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सैंडर्स के पीछे हटने के मायने

डेमोक्रेटिक पार्टी के ओहदेदारों में बहुत कम सैंडर्स की वामपंथी राजनीति के प्रशंसक, मगर कोरोना के बाद के दौर में उनके विचार प्रासंगिक रहेंगे
क्रांतिकारी विचारकः बर्नी सैंडर्स चुनाव में पीछे हटे पर असर बदस्तूर कायम

अगर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मतदाताओं का दायरा अमेरिका से बाहर भी होता तो शायद बर्नी सैंडर्स को अगला राष्ट्रपति बनने से रोकना मुश्किल हो जाता। लेकिन 78 साल के इस डेमोक्रेट उम्मीदवार ने 8 अप्रैल को चुनावी दौड़ से अपना नाम वापस ले लिया। इससे यह बात एक बार फिर साबित हुई कि डेमोक्रेटिक पार्टी के ओहदेदारों में बहुत कम लोग हैं जो बर्नी सैंडर्स की राजनीति को पसंद करते हैं। दरअसल, उनकी राजनीति अमेरिकी नागरिकों के नजरिए में आमूलचूल बदलाव लाने वाली है।

अमेरिकी प्रांत वरमोंट के सीनेटर सैंडर्स दुनिया के इस सबसे अमीर देश में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई के घोर आलोचक हैं। उन्होंने अमीरों पर ज्यादा कर का बोझ डालने और सबके लिए बेसिक यूनिवर्सल हेल्थकेयर के पक्ष में लगातार प्रचार किया है। सैंडर्स लाखों करोड़ डॉलर के एजुकेशन और मेडिकल लोन माफ करने की मांग करते रहे हैं। उनकी इन मांगों ने न सिर्फ उनकी अपनी पार्टी में, बल्कि दूसरों के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। लेकिन जो बात सबसे अधिक असर पैदा कर रही थी, वह थी गैर-बराबरी के पुराने और शाश्वत मुद्दे को बार-बार उठाना। सभी चुनावी रैलियों में चुनिंदा अमीरों और बड़ी तादाद में गरीब अमेरिकियों के बीच संपत्ति के अंतर को वे प्रमुखता से उठाते रहे हैं। ऐसे समय जब लोग पूंजीवादी व्यवस्था के फायदे पर सवाल उठा रहे हैं और ज्यादा समानता वाले विश्व की मांग कर रहे हैं, उनके वामपंथी विचारों से लोगों का आकर्षित होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि 20 साल से कम उम्र के जो मौजूदा मतदाता हैं, वे अपनी पिछली पीढ़ी की तुलना में समाजवाद को ज्यादा पसंद करते हैं।

सैंडर्स बड़ी अमेरिकी कंपनियों, अरबपतियों और वॉल स्ट्रीट की आलोचना करते रहे हैं। बड़ी संख्या में अमेरिकी मतदाता, खासकर युवा, उनके विचारों से प्रभावित हैं। यही नहीं, अमेरिका से बाहर भी उनके प्रशंसक काफी हैं। यहां तक कि बहुत से युवा भारतीय भी चाहते थे कि अगर अनुमति मिले तो वे अमेरिका जाकर बर्नी सैंडर्स के पक्ष में चुनाव प्रचार करेंगे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि बराक ओबामा के बाद अमेरिका का कोई अन्य नेता दुनिया के दूसरे देशों में उतना नहीं पसंद किया गया, जितना बर्नी सैंडर्स को लोगों ने पसंद किया। लेकिन सैंडर्स और ओबामा के बीच काफी अंतर है। ओबामा अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के, अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति थे। वे युवा, स्पष्टवादी और बेहतरीन वक्ता थे। हर मौके पर अपने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। तुलनात्मक रूप से देखें तो सैंडर्स बिलकुल विपरीत प्रकृति वाले व्यक्ति हैं। वे वृद्ध हैं, 78 साल के सैंडर्स सभी प्रत्याशियों से ज्यादा उम्र के और श्वेत हैं, ओबामा की तरह वे मध्यमार्गी भी नहीं हैं। वे ऐसे क्रांतिकारी हैं जो अपनी वामपंथी विचारधारा को व्यक्त करने से डरते नहीं। किसी प्रोफेसर की तरह भाषणों में उनका लहजा उपदेशात्मक रहता है, ओबामा की तरह वे मनमोहक वक्ता नहीं हैं। दोनों के बीच एक और बड़ा अंतर यह है कि बर्नी सैंडर्स अफ्रीकी-अमेरिकी मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने में विफल रहे। हालांकि उन्होंने बड़ी संख्या में युवाओं और अधेड़ उम्र के कामकाजी वर्ग को प्रभावित किया। वास्तव में देखा जाए तो अश्वेत लोगों का समर्थन नहीं मिलना, उनके पीछे हटने की एक बड़ी वजह हो सकती है, बावजूद इसके कि वे लंबे समय तक डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशियों में सबसे आगे रहे।

नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए बर्नी सैंडर्स को राज्यों में काफी प्राइमरी वोट मिले थे। आयोवा, न्यू हैंपशायर और नेवादा में फरवरी में हुई वोटिंग में उन्होंने काफी दमदार प्रदर्शन किया था, लेकिन साउथ कैरोलिना में राजनीतिक माहौल उनके खिलाफ बनने लगा, जिसका फायदा उन्हीं की पार्टी के दूसरे प्रत्याशी जो बिडेन को मिला। एक समय था जब एमी क्लोबूचर, पीट बुटिगिएग, माइक ब्लूमबर्ग और एलिजाबेथ वारेन भी डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से अपनी-अपनी उम्मीदवारी जता रही थीं, लेकिन अंततः यह रेस दो श्वेत पुरुषों के बीच रह गई। वॉशिंगटन, फ्लोरिडा, मिशिगन और टेक्सास जैसे कई राज्यों के सेंटर-राइट डेमोक्रेटिक नेता अचानक जो बिडेन के पक्ष में आ गए। तर्क दिया गया कि जब प्रत्याशियों की संख्या अधिक थी तब सैंडर्स का प्रदर्शन अच्छा था, लेकिन जब रेस उनके और बिडेन के बीच रह गई, तब उनका प्रदर्शन उतना बढ़िया नहीं रह गया।

जो बिडेन के सामने बर्नी सैंडर्स के हार मानने की एक और प्रमुख वजह यह मानी जाती है कि राज्यों में हुए महत्वपूर्ण प्रिलिमिनरी चुनाव में युवा डेमोक्रेट समर्थक बहुत कम आए। चुनावी नतीजों से पता चलता है कि 18 से 38 साल के आयु वर्ग वाले डेमोक्रेटिक पार्टी के प्राइमरी मतदाताओं में 50 फीसदी से अधिक की पहली पसंद सैंडर्स थे। प्रत्येक राज्य में उन्हें युवाओं का वोट हासिल हुआ था। लेकिन सुपर ट्यूजडे को हुए मतदान में युवा मतदाताओं ने कम भाग लिया और बिडेन ने 14 में से 10 राज्यों में जीत हासिल कर ली।

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिकी चुनाव में युवा मतदाता हमेशा कम संख्या में भाग लेते रहे हैं। उनका कहना है कि अमेरिका के किसी भी चुनाव में देखें तो युवा मतदाता, बुजुर्गों की तुलना में कम संख्या में वोट देते हैं। ऐसा 1972 में भी हुआ था, जब 26वें संशोधन के जरिए वोट डालने की न्यूनतम उम्र सीमा घटाकर 18 वर्ष कर दी गई थी। युवा मतदाताओं के कम संख्या में वोट देने का एक बड़ा कारण पार्टी के प्रिलिमिनरी चुनाव की जटिल प्रक्रिया को माना जाता है। अभी तक बहुत कम नेताओं ने इस जटिलता के बारे में युवा मतदाताओं को समझाने का प्रयास किया है। इसी का नतीजा रहा कि जो युवा सैंडर्स की रैली में पहले पहुंचते थे और उनके क्रांतिकारी विचारों पर प्रफुल्लित होते थे, ऐन चुनाव के दिन उनमें से बहुत थोड़े ही मतदान के लिए निकले।

