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सरकारी अंकुश से फुस्स

नया संशोधन आरटीआइ कानून की आत्मा पर प्रहार और संघीय ढांचे के खिलाफ
अगर न्यायालय को लगता है कि कानून में बदलाव कर मूल भावना में छेड़छाड़ की गई है तो वह उस प्रावधान को बदल भी सकता है

अभी 2013 में ही तो सुप्रीम कोर्ट ने सूचना के अधिकार कानून से संबंधित फैसले में कहा था, “सूचना का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में प्रदत्त बोली और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही एक और पहलू है...इस तरह सूचना का अधिकार निर्विवाद मौलिक अधिकार है, जैसा यह अदालत अपने कई निर्णयों में बार-बार कह चुकी है।

विडंबना देखिए कि जिस एनडीए सरकार के तत्कालीन कानून मंत्री अरुण जेटली ने इस मौलिक अधिकार को कानूनी जामा पहनाने के लिए 2002 में सूचना की स्वतंत्रता कानून की प्रक्रिया शुरू की थी, आज वही उसे उलटने पर उतारू हैं। मौजूदा सरकार 2005 के सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ, 2005) पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद तय केंद्र और राज्य के सूचना आयुक्तों के तय कार्यकाल और वेतन-भत्तों का फैसला करने का अधिकार अपने हाथ में ले रही है। 2005 के कानून में केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त, दूसरे केंद्रीय सूचना आयुक्तों और राज्य सूचना आयोगों के मुखिया के वेतन और भत्तों को चुनाव आयोग के सदस्यों के तर्ज पर रखने की व्यवस्था की गई थी। राज्य सूचना आयुक्तों को राज्य में सर्वोच्च अफसरशाह मुख्य सचिव के बराबर ओहदा दिया गया था। कार्यकाल पांच साल का रखा गया था लेकिन इस शर्त के साथ कि उम्र की सीमा 65 वर्ष हो। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अक्टूबर 2015 में आरटीआइ कानून के 10 साल पूरे होने पर राष्ट्रीय सूचना आयोग सम्मेलन में कहा था, “आरटीआइ कानून आम आदमी को प्रशासन के कार्यों की जानकारी और सवाल पूछने का अधिकार देता है, जो जीवंत लोकतंत्र की आधारशिला है। उन्होंने बड़ी शिद्दत से कहा कि इससे सरकार को पारदर्शिता और जवाबदेही अपनाकर अपने कामकाज पर निगरानी रखने का मौका भी मुहैया होता है। इस तरह केंद्र और राज्य में सूचना आयोग को न्यूनतम सरकार और अधिकतम प्रशासन को साकार करने में अहम भूमिका निभाने की दरकार है।

केंद्र सरकार अब सूचना आयोग की इस भूमिका पर अंकुश लगाना चाहती है। वह देश भर के सभी सूचना आयुक्तों (जम्मू-कश्मीर राज्य को छोडक़र, जिसका अपना कानून है, बशर्ते मौजूदा बदलाव पूरी तरह अमल में न आ जाए) के वेतन-भत्ते और कार्यकाल तय करने का अधिकार अपने हाथ में ले रही है। संशोधन विधेयक को संसद में पेश करते समय, केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्यमंत्री ने इस अधिनियम के बारे में एक विचित्र दावा किया कि सूचना का अधिकार कानून बनने के 14 साल में किसी नियम ने यह समझाने की कोशिश नहीं की कि एक सामान्य कानून द्वारा स्थापित आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्ते आदि तय करने की प्रक्रिया चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक निकायों की तरह नहीं की जा सकती है। हालांकि ऐसा कहते वक्त मंत्री ने दिसंबर 2004 में संसद में पेश आरटीआइ बिल से संबंधित उद्देश्य और कारणों को नजरअंदाज कर दिया, जिसमें यह साफ तौर पर कहा गया था कि आरटीआइ कानून संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत सूचना के अधिकार को प्रभावी बनाने के लिए एक मजबूत ढांचा प्रदान करेगा। यही नहीं आरटीआइ कानून लाते समय संविधान की सातवीं अनुसूची में मौजूद तीन सूचियों में से किसी भी सूची का जिक्र नहीं किया गया है।

ऐसे में माननीय मंत्री ने लोकसभा में आरटीआइ पर शुरू की गई बहस को खत्म करते हुए कहा कि आरटीआइ कानून केंद्रीय सूची के एंट्री 97 के तहत बनाया गया है, जो संसद को अवशिष्ट शक्तियों के आधार पर कानून बनाने का अधिकार देता है। इसमें प्रवाधान है कि अगर शक्तियों को लेकर कोई सवाल उठता है तो पहले संसदीय समिति उस पर निर्णय देगी, अगर वह ऐसा करने में असमर्थ रहती है, तो उसका फैसला न्यायालय के जरिए होगा। लेकिन अगर किसी मुद्दे पर आयोग संज्ञान लेता है तो वह निश्चित तौर पर संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का मामला होगा। ऐसे में यह मूल प्रश्न का उत्तर नहीं देता है कि कानून में संशोधन की जरूरत क्यों है?

