी सेवा और श्रम की रामायण, गांधी के गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के सपने को चंद्रपुर में साकार कर दिखाया
सेवा व्रतः बाबा आमटे, साधना ताई और उनके बेटे (फाइल फोटो)

बाबा आमटे और उनके परिवार ने महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के वरोरा स्थित आनंद वन आश्रम में कुष्ठ रोगियों, दिव्यांगों और बेसहारा लोगों की सेवा की मिसाल पेश की है। आनंद वन आश्रम की स्थापना के पीछे की कहानी बेहद मार्मिक है। बीसवीं शताब्दी में चालीस के दशक में वरोरा नगरपालिका का उपाध्यक्ष रहते हुए बाबा आमटे ने भंगियों की समस्या देखी, तो सालभर खुद सिर पर मैला ढोया। उन्हीं दिनों सड़क पर तुलसीराम नाम के एक कुष्ठरोगी को तड़पते देख, उनका मन कांप उठा। उसके न हाथ-पैर थे, न नाक-आंख। बाबा ने उसी क्षण अपना जीवन कोढ़ियों और बेसहारों की सेवा-सुश्रुषा में लगाने का संकल्प किया और कुष्ठ महारोग से संबद्ध जानकारी एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने कुष्ठ रोग से संबंधित किताबों का अध्ययन किया। बाबा आमटे ने दत्तपुर के कुष्ठ धाम में कुष्ठ सेवा के इच्छुक कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध प्रशिक्षण की सुविधा का लाभ उठाया। बाबा आमटे ने सप्ताह में तीन दिन वरोरा से वर्धा और वर्धा से दत्तपुर जाकर प्रशिक्षण पूरा किया। सेवाग्राम में भी कुष्ठ रोगियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था थी। बाबा आमटे ने वहां भी दो माह का प्रशिक्षण पूरा किया। पर कुष्ठ रोग संबंधी अपने ज्ञान से बाबा आमटे को संतोष नहीं था। इसलिए उन्होंने कलकत्ता के स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में अल्पावधि डिप्लोमा में प्रवेश लिया। वहां उन्होंने खुद में कुष्ठ जीवाणुओं को इंजेक्ट कराया। उन पर दो परीक्षण किए गए। उनके शरीर में पहले मृत, उसके बाद जीवित कुष्ठ जीवाणु प्रविष्ट किए गए। खुशकिस्मती से दोनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

असहाय सेवाः आनंद वन में चिकित्सालय, वृद्घाश्रम और दिव्यांगों की पाठशालाअसहाय सेवाः आनंद वन में चिकित्सालय, वृद्घाश्रम और दिव्यांगों की पाठशाला

असहाय सेवाः आनंद वन में चिकित्सालय

बाबा आमटे ने 1949 में महारोगी सेवा समिति की स्थापना की और उसका पंजीकरण कराया। इसके बाद उन्होंने मध्यप्रांत सरकार से जमीन देने के लिए अर्जी दी। सरकार ने वरोरा से चार किलोमीटर दूर नागपुर-चंद्रपुर मार्ग पर पचास एकड़ जंगल की जमीन आवंटित कर दी। बाबा आमटे अपनी पत्नी साधना, दोनों बेटों, विकास और प्रकाश, छह कुष्ठ मुक्त रोगियों, एक लंगड़ी गाय और चौदह रुपये की कुल जमा पूंजी के साथ उस जंगल में पहुंचे। उसे नाम दिया आनंद वन। बाबा आमटे और उनके सहयोगियों ने कुआं खोदकर पीने-नहाने आदि के लिए पानी की व्यवस्था की। कुएं के पास झोपड़ियां बनीं। खेती लायक जमीन तैयार की गई। जंगली जानवरों के प्रकोप से बचने के उपाय किए गए। बाबा आमटे रोगियों के साथ गांव के बाजार में जा बैठते ताकि उन्हें देखकर नए कुष्ठ रोगी आएं। बाबा आमटे ने तय किया कि कुष्ठग्रस्तों के लिए काम करने के बजाय कुष्ठग्रस्तों के साथ वे काम करेंगे। 

