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मैं निराश हूं!

त्वरित वैश्विक संचार के इस युग में हर जगह हर चुनाव वैश्विक रुझानों का प्रतिबिंब है
अमिताभ घोष

मुझे ये चुनाव शुरू होने से पहले ही निराश कर रहे थे। मैं यहां चुनाव के दौरान खर्च हुई अकूत धनराशि या चुनाव आयोग के संदिग्ध फैसलों का जिक्र नहीं कर रहा हूं। मैं इन तथ्यों के बजाय यह कह रहा हूं कि देश के गंभीर पर्यावरण और जलवायु खतरे- जो सूखे के संकट को गहरा कर रहे हैं; भयावह वायु प्रदूषण; महासागरों में ‘मृत क्षेत्र’; जल संकट से जूझ रहे शहरों और कृषि संकट, जिसने हजारों किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर किया, उनका जिक्र कर रहा हूं। ये सभी मुद्दे चुनाव लड़ने वाले किसी भी दल के लिए कभी भी प्रमुख चुनावी मुद्दे नहीं बने।

अलग नतीजे आते तो शायद बहुसंख्यकवाद और तेज होती दमनकारी भविष्य की रफ्तार को धीमा कर सकते थे। लेकिन क्या इस तरह के नतीजों से देश को अपनी मौजूदा पर्यावरण संबंधी और जलवायु चुनौतियों से निपटने की तैयारी के मामले में बहुत फर्क पड़ा है? शायद नहीं, क्योंकि इन नतीजों से राजनैतिक प्रक्रिया के कॉरपोरेटीकरण का पता चलता है, जो एक ऐसी परिघटना है कि चाहे जो भी पार्टी सत्ता में हो इसे मजबूती ही मिलती है। अफसोस की बात है कि यह राष्ट्रीय नहीं, बल्कि वैश्विक परिघटना है।

त्वरित वैश्विक संचार के इस युग में हर जगह हर चुनाव वैश्विक रुझानों का प्रतिबिंब है। ऐसा लगता है कि धरती की लगातार बढ़ती दुर्दशा की वजह से डांवाडोल भविष्य की कड़वी हकीकत से लोगों ने मुंह मोड़ लिया है। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि जो कुछ अभी भी बचा हुआ है, उसे सहेजने के लिए नेताओं की नई पीढ़ी समय पर इस चक्र को बदलने के लिए आगे आएगी।

(घोष की नई किताब गन आईलैंड जल्द ही आने वाली है)

 

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