तथ्य यह है कि आरटीआइ कानून बनाने की विधायी क्षमता संविधान के भाग-3 से आती है, जो समवर्ती सूची एंट्री 12 के साथ देखी जानी चाहिए। यह उस समय की बात है जब संसद सूचना की स्वतंत्रता विधेयक, 2000 की पड़ताल कर रही थी। यह एनडीए के पहले कार्यकाल में जन्मा प्रयास था, जिसका उल्लेख मैंने पहले किया है। उस वक्त प्रतिष्ठित कानूनी विशेषज्ञ और लेखक ए.जी. नूरानी ने तर्क दिया कि सूचना के मौलिक अधिकार, जिसे अनुच्छेद 19 (1) (क) में बोली और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा माना जाता है, संबंधी कानून बनाने के लिए संसद और विधानसभा दोनों ही सक्षम हैं। उन्होंने समवर्ती सूची की प्रविष्टि 12 का हवाला देते हुए कहा कि समवर्ती सूची में, “साक्ष्य और शपथ, कानून की मान्यता, लोक गतिविधियां और रिकॉर्ड और न्यायिक प्रक्रियांएं शामिल की गई हैं।

आरटीआइ कानून नागरिकों को उन सार्वजनिक रिकॉर्ड तक पहुंचने में सक्षम बनाता है जो सरकार और प्रशासन के नियंत्रण में रहते हैं। इस तरह के रिकॉर्ड केंद्र या राज्य स्तर पर एकत्र और संकलित किए जाते हैं, इसलिए एंट्री 12 का उपयोग केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा आरटीआइ कानूनों को लागू करने के लिए किया जा सकता है। यही कारण है कि आठ राज्यों के अपने आरटीआइ कानून भी संवैधानिक हैं।

1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) विधेयक पेश किया था, जो संसद की स्थायी समिति और संसद के दोनों सदनों में विचार-विमर्श के बाद चार साल बाद कानून बन गया। उस अधिनियम की धारा 5 (7) के तहत केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का वेतन और भत्ते , संविधान के अनुच्छेद 325 के तहत गठित संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के समान हैं। इसी तरह सीवीसी के तहत नियुक्त दो सतर्कता आयुक्त का वेतन और भत्ता संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों के समान है। गौरतलब है कि संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों का वेतन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर होता है। सीवीसी विशुद्ध रूप से एक संवैधानिक संस्था के रूप में काम करती है। इसका काम संविधान के अनुरूप कानून और भ्रष्टाचार-मुक्त शासन को लागू करने में सहयोग करना है। दूसरी ओर, सूचना का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, जिसका उल्लेख सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने फैसलों में किया है, उसे लागू करने में केंद्र और राज्यों के सूचना आयोग न केवल अहम भूमिका निभाते हैं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए अंतिम अदालत भी हैं।

अहम बात यह है कि मोदी सरकार भी यह घोषित कर चुकी है कि उसका लक्ष्य भ्रष्ट्राचार-मुक्त शासन देना है। ऐसे में एक पारदर्शी प्रशासन तंत्र के लिए आरटीआइ कानून का होना बेहद जरूरी है।

आरटीआइ अधिनियम की प्रस्तावना स्पष्ट रूप से पारदर्शी शासन की स्थापना को रेखांकित करती है, ताकि भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सके और सरकार और उसकी सहायक संस्थाओं की जवाबदेही तय की जा सके। हालांकि सीवीसी के पास केवल सिफारिश करने की शक्ति है। लेकिन सूचना आयोगों के निर्णय बाध्यकारी हैं और केवल संविधान के अनुच्छेद 226 और 32 के तहत हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा द्वारा ही बदले या संशोधित किए जा सकते हैं। सूचना आयुक्त इसके अलावा सूचना प्रस्तुत करने में देरी या गलत तरीके इस्तेमाल करने पर सूचना अधिकारियों पर जुर्माना भी लगा सकता है। वह नागरिकों को सूचना मिलने में देरी को देखते हुए उन्हें मुआवाजा भी दिलाने का अधिकार रखता है। लेकिन ये अधिकारी क्या स्वतंत्र रूप से काम कर पाएंगे, जब उनके वेतन-भत्ते और कार्यकाल के निर्णय का अधिकार सरकार के पास चला जाएगा।

