इस जुलाई में नसीरुद्दीन शाह और गौतम घोष, दोनों 75 साल के हो गए। नसीरुद्दीन शाह ने 20 जुलाई को अपना जन्मदिन मनाया, तो पार (1984) के निर्देशक गौतम घोष ने चार दिन बाद 24 जुलाई को 75 साल पूरे कर लिए। घोष बताते हैं कि उनके साथ काम कर चुके शाह, शबाना आजमी, ओम पुरी, स्मिता पाटिल और यहां तक कि उनके निर्देशक दोस्त केतन मेहता भी लगभग हमउम्र हैं, कोई एक साल ज्यादा तो कोई एक साल कम। वे ठहाका लगाते हुए कहते हैं, ‘‘हम साथ-साथ बड़े हुए हैं, रचनात्मक विधा में कुछ सार्थक रचने के जज्बे के साथ। नसीर, बेशक, सबसे करीबी हैं। वे बड़े हैं, चार दिन बड़े भाई।’’
पार फिल्म समरेश बसु की बंगाली कहानी पारी (1963) पर आधारित थी। इस फिल्म को तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले थे। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नसीरुद्दीन शाह, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री शबाना आजमी और सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म के लिए निर्देशक घोष तथा निर्माता स्वपन सरकार। इस फिल्म को वेनिस अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन लायन के सर्वोच्च पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था। घोष को प्रतिष्ठित यूनेस्को पुरस्कार और शाह को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए वोल्पी कप मिला था।
फिल्म दलित दंपती की कहानी है, जिन्हें बिहार के अपने गांव से गरीब और निचली जाति का होने के कारण शोषण से परेशान होकर भागने पर मजबूर होना पड़ता है। नौरंगिया (शाह) भूमिहीन मजदूर है। वह शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले एक उदारमना स्कूल मास्टर की मौत का बदला लेने के लिए जमींदार के भाई की हत्या कर देता है। भगोड़ा दंपती आखिरकार भूख से मजबूर होकर घर लौटने और जमींदार के क्रोध का सामना करने का फैसला करते हैं। सफर का किराया कमाने के लिए दोनों सूअरों के एक झुंड को उफनती नदी के पार ले जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। तमाम मुश्किलों के बावजूद दोनों नदी पार कर लेते हैं, जहां ऐसा भविष्य उनका इंतजार कर रहा है, जो उतना ही खतरनाक है। दोनों किसी तरह डूबने से बच पाते हैं। लेकिन सुअरों को पार कराने की जद्दोजहद में नौरंगिया की गर्भवती पत्नी रमा (आजमी) को लगता है कि उसका बच्चा पेट में ही मर गया है। फिल्म का अंत बहुत मार्मिक है। बहुत उम्मीद के साथ नौरंगिया अपनी पत्नी के बढ़े हुए पेट पर कान लगाए अपने अजन्मे बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश कर रहा है।
पार फिल्म के दृश्य में नसीर और शबाना
पार घोष की तीसरी फिल्म थी। इससे पहले वे 1980 में तेलुगु में अपनी पहली फिल्म मां भूमि, 1981 में बांग्ला फिल्म दखल का निर्देशन कर चुके थे। घोष याद करते हैं, ‘‘नसीर प्रतिभावान और अनुशासित अभिनेता हैं, जो किसी भी किरदार में ढल जाते हैं। नौरंगिया का किरदार निभाना आसान नहीं था। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ अपना वजन कम किया बल्कि मेरठ में अपने बचपन को याद कर गांव में जातिगत ऊंच-नीच से जुड़े संघर्षों को समझने की कोशिश भी की। शबाना और वे दोनों इतना प्रभावी अभिनय इसलिए कर पाए क्योंकि उनकी तैयारी बहुत अच्छी थी।’’