विनोबा भावे ने 21 जून, 1951 को आनंद वन आश्रम का उद्घाटन किया। इस नाते आनंद वन आश्रम का यह अमृत वर्ष है। उद्घाटन के अवसर पर विनोबा ने कहा था, “आनंद वन को देखकर मेरा जी जुड़ा गया। इसको दिया यह नाम पूरी तरह सार्थक है। रोगियों ने अपने परिश्रम से जीवन में आनंद निर्मित किया। उन्होंने भिक्षा पात्र के स्थान पर श्रम का महत्व समझा, श्रम में छिपे श्रीराम को पहचाना। यह महारोगियों का निवास केंद्र नहीं है। यहां परिश्रम और सेवा की रामायण लिखी जा रही है।’’

असहाय सेवाः आनंद वन में चिकित्सालय, वृद्घाश्रम और दिव्यांगों की पाठशाला

असहाय सेवाः आनंद वन में वृद्धाश्रम

धीरे-धीरे आनंद वन में कुष्ठ मुक्त रोगियों के श्रम से कुछ और झोपड़ियां खड़ी हो गईं, खेत में फसलें लहलहाने लगीं। आनंद वन में ताजा सब्जियां और दूध, खपत के बाद भी बचने लगे। पर कुष्ठ के प्रति भय एवं घृणा के कारण लोगों ने दूध या सब्जी खरीदना तो दूर, छूने से भी इंकार कर दिया। फिर कुछ पढ़े-लिखे ग्राहकों ने पहल की। दूध और सब्जी की गुणवत्ता सबको ललचाती थी। देखा-देखी दूसरे भी लेने लगे। इस तरह मांग बढ़ने लगी। इससे कुष्ठ-मुक्तों का काम के प्रति उत्साह दोगुना हो गया। आनंद वन में बाबा आमटे ने पंजाब एवं हरियाणा से महंगी गाएं मंगाईं। वे गाएं बहुत तगड़ी और ऊंची थीं। दूध भी बहुत देती थीं। महा रोगियों से दुहने का काम नहीं लिया जा सकता था, दूध दूहने वाला कोई मिलता नहीं था। गायों के थन सूजकर कड़क होने लगे। किसी प्रकार उनके पैर बांधकर बाबा आमटे और साधना ताई ने उन्हें दुहना शुरू किया। साधना ताई ने कई बार गायों की लातें खाईं। कभी-कभी गाएं दूध की बाल्टी लुढ़का देतीं। साधना ताई उन गायों के सामने बौनी लगतीं। उनके हाथों-कंधों में वैसे ही बहुत तकलीफ थी। आखिर स्टूल पर बैठकर वे यह काम करने लगीं। धीरे-धीरे बाजार में आनंद वन की गायों के दूध का वर्चस्व कायम हो गया।

सन 1954 से आनंद वन हर तरह से फलने-फूलने लगा। तेल के कोल्हू, डेयरी तथा खेती शुरू हुई। कुष्ठ रोगियों ने अपने श्रम से आनंद वन में 35 कुएं खोदे। आनंद वन का कायाकल्प हो गया। हरे-भरे लहलहाते खेत, सब्जियों की घनी क्यारियां, फल-फूलों से लदे वृक्ष, कुष्ठ रोगियों के पुनर्वास के लिए मूलभूत सुविधाएं आनंद वन आश्रम में उपलब्ध हो गईं। आनंद वन ने कुष्ठ रोगियों को मेहनत करना सिखाकर उनके व्यक्तित्व को निखारा।

बाबा आमटे चंद्रपुर जिले के छोटे-छोटे गांवों में कुष्ठ रोगी तलाशते। उन्होंने ‘ट्रेस ऐंड ट्रीट’ पद्धति अपनाई। कुष्ठ रोगी को ढूंढ़-ढूंढ़कर उपचार करने की बाबा आमटे की पद्धति प्रभावी सिद्ध हुई। रोगियों को उनके घर पर ही बाबा आमटे इलाज के लिए प्रेरित करते। 1957 में आनंद वन के तीस मील के दायरे में बाबा आमटे ने कुष्ठरोगियों के 11 साप्ताहिक उपचार केंद्र स्थापित किए। बाबा हर रोज सुबह तीन बजे उठ जाते और चार बजे तैयार होकर टिफिन लेकर साइकिल से किसी एक केंद्र की ओर निकल जाते। केंद्र से लौटने पर बाबा आमटे आनंद वन में कुष्ठ रोगियों की ड्रेसिंग करते। आनंद वन में कुष्ठ ग्रस्त निरंतर आते, इलाज कराते और ठीक हो जाने पर विभिन्न कार्यों में जुट जाते। बाबा आमटे ने कुष्ठ मुक्त लोगों को ही कुष्ठ रोगियों की सेवा करना सिखाया। धीरे-धीरे पुराने रोगी ठीक होते जाते और नए रोगियों की सेवा में जुट जाते। कुष्ठ रोगी के रूप में दाखिल हुआ व्यक्ति दो-तीन वर्षों बाद परिचारक बन कर काम करने लगता।

