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कन्ट्रोवर्सी मार्केटिंग स्ट्रेटजी है

कंटेंट तो अहम है, उसी से दिलचस्पी पैदा होती है, जरूरी यह भी है कि किताबें ज्यादा लोगों तक पहुंचे
शिव-त्रयी के लेखक अमीश त्रिपाठी

ईमानदारी से कहूं तो मैंने बहुत सोच-विचार कर नहीं लिखा। कभी यह नहीं सोचा कि अगर मैं भगवान शिव पर लिखूं तो लोगों को पसंद आएगा कि नहीं, किताब प्रकाशित होगी कि नहीं, बिकेगी कि नहीं। यूं समझ लीजिए, शायद मैं अपने लिए या अपने परिवार के लिए लिख रहा था। मेरी आत्मा में यह कहानी बस गई थी, मेरे अंदर यह फलसफा बस गया था। मैं इसे बस लिखना चाहता था। यही वजह थी कि मैंने बिना ज्यादा सोच-विचार के इसे लिखना शुरू कर दिया। मेरे मन में कहीं न कहीं गीता का उपदेश चल रहा था। प्रभु श्रीकृष्ण ने हमें जो उपदेश दिया है, कर्मण्ये वा धिकारस्ते..., मैं उसी राह पर निकल पड़ा था। इस कहानी को लिखने का मेरे अंदर इतना जबर्दस्त प्रवाह था कि मैं यह सोचने में वक्त लगाना ही नहीं चाहता था कि लिखने के बाद क्या होगा।

शिव पर लिखने की वजह यही रही कि मुझे खुद उनके बारे में जानने की बहुत उत्कंठा थी। हमारे यहां सिर्फ शिव पुराण ही नहीं, कई महापुराण हैं, जिनमें शिव के बारे में लिखा गया है। शिव पुराण को शैव उपासना से जोड़ा जाता है। लेकिन स्कंद पुराण, लिंग पुराण और भी कई हैं जिन्हें शैव पुराण कहा जाता है। इन सबमें जो कहानियां हैं वो बचपन में मैंने कई बार सुनी थीं, कुछ मन में ज्यों की त्यों बसी हुई थीं। मेरे बाबाजी, यानी दादा काशी में पंडित थे। मां-पिताजी भी काफी धार्मिक हैं। परिवार में शुरू से धार्मिक माहौल था, बचपन से ही धर्मग्रंथों के बारे में सुना था, उन्हें पढ़ा था। मैं मानता हूं कि कहानी लिखने की जो पहली इच्छा है, वह परिवार से ही मिली। मेरी पैदाइश ऐसे परिवार में हुई, यह मेरी खुशकिस्मती है। मुझ पर शिवजी का ही आशीर्वाद है जो मैं ये कहानियां लिख पाया। या यह कहूं कि उन्होंने मुझसे लिखवा लिया। उनका आशीर्वाद है तो मेरे लिए लिखना कठिन नहीं रहा।

कुछ लोग कहते हैं कि मैंने देवी-देवताओं की कहानी लिखने की नई परंपरा शुरू की है। ऐसा नहीं है, देवी-देवताओं की कहानियां नए रूपों में कहना पुरानी भारतीय परंपरा रही है। हमेशा से हमारे यहां नए रूप में ऐसी कहानियां कही जाती रही हैं। रामचरितमानस को ही लीजिए। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मूल वाल्मीकि रामायण में बहुत तब्दीली की है। कोई भी संस्कृत नाटक देख लीजिए। इसमें आपको तब्दीली मिलेगी। कालिदास खुद कहते थे कि उनकी राय में भास उनसे बेहतर लेखक थे। भास ने तो अपने नाटक पंचरात्र में महाभारत की पूरी कहानी बदल डाली थी। ऐसे कई उदाहरण हैं। भारत के लोग अपने देवी-देवताओं की कहानियां सुनने में न कभी थकते हैं, न ऊबते हैं। हम हर कहानी को बार-बार सुन सकते हैं, अलग-अलग पहलू से सुन सकते हैं। इसलिए इस तरह के चरित्रों या पात्रों पर बहुत किताबें आ रही हैं। यह अच्छा है कि और लेखक यह सब लिख रहे हैं और बड़ी बात है कि हिंदी में लिख रहे हैं। इससे हमारी परंपरा और हमारी संस्कृति को और शक्ति मिलती है। यह सही है कि हमारे यहां हिंदी किताबों की बिक्री उतनी नहीं होती, क्योंकि इनकी मार्केटिंग ठीक से नहीं होती। लेकिन यह दिक्कत सिर्फ हिंदी की नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं में है। हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं की पुस्तकों की मार्केटिंग होती ही नहीं है, जबकि अंग्रेजी में किताबों की मार्केटिंग बड़े जोर-शोर से होती है। शायद यही वजह है कि इनकी बिक्री ज्यादा हो जाती है। मेरा मानना है कि हिंदी प्रकाशकों को भी अपनी मार्केटिंग सुधारना चाहिए और दायरा विस्तृत करना चाहिए, क्योंकि आज की तारीख में अच्छी किताब लिख देने भर से किताब नहीं बिकती। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कंटेंट अच्छा न हो। कंटेंट तो अच्छा होना ही चाहिए लेकिन किताबों की पहुंच ज्यादा होनी चाहिए, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए।