यह फिल्म 41 साल बाद आज भी उतनी ही ताजा, प्रासंगिक और समकालीन लगती है। घोष मुस्कुराते हुए कहते हैं, ‘‘जब आप संघर्ष समझते हैं और उसे भावों के साथ व्यक्त करते हैं, तो वह कालातीत हो जाता है।’’ इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि उन्होंने जुलाई के महीने में भरी बरसात में उफनती हुगली नदी में पार की शूटिंग कैसे की। न सिर्फ एक्टर, बल्कि निर्देशक सहित पूरी टीम का नदी की तेज धारा में बह जाने का खतरा था। उनके साथ एक छोटी नाव चलती थी, जिसमें कुछ बचावकर्मी रहते थे, जो किसी के भी डूबने की स्थिति में मदद के लिए तैयार रहते थे। घोष कहते हैं, ‘‘हमने पहले क्लाइमेक्स शूट किया। निर्माता के साथ करार में साफ था कि हम फिल्म तभी आगे बढ़ाएंगे जब नदी पार करने के कठिन दृश्य कैमरे में कैद करने में सफल होंगे। यह साहसिक प्रस्ताव था, जिसके रद्द होने पर बहुत सारा पैसा गंवाने का जोखिम था, लेकिन स्वपन सरकार ने अपनी सहमति दे दी। उनके दृढ़ विश्वास के सहारे ही हम आगे बढ़े।’’
घोष बताते हैं कि आज भी कोई नसीरुद्दीन शाह की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की बात करता है, तो उसे पार जरूर याद आती है। वे कहते हैं, ‘‘वह दौर जज्बे वाला था। मेरे सभी कलाकार, नसीर और शबाना से लेकर जमींदार के किरदार में उत्पल दत्त तथा उसके भाई की भूमिका में मोहन अगाशे और स्कूल मास्टर अनिल चटर्जी और उनकी पत्नी की भूमिका में रूमा गुहा ठाकुरता, यहां तक कि ग्राम प्रधान की छोटी-सी भूमिका में ओम पुरी रचनात्मक ऊर्जा और जुनून से भरे हुए थे और यही बात पार को ऐसी फिल्म बनाती है जो आज तक याद रखी जाती है।’’
घोष याद करते हैं, ‘‘जब मैं पार की डबिंग के लिए मुंबई आया था, तो मेरे साथ मेरी पत्नी, जो हमेशा मेरी टीम का हिस्सा रही हैं, और मेरी डेढ़ साल की बेटी आई थी। तब मेरा बेटा पैदा नहीं हुआ था। जब नसीर को पता चला कि हम एक होटल में ठहरे हैं, तो उन्होंने जिद की कि हमें छोटे बच्चे के साथ होटल में मुश्किल होगी इसलिए हम उनके घर आ जाएं। शाह ने तभी नया-नया अपना थिएटर ग्रुप मोटली शुरू किया था और वे एक छोटे-से स्टूडियो अपार्टमेंट में रह रहे थे। वहां हर शाम रिहर्सल होती थी।’’ घोष मुस्कुराते हुए याद करते हैं, ‘‘तब हमने बहुत अच्छा समय बिताया।’’ शाह हाल ही में घोष की दो नई फिल्मों को देखने पहुंचे थे। वे कोलकाता में फ्रांसीसी दूतावास में हिंदी फिल्म राहगीर (2019) की विशेष स्क्रीनिंग में पहुंचे थे। यह फिल्म तीन अजनबियों की कहानी है, जो एक संकट के दौरान साथ आते हैं और नि:स्वार्थ भाव से अपनी जान जोखिम में डालकर एक बुजुर्ग दंपती को मूसलाधार बारिश में अस्पताल पहुंचाते हैं और उनकी जान बचाते हैं। उसके बाद फिल्म निर्माता सुधीर मिश्रा ने मुंबई में भारतीय-इतालवी सह-निर्माण में बनी फिल्म परिक्रमा (2025) का एक विशेष शो का आयोजित किया था। फिल्म नर्मदा बचाओ आंदोलन के संदर्भ में विस्थापन, पर्यावरण विनाश और सांस्कृतिक संबंधों की पड़ताल करती है।
इस लंबे चले रिश्ते के साथ घोष की एक बार फिर इच्छा है कि वे शाह के साथ काम करें। घोष बताते हैं कि एक परियोजना अभी प्रारंभिक अवस्था में है। वे कहते हैं, “मैंने अभी तक नसीर से इसके बारे में बात नहीं की है। मैं चाहता हूं कि यह जल्द से जल्द हो। बतौर इंसान वे मेरी आत्मा के बहुत करीब हैं और मैं उस दौर में लौटना चाहता हूं, जब सिनेमा ऑर्केस्ट्रा की तरह था, जो एक वायलिन के गड़बड़ाने पर गड़बड़ हो जाता था। ट्यूनिंग महत्वपूर्ण है। सब कुछ सही है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस टेक्नीक या उपकरण का उपयोग करते हैं, आप कल, आज या कल की एक महान सिम्फनी बना सकते हैं।’’