असहाय सेवाः आनंद वन में चिकित्सालय, वृद्घाश्रम और दिव्यांगों की पाठशाला

असहाय सेवाः आनंद वन में दिव्यांगों की पाठशाला

आनंद वन में कुष्ठ रोगियों का इलाज उसके स्थापना काल से ही चल रहा है। 1971 में बाबा आमटे के दोनों पुत्र विकास और प्रकाश ने एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद आनंद वन के कुष्ठ रोगियों के लिए बने अस्पताल की व्यवस्था संभाली। महारोगी सेवा समिति के इस अस्पताल में बाह्य रोगी विभाग (ओपीडी) में रोज सैकड़ों मरीज आते हैं। जो गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं, उन्हें अस्पताल में भर्ती कर उनका इलाज किया जाता है। यहां पुरुष और स्त्री वार्ड अलग हैं। अस्पताल का नाम अब सीता रतन लेप्रेसी हॉस्पिटल है। आनंद वन में अब तक नौ लाख कुष्ठ रोगियों का मुफ्त इलाज हो चुका है।

1961 में आनंद वन में प्राथमिक विद्यालय की स्थापना हुई। उच्च प्राथमिक विद्यालय भी खुला। 1966 में बाबा आमटे ने दृष्टिहीन बच्चों के लिए आनंद अंध विद्यालय स्थापित किया। उसे वे ‘प्रकाश की शाला’ कहते थे। आसपास के देहात के छह से चौदह वर्ष के बच्चों के लिए ब्रेल पद्धति से वहां शिक्षा देने की जैसे ही घोषणा हुई, आनंद वन में भीड़ जमा हो गई। इस स्कूल में सूत-कताई, बुनाई, संगीत आदि भी सिखाया जाने लगा। मूक बधिर विद्यालय भी खुला। आनंद वन में बाबा आमटे ने नेत्रहीन, मूक-बधिर छात्रों के लिए छात्रावास, विकलांगों के रहने के लिए आवास बनाया।

आनंद वन में माध्यमिक विद्यालय स्थापित हुआ। वरोरा के ग्रामीण क्षेत्र में कोई कॉलेज नहीं था। आगे की पढ़ाई के लिए चंद्रपुर या नागपुर जाने के सिवा यहां के छात्रों के पास कोई उपाय नहीं था। बाबा आमटे ने कुष्ठ मुक्त हुए रोगियों के श्रम से कॉलेज का निर्माण कराया। 1964 के शिक्षा-सत्र के लिए आनंद निकेतन महाविद्यालय में कला, वाणिज्य एवं विज्ञान की पढ़ाई शुरू हुई। कॉलेज तो शुरू हो गया लेकिन अध्यापकों के रहने-खाने की कोई सुविधा नहीं थी। आनंद वन में साधना ताई ने सबका इंतजाम किया। एक महीने बाद रसोइया मिला। तब तक ताई को ही अन्नपूर्णा की भूमिका निभानी पड़ी। 1965 में आनंद वन में कृषि महाविद्यालय की स्थापना हुई। महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए बड़ा सा खेल का मैदान बना।