राज्यों में सूचना आयोग के कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और सेवा शर्तों से संबंधित नियम बनाने का अधिकार आरटीआइ कानून की धारा-27 के तहत दी गई हैं। लेकिन नए संशोधन के बाद राज्य सूचना आयुक्तों की शक्तियों को तय करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास चला गया है। अब राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा की शर्तों को संचालित करने के लिए दो तरह के नियम लागू होंगे। केंद्र सरकार के पास सूचना आयुक्तों के वेतन-भत्ते, सेवा शर्तों को तय करने का अधिकार होगा, जबकि उनके स्टाफ के वेतन-भत्ते और सेवा शर्तों को तय करने के नियम राज्य सरकार तय करेगी। निश्चित रूप से यह आरटीआइ अधिनियम 2005 के संघीय स्वरूप को खत्म करना है। अहम बात यह भी है कि केंद्र सरकार को यह अधिकार मिला हुआ है कि वह प्रत्येक राज्य के संचित निधि को कैसे खर्च किया जाए, उसे तय करे। इसी तरह राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन का स्रोत क्या होगा उसे भी तय करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है।

प्रस्तावित संशोधन से कानून के लागू करने में एक और विरोधाभास की स्थिति सामने आएगी। इसके तहत यह सवाल खड़ा होगा कि राज्य सूचना आयोग किसके तहत होगा यानी उसकी उपयुक्त सरकार कौन होगी? अभी राज्य सूचना आयोग, धारा 2 (1) (ए) के आधार पर संबंधित राज्य सरकारों द्वारा अधिसूचित आरटीआइ नियमों को लागू कर रहे हैं, जो इस समय उनके लिए उपयुक्त सरकार हैं। आरटीआइ कानून की धारा 15 के तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार है कि वह राज्य सूचना आयोग का गठन करें। इसी तरह आरटीआइ कानून 2005 राज्य सरकारों को यह अधिकार देता है कि राज्य के लिए आरटीआइ नियम, सूचना प्राप्त करने के शुल्क और धारा 27 के तहत अधिसूचित मामले से संबंधित नियम तय करें। संशोधन के बाद यह प्रश्न उठता है कि सूचना आयुक्तों के लिए ‘उपयुक्त सरकार’ कौन होगी। राज्य सरकारें जो उन्हें नियुक्त और निष्काषित करने का अधिकार रखती हैं या फिर केंद्र सरकार जो उनके वेतन और कार्यकाल को नियंत्रित कर सकती है? संशोधन की वजह से एक और तरीके का कानूनी टकराव खड़ा होगा।

समूचे देश में आरटीआइ कानून को बेहद उपयोगी माना जाता है। संशोधन के लिए जब ड्राफ्ट बिल को सार्वजनिक सुझाव के लिए रखा गया, तो निश्चित तौर पर उसे कई अहम सुझाव नागरिकों से मिले होंगे। खास तौर पर ऐसी सरकार जो सबका विकास और सबका विश्वास का दावा करती है, उसे निश्चित तौर पर उसका फायदा उठाना चाहिए था। लेकिन लगता है सरकार नागरिकों की क्षमता पर भरोसा नहीं करती है क्योंकि संशोधन अधिनियम बनाने में उसकी कोई झलक नहीं दिखी है।

सूचना का अधिकार एक संवैधानिक कानून को लागू करने का बेहतरीन उदाहरण है। इस कानून के तहत राज्य के ऊपर जहां सकारात्मक भूमिका अदा करने की बाध्यता है, वहीं इसे न्यायिक समीक्षा के तहत लाकर इस पर निगरानी रखने की भी व्यवस्था कर दी गई है। ऐसे में अगर किसी भी तरह से राज्य अपने उत्तरदायित्व को नहीं निभाता है तो न्याय प्रणाली उसको लागू करने की भूमिका अदा करेगी। इसलिए हाल में हुए बदलाव पर प्रमुख न्यायविद गौतम भाटिया का कहना है कि संशोधन को निरस्त कर पुराने आरटीआइ कानून को पुर्नस्थापित करने की जरूरत है। सीधे शब्दों में कहें कि अगर न्यायालय को लगता है कि कानून में बदलाव कर उसकी मूल भावना में छेड़छाड़ की गई है तो वह उस प्रावधान को बदल भी सकता है।

(लेखक पहले मुख्य सूचना आयुक्त रह चुके हैं। लेख में एक्सेस टू इन्‍फॉर्मेशन, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के प्रमुख वेंकटेश नायक का भी इनपुट शामिल है)

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