Advertisement

कश्मीर और लोकतंत्र पर हमला

मौजूदा हालात में भय और अनिश्चितता मिलकर आतंकवाद के लिए उपजाऊ जमीन मुहैया कराएंगे
2011 में वार्ताकारों की टीम कश्मीर गई थी

जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने का सरकार का हालिया कदम समाधान मुहैया कराने की जगह राज्य और देश दोनों के लिए प्रतिकूल हो सकता है। जिस तरह यह चुपके से और आदेश जारी कर, सुरक्षा घेरे में, संसदीय लोकतंत्र के हमारे मानदंडों का उल्लंघन करते हुए किया गया, उसकी पहले ही व्यापक रूप से आलोचना की जा चुकी है। मैं उन दलीलों को दोहराऊंगी नहीं, सिवाय इसके कि मुझे उम्मीद है कि ये बातें सुप्रीम कोर्ट सहित मंचों पर उठाई जाएंगी। 

यह पहली बार है, जब मैंने किसी राज्य को केंद्रशासित प्रदेश के तौर पर डिमोट किए जाने के बारे में सुना है और वह भी बिना किसी ठोस तार्किक आधार के। हमें बताया गया कि पाकिस्तान हमले की बड़ी साजिश रच रहा है, जिससे सुरक्षा-व्यवस्था को खतरा है। मध्यस्थता और बीच-बचाव को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मूर्खतापूर्ण टिप्पणी की आड़ में, अफगानिस्तान पर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच तालमेल के कारण पाकिस्तानी सैन्य और आतंकवादी समूहों को फिर से बढ़ावा दिया जा सकता है।

यदि अफगानिस्तान में पाकिस्तानी समर्थन से तालिबान सत्ता में आता है, तो हमें निश्चित रूप से 1990 के दशक की सशस्‍त्र विद्रोह की कोशिश देखने को मिल सकती है, अपनी सुरक्षा को मजबूत करने के लिए हमें एहतियातन कदम उठाने चाहिए। लेकिन अनुच्छेद 370 के तहत भी सुरक्षा का मसला केंद्र सरकार के पास ही था, तो ऐसे में जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने से कैसे मदद मिलेगी? यह वहां के राजनैतिक नेतृत्व पर अंकुश लगाएगा, जिस पर सरकार पहले से ही भरोसा नहीं करती और यह नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी नेताओं उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को नजरबंद करने से भी पता चलता है। भाजपा नेता लगातार कश्मीरी नेताओं पर अलगाववादी भावनाओं को पनाह देने का आरोप लगाते रहे हैं। यह देखते हुए कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों द्वारा बड़ी संख्या में राजनैतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या की गई है, तो ऐसे में आरोप बेतुका है।

कहने का मतलब यह नहीं है कि कश्मीर में फिरकापरस्त और अवसरवादी नेता नहीं हैं, जो कानून की धज्जियां उड़ाते हैं, सभी तरफ से खेल खेलते हैं और वास्तव में लोगों के बीच अलोकप्रिय हैं। लेकिन यह देश भर में एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है और यह कोई भी नहीं कह रहा है कि ऐसे में हमारे सभी राज्यों को केंद्रशासित प्रदेशों में बदल दिया जाना चाहिए। असल में, यह मुख्यधारा और अलगाववादी नेता तथा कश्मीर में उनके आलोचकों को एकजुट करने वाला कदम है और ये सभी भारत सरकार के खिलाफ हो जाएंगे। क्या अब कोई भी केंद्र सरकार और घाटी के बीच सेतु का काम करने के लिए आगे आएगा?

फिलहाल, जमीन पर हम जो कुछ भी देख रहे हैं, वह अनिश्चितता का भय है। यह भय न केवल घाटी में, बल्कि जम्मू के मुस्लिम बहुल जिलों और लद्दाख के करगिल में भी है। सरकार का कुछ चुनिंदा बिंदुओं पर जोर है। जैसे कि राज्य के गैर-निवासी भी जमीन खरीद सकते हैं और यहां बस सकते हैं। इससे कई लोगों को आश्चर्य होता है कि क्या उनके सबसे बुरे डर का एहसास किसी को होगा, जिसके तहत राज्य की आबादी के अनुपात में बदलाव और पहचान को नष्ट किया जाएगा।

भय और अनिश्चितता साथ मिलकर आतंक के लिए एक उपजाऊ जमीन मुहैया कराएंगे, जिसका पाकिस्तान निश्चित रूप से लाभ उठाएगा। हमारे सुरक्षा बल वही करेंगे जो वे कर सकते हैं, लेकिन इसमें जनता की नाराजगी की वजह से बाधा पहुंचेगी। इसकी वजह हमारी सरकार की ओर से राज्य की प्रशासनिक और संवैधानिक बदलावों के लिए कठोर कानूनों को थोपना है। यदि हम इस स्थिति से निकलना चाहते हैं, तो बस एक ही उपाय है। जम्मू-कश्मीर में चुनाव होने तक राज्य पुनर्गठन कानून पर रोक लगा देना चाहिए और विधानसभा तथा राज्य के उच्च सदन में इस पर विस्तार से चर्चा हो। इसके बाद इसे खारिज कर दिया जाता है, तो बिल को जरूर खत्म कर देना चाहिए।

इसका मतलब यह नहीं है कि विशेष दर्जा और राज्य में बदलाव के मुद्दों को भूल जाना चाहिए। अनुच्छेद 370 वास्तव में एक अस्थायी और क्षणिक प्रावधान है। इसे दशकों पहले ही रद्द, संशोधित या स्थायी कर देना चाहिए था। लेकिन ऐसा करने का एकमात्र तरीका सलाह-मशविरा, बहस और संयुक्त निर्णय लेने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही है। यही बात क्षेत्रीय बदलाव पर भी लागू होती है। हमें एक-दूसरे को मनाने की जरूरत है न कि एक-दूसरे पर हमला करने की।

हमने 2011 के वार्ताकारों की अपनी रिपोर्ट में इन मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की और समाधान तक पहुंचने के लिए कुछ संभावित उपायों के बारे में सलाह दी। इनमें कश्मीरी पंडितों की वापसी और उनके लिए मुआवजे, पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों और अन्य पिछड़े समुदायों, घाटी में गैर-चिह्नित कब्रों और लापता मामलों के साथ-साथ मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में सुझाव दिया। हमने हर मामले में पाया कि लोकतांत्रिक संवाद और प्रोत्साहन के जरिए स्थानीय राजनीतिक और सार्वजनिक इच्छाशक्ति से हल निकाला जा सकता है। हमारी सरकार ने ठीक इसके विपरीत किया है।

(पैराडाइज ऐट वॉरः ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर (2018) लेखिका की चर्चित कृति है)

Advertisement
Advertisement
Advertisement