एक दिन आनंद वन में कोई दो दिन का अनाथ शिशु ले आया। बाबा आमटे तथा साधना ताई ने इस चुनौती को स्वीकार किया। ताई ने बच्ची का नाम धरती रखा। धरती से आनंद वन और भी खिल उठा। इस प्रकार आनंद वन में बच्चों का गोकुल बस गया। बेसहारा वृद्ध महारोगियों के रहने के लिए स्नेह छाया बना। स्नेह छाया में लगभग 200 लोग रहते हैं। 1979 में वयस्क रोगियों के लिए उत्तरायण की स्थापना हुई। अकेले रहने वाली महिलाओं, विधवाओं के लिए आपुलकी बना। अभी वहां 450 महिलाएं रहती हैं। साधना ताई ने कुष्ठ-मुक्तों की शादी की कल्पना की। 1968 में विवाहित रोगियों के लिए सुख सदन बना। तुकड़ोजी महाराज के हाथों 17 नवंबर 1962 को मुक्ति सदन का उद्घाटन हुआ। 1970 में दिव्यांगों के पुनर्वास के प्रशिक्षण के लिए संधि निकेतन बना। 1976 में मुक्तांगन का निर्माण हो गया, जहां आनंद वन वासियों के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। 1981 में विवाहित तथा अविवाहित रोगियों के लिए कृषि निकेतन बना।

आनंद वन आश्रम में अभी लगभग पांच हजार लोग रहते हैं। वे एक साथ भोजन करते हैं। रसोई की व्यवस्था महिलाएं संभालती हैं। बर्तन मांजने, धोने में सभी सहयोग करते हैं। अतिथियों के लिए भोजन की अलग व्यवस्था की जाती है। आनंद वन के संधि निकेतन में दृष्टिहीन, मूक-बधिर, विकलांग, मंदबुद्धि, दुर्घटनाग्रस्त, पोलियो पीड़ित सभी तरह के लोग मिलजुल कर काम करते हैं। आनंद वन में जाति, धर्म की दीवार ढह जाती है। सभी परिवार की तरह रहते हैं।

आनंद वन में स्वावलंबन का सिद्धांत व्यवहार में बरता जाता है। आनंद वन 450 एकड़ में फैला हुआ है। यहां कई योजनाएं चल रही हैं। कुष्ठ मुक्त हुए रोगी और विकलांग श्रम के बदले हजारों रुपयों की कमाई करते हैं। खेती-बाड़ी, कपड़ों की बुनाई, शुभकामना कार्ड तैयार करना, विविध कलात्मक वस्तुएं उनकी कमाई का जरिया है। गो-पालन, कृषि विकास महत्वपूर्ण आधार है। बिना गोबर खाद के भूमि की उर्वरता बनाए रखना असंभव है। इसलिए डेयरी का विकास किया गया है। इस डेयरी के कारण ही सैकड़ों लोगों के भोजन बनाने के लिए आवश्यक बायोगैस प्लांट बनाना संभव हो पाया है। आनंद वन गो रक्षा के संबंध में भी आगे है। आनंद वन में जिस प्रकार कुष्ठ रोगी, विकलांग, दृष्टिहीनों को प्रेम से स्वीकार किया जाता है, उतने ही प्रेम से दान की बूढ़ी, विकलांग गायों को भी स्वीकार किया जाता है।

बाबा आमटे की महारोगी सेवा समिति ने आनंद वन से बाहर भी केंद्र खोलने शुरू किए हैं। 1957 में बाबा आमटे ने कुष्ठ रोगियों के पुनर्वास के लिए नागपुर के पास 70 एकड़ क्षेत्र में अशोक वन की स्थापना की। अशोक वन 102 एकड़ क्षेत्र में फैला है, जहां खेती, डेयरी की व्यवस्था में कुष्ठ रोगी सहयोग करते हैं। बाबा आमटे ने 1967 में 1325 एकड़ क्षेत्र में श्रमदान का महत्व सिखाने के लिए चंद्रपुर जिले के तडोबा जंगल में सोमनाथ आश्रम की स्थापना की। यहां कुष्ठ मुक्त हो चुके लोग खेती आदि में श्रमदान कर गरिमापूर्ण जीवन जी रहे हैं। 1973 में गढ़चिरौली जिले के हेमलकसा में लोक बिरादरी प्रकल्प शुरू हुआ, जहां बाबा आमटे के छोटे पुत्र प्रकाश और उनकी पत्नी मंदा ने कुष्ठ रोगियों, गरीब आदिवासियों के अलावा अस्वस्थ जंगली जानवरों की चिकित्सा शुरू की। 1976 में वहां आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए लोक बिरादरी प्रकल्प ने स्कूल की स्थापना की। मानसून में बाढ़ के कारण हेमलकसा आना कठिन हो जाता था, इसलिए नागेपल्ली गांव से तीन किलोमीटर दूर 20 एकड़ जमीन लेकर वहां खेती और पशु पालन शुरू किया गया। नागेपल्ली आश्रम पूरी तरह आत्मनिर्भर है, जो हेमलकसा आश्रम के सहयोगी की भूमिका निभाता है। आनंद वन आश्रम के 28 उप केंद्र हैं।