बर्नी सैंडर्स डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट हैं। वे एकमात्र अमेरिकी नेता हैं जिन्होंने अपना हनीमून सोवियत संघ में मनाया। सैंडर्स के साथ ऐसा दूसरी बार हुआ है जब डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर ही राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन हासिल करने में उनका जबरदस्त विरोध हुआ हो। चार साल पहले भी जब हिलेरी क्लिंटन पार्टी की पसंदीदा उम्मीदवार थीं, तब पार्टी ने इस बात की हर मुमकिन कोशिश की थी कि सैंडर्स राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार न बनें। डेमोक्रेटिक पार्टी की इस आपसी लड़ाई से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की जीत की राह आसान हो गई। पिछले चुनाव में बर्नी सैंडर्स के हर आठ में से एक समर्थक ने ट्रंप के पक्ष में मतदान किया। कुछ लोगों को डर है कि इस वर्ष नवंबर में होने वाले चुनाव में भी ऐसा हो सकता है। शायद इसी को रोकने के लिए जो बिडेन ने बर्नी सैंडर्स और उनके समर्थकों की सराहना की। उन्होंने कहा कि सैंडर्स ने एक राजनीतिक प्रचार ही नहीं चलाया, बल्कि उन्होंने एक आंदोलन खड़ा किया। ईमानदार और न्यायोचित अमेरिका की शक्तिशाली आवाज बनने के लिए उन्होंने सैंडर्स का धन्यवाद भी किया।

अब सवाल है कि जो बर्नी सैंडर्स अपनी राजनीतिक विचारधारा को कभी व्यक्त करने से डरते नहीं थे, वे अपने पीछे क्या छोड़ गए हैं। जाने-माने टिप्पणीकार एड ल्यूस ने पिछले महीने फाइनेंशियल टाइम्स में लिखा था, “सैंडर्स चाहे जिस बात पर बिडेन के खिलाफ लड़ाई में पीछे हटें, अमेरिका के वामपंथियों में एक कसक रह जाएगी।”

पिछली शताब्दी की शुरुआत में समाजवाद अमेरिका में एक लोकप्रिय विचारधारा थी, लेकिन बाद के वर्षों में धीरे-धीरे यह खत्म होती गई। बोलशेविक क्रांति के बाद जब मॉस्को में पहली समाजवादी सरकार बनी तब अमेरिका में समाजवादी विचारधारा को देशद्रोह जैसा समझा जाने लगा। लेकिन क्या अब यह विचारधारा दुनिया के सबसे बड़े पूंजीवादी देश में लौट रही है? पर्यवेक्षकों का मानना है कि सैंडर्स भले ही चुनावी रेस से बाहर हो गए हों, उनके बहुत से विचार अलग-अलग रूपों में डेमोक्रेटिक पार्टी के एजेंडे का हिस्सा बन चुके हैं।

कोविड-19 वैश्विक महामारी का दुनिया की अर्थव्यवस्‍था पर क्या असर होगा, इस पर संयुक्त राष्ट्र की नवीनतम रिपोर्ट कहती है, “इससे दुनिया भर में करीब एक सौ करोड़ नौकरियां जा सकती हैं।” बिलाशक, यह देखने लायक होगा कि इस उभरते परिदृश्य में वरमोंट के सीनेटर के क्रांतिकारी विचार कोविड-19 के घाव से दागदार समाज के बीच संतुलन बनाने में अमेरिकी नीति-निर्माताओं को कितना परेशान करेंगे?

 

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सैंडर्स बड़ी अमेरिकी कंपनियों, अरबपतियों और वॉल स्ट्रीट के आलोचक रहे हैं। अमेरिकी युवा तो उनके विचारों से प्रभावित हैं ही, अमेरिका से बाहर भी उनके प्रशंसक काफी हैं

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