जब मैं शिव-त्रयी लिख रहा था तो कई लोगों का कहना था कि शिव के मेरे अपने पाठ पर कन्ट्रोवर्सी हो सकती है। मैं मानता हूं कि ज्यादातर कन्‍ट्रोवर्सी लोग खुद फैलाते हैं। इससे किताबों की मार्केटिंग हो जाती है। यह मार्केटिंग स्ट्रेटजी है। लेकिन जो भी मेरी किताबें पढ़ेगा, भले ही उसे किताबें पसंद आए या न आए, वह यह तो मानेगा कि मैंने शिव की कहानी को बहुत प्रेम से लिखा है, श्रद्धा से लिखा है। जिन देवी-देवताओं के बारे में मैं लिखता हूं, मैं खुद उनकी पूजा करता हूं, उनमें श्रद्धा रखता हूं। मैं खुद कभी नहीं चाहता कि जिनके बारे में मैं लिख रहा हूं, उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच आए। शायद इसलिए भी कन्ट्रोवर्सी नहीं होती।

मैंने कई पौराणिक कथाएं और इतिहास पढ़ा है। यह बहुत ही रोमांचक है। मैं लोगों को कहता हूं कि इसे पढ़ना ही चाहिए। मैं बार-बार यह भी कहता हूं कि हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार होना चाहिए। हमारे शास्‍त्रों और पुराणों की जानकारी बच्चों को दी जानी चाहिए, क्योंकि इनमें मौजूद कहानियां वाकई बहुत रोमांचक हैं। यहां मैं सिर्फ अपनी किताबों के बारे में बात नहीं कर रहा हूं। हमारे जो शास्त्र हैं, मैं उनकी बात कर रहा हूं। ये कहानियां पढ़कर बच्चों को वाकई मजा आएगा, साथ में उन्हें सीख भी मिलेगी, वे अपनी जड़ों से जुड़ेंगे। इन कहानियों में इतनी ताकत है, इसका अंदाजा टेलीविजन धारावाहिक रामायण से लगा लीजिए। 1985 में यह पहली बार टेलीविजन पर प्रसारित हुआ था। 35 साल बाद इसका दोबारा प्रसारण हुआ। आज के धारावाहिकों की तुलना में इसमें कोई चमक-दमक नहीं थी। इसका बजट कम था। लेकिन इसकी व्यूवरशिप लगभग आठ करोड़ तक पहुंच गई। दुनिया भर के सबसे बड़े शो गेम ऑफ थ्रोन्स को पूरी दुनिया में उतने दर्शक नहीं मिले, जितने रामायण को सिर्फ भारत में ही मिल गए। सोचकर देखिए ऐसा क्यों है, क्योंकि हम सब अपनी जड़ों से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं। युवा पीढ़ी को भी इन कहानियों में बहुत रुचि है और वह भी इससे जुड़ी हुई है। 

(शिव त्रयी के लेखक। आकांक्षा पारे काशिव से बातचीत पर आधारित)

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