आज भी आनंद वन में विकास आमटे वहीं रहकर चौबीस घंटे काम करते हैं। रोगी इलाज के लिए टालमटोल करते हैं, उनका उत्साह बनाए रखने और रोगमुक्त होने के बाद दूसरे काम में शामिल करने के उपाय किए जाते हैं। सेवा के साथ ही वहां की सांस्कृतिक चेतना पर भी ध्यान दिया जाता है। विकास आमटे ने आनंद वन आश्रम में रहने वाले लोगों के भीतर छिपी संगीत प्रतिभा निखारने के लिए 2002 में स्वरानंद वन नाम से ऑर्केस्ट्रा की स्थापना की। इस ऑर्केस्ट्रा में आश्रम के कलाकार अपनी संगीत प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं।  2009 में आनंद वन में संगीत विद्यालय की स्थापना हुई।

आनंद वन बहिष्कृत लोगों का आसरा भर नहीं है, बल्कि यह कुष्ठ रोगियों, विकलांगों, मंदबुद्धि लोगों, बूढ़ों और बेसहारा बच्चों के लिए घर है। आनंद वन बताता है कि वंचितों के लिए काम कैसे होना चाहिए। और पीड़ितों को मनुष्य समझा जाना चाहिए। बाबा आमटे की उपलब्धि सिर्फ कुष्ठ रोगियों की सेवा नहीं है, बल्कि समाज से तिरस्कृत लोगों को श्रमदान सिखाना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है।

यहां रहने वाले हजारों लोग अपनी जरूरतों के लिए बाहरी दुनिया पर आश्रित नहीं हैं। ये लोग अपने श्रम से बाहर की दुनिया की जरूरतों की पूर्ति करते हैं। जिन्हें देखकर सभ्य समाज बिदकता है, उन कुष्ठ रोगियों ने खेती, राजगीरी, कताई-बुनाई समेत कई काम में योगदान देकर पथरीले जंगल को खूबसूरत जगह में बदल दिया है। यहां पर बाबा आमटे, साधना ताई और शीतल की समाधि है, जिसे श्रद्ध वन कहा जाता है। साथ ही उन लोगों के भी स्मारक हैं, जिनसे बाबा आमटे प्रभावित रहे। इनमें ईसा मसीह, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, भगत सिंह, राजगुरु और विनोबा भावे हैं।

गांधीजी ने गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का जो सपना देखा था, उसे चन्द्रपुर में बाबा आमटे ने साकार कर दिखाया। बाबा आमटे के काम से गरीबों-असहायों के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदला है। इस तरह के समाज की रचना के लिए साधना करनी पड़ती है। अंग्रेज सिपाहियों से एक भारतीय लड़की की रक्षा करने पर महात्मा गांधी ने उन्हें निर्भय साधक की संज्ञा दी थी।

बाबा को रीढ़ की हड्डी की पुरानी बीमारी थी। वे बैठ नहीं सकते थे। या तो लेटे रह सकते थे या खड़े। यह शारीरिक व्याधि कभी उनकी देश के नवनिर्माण की सक्रियता को क्षीण नहीं कर पाई। उसी अवस्था में उन्होंने दो बार युवा शक्ति को रचनात्मक मोड़ देने के उद्देश्य से ‘भारत जोड़ो’ यात्रा की थी। 1981-82 में यह यात्रा कन्याकुमारी से कश्मीर और 1988-89 में इटानगर से ओखा तक हुई थी। बाबा आमटे और साधना ताई के सेवा कार्यों को उनके पुत्रों विकास और प्रकाश आमटे ने विस्तार दिया और विनोबा भावे के उस कथन को सच साबित किया है कि यहां सेवा और श्रम की रामायण लिखी जा रही है।

कृपाशंकर चौबे

(महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर)

 

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