Advertisement

क्या लालू फैक्टर के दिन लदे?

मोदी-नीतीश के विकास के ‘डबल इंजन’ के सामने कारगर नहीं रहा राजद के महागठबंधन का जातिगत और समुदाय का गणित
जीत का स्वादः मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी नतीजों के बाद

पिछले तीस वर्षों से बिहार की राजनीति लालू प्रसाद यादव के इर्द-गिर्द घूमती रही है लेकिन अब उनके सितारे वाकई गर्दिश में दिख रहे हैं। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यह पहला मौका है जब लोकसभा में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होगा। आम चुनाव में लालू का राष्ट्रीय जनता दल अपना खाता तक नहीं खोल पाया जबकि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 40 सीटों में से 39 पर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। चुनाव परिणाम यकीनन चौंकाने वाले थे, क्योंकि किसी राजनैतिक विश्लेषक ने ऐसा अनुमान शायद ही किया था। एक एक्जिट पोल ने अवश्य एनडीए के पक्ष में 38 से 40 लोकसभा क्षेत्रों में जीत का अनुमान किया था, लेकिन उसे राज्य के भीतर और बाहर गंभीरता से नहीं लिया गया। इसका मुख्य कारण यह था कि लालू की पार्टी राज्य में 2005 से सत्ता से बाहर होने पर भी जाति समीकरण के आधार पर हर चुनाव में तकरीबन 20 प्रतिशत वोट पाकर कम से कम चार सीटें जीतती रही। ऐसा किसी ने सोचा न था कि राजद इस बार शून्य पर आउट हो जाएगी और वह भी तब जब उसने एनडीए के ख़िलाफ चुनाव पूर्व मजबूत महागठबंधन बनाने में सफलता प्राप्त की थी।

पिछले आम चुनाव में एनडीए ने 31 सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन उस समय बिहार में लड़ाई त्रिकोणीय थी। नीतीश कुमार की जद-यू उस समय एनडीए के साथ नहीं थी। अतः 2014 में विपक्ष के मतों का विभाजन भाजपा और उसके घटक दलों की विजय का मुख्य कारण समझा गया था। इस बार एनडीए का अब सीधा मुकाबला राजद के नेतृत्व में एकजुट विपक्ष से था। कांग्रेस के अलावा इसके घटक दलों में उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा), जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा-सेक्युलर (हम-एस) और ‘सन ऑफ मल्लाह’ के नाम से मशहूर मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) शामिल थीं, जो जाति समीकरण के बल पर उसे मजबूत बनाती थी। कांग्रेस के कारण महागठबंधन को अगड़ी जातियों के कुछ मत मिलने की उम्मीद थी। इन सबके के ऊपर राजद स्वयं महागठबंधन का नेतृत्व कर रही थी जिसे राज्य के मुस्लिम और यादव (एमवाइ) समुदायों के वोट मिलने की उम्मीद थी। मुस्लिम और यादव समुदाय के 30 फीसदी वोट हैं।

लेकिन ये सभी जाति समीकरण इस चुनाव में रेत की महल की तरह ध्वस्त हो गए। इस गठबंधन से मात्र कांग्रेस एक सीट किशनगंज की जीत पाई। बाकी सभी उम्मीदवारों को मुंह की खानी पड़ी, जिसमें लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती भी शामिल हैं। शत्रुघ्न सिन्हा, मीरा कुमार, तारिक अनवर, अब्दुल बारी सिद्दीकी सहित कुशवाहा, मांझी और सहनी जैसे दिग्गजों को भी पराजय का स्वाद चखना पड़ा। दूसरी ओर, एनडीए में जद-यू के किशनगंज के प्रत्याशी महमूद अशरफ को छोड़कर सभी उम्मीदवार विजयी हुए, जिनमें रविशंकर प्रसाद, राधामोहन सिंह, राम कृपाल यादव, अश्विनी कुमार चौबे, राज कुमार सिंह और गिरिराज सिंह सरीखे केंद्रीय मंत्री भी शामिल थे। बेगूसराय में गिरिराज की भाकपा के युवा नेता कन्हैया कुमार के साथ कांटे की टक्कर मानी जा रही थी लेकिन भाजपा नेता को लगभग सवा चार लाख मतों से मिली जीत ने इसे भी एकपक्षीय बना डाला। स्पष्ट था कि बाकी राज्यों की तरह बिहार में भी जबरदस्त मोदी लहर थी, जिसने विपक्ष के पूरे कुनबे को मटियामेट कर डाला। विपक्ष को ऐसी किसी लहर का कतई आभास नहीं था। पिछले आम चुनाव के दौरान मोदी लहर में भी राजद-कांग्रेस-राकांपा को बिहार में सात सीटों पर विजय मिली थी। इसके अलावा जद-यू को भी दो सीटों पर जीत मिली थी। 

राजद खासकर लालू के लिए यह परिणाम सकते में डालने वाला है। यह पार्टी के भविष्य पर भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। सुप्रीम कोर्ट से अपनी जमानत अर्जी खारिज होने के कारण चारा घोटाले में सजायाफ्ता राजद अध्यक्ष पूरे चुनाव के दौरान रांची के अस्पताल में ही रहे। उनकी गैर-मौजूदगी में उनके कनिष्ठ पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव ने चुनाव की बागडोर संभाली थी। इस गठबंधन को मूर्त रूप देने के लिए राजद ने सीटों के बंटवारे में घटक दलों की जायज-नाजायज मांगों को स्वीकार किया ताकि वोटों का बिखराव रोका जा सके।

दरअसल, 2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार और लालू के साथ कांग्रेस के गठबंधन ने एनडीए के खिलाफ दो-तिहाई बहुमत से जीत अर्जित की थी और लालू को लगता था कि भाजपा और एनडीए को बिहार में आसानी से परास्त किया जा सकता है, अगर उसके खिलाफ विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़े। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इसका सबसे बड़ा कारण नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार का ‘अजेय’ गठबंधन था। 2005 में राजद को सत्ताच्युत करने के बाद भाजपा और जद-यू गठजोड़ साथ लड़ते हुए कोई भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव नहीं हारा। इस गठबंधन में इस बार उनके अलावा रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी शामिल थी। लोगों में केंद्र में नरेंद्र मोदी और राज्य में नीतीश कुमार की ‘डबल इंजन’ की सरकार के विकास कार्यों के प्रति सराहना का भाव भी था। रही सही कसर पुलवामा में आतंकी हमले के बाद बालाकोट में एयर स्ट्राइक ने पूरी कर दी। इसके पश्चात जनता में उभरी राष्ट्रवाद की भावना ने जातिवादी राजनीति की कमर तोड़ कर रख दी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और तेजस्वी यादव द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राफेल सौदों में ‘चौकीदार चोर है’ जैसे नारों के साथ लगाए भ्रष्टाचार के आरोपों को जनता ने सिरे से नकार दिया। इसके अतिरिक्त महागठबंधन के घटक दलों के बीच समन्वय का भी नितांत अभाव रहा।

बिहार ही नहीं, महागठबंधन की कवायद झारखंड में भी बुरी तरह मात खा गई। मोटे तौर पर वहां भी जाति और समुदाय के गणित को अजेय मानकर राजद, झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस ने गठबंधन कायम करके एनडीए को चुनौती देने का मंसूबा पाल रखा था लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर चले गतिरोध से माहौल बिगड़ता गया और अंत में राजद ने एक के बदले तीन सीटों पर उम्‍मीदवार खड़े कर दिए। नतीजा यह रहा कि कुल 14 सीटों में से एनडीए को 12 सीटें मिल गईं (भाजपा को 11 और आजसू को 1)। झामुमो को दो सीटें तो मिलीं मगर उसके दिग्गज शिबू सोरेन भी हार गए। यह नतीजा भी राजद और लालू के लिए दुर्योग ही लेकर आया।

तो, क्या लालू की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिलने से उसका भविष्य खतरे में है? राजनीति में कोई फुल स्टॉप नहीं होता है। 1977 में इंदिरा गांधी, 1984 में भाजपा, 2009 में पासवान और 2014 में नीतीश का चुनावी हश्र देखने के बाद उनके राजनैतिक भविष्य पर भी कई सवाल उठे थे, लेकिन बाद के वर्षों में उन्होंने शानदार वापसी की। ताजा परिणामों के बावजूद लालू और तेजस्वी भी यह उम्मीद रख सकते हैं कि उनके अच्छे दिन फिर आएंगे, लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि जनता जात-पांत की चुनावी बेड़ियां तोड़ चुकी है। मोदी और नीतीश की विकासोन्मुखी जोड़ी को घिसे-पिटे फॉर्मूले के सहारे हराना मुमकिन नहीं होगा। बिहार अब बदल गया है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement