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आवरण कथा/नजरियाः बॉलीवुड का बुरा दौर दुष्प्रचार या हकीकत

वर्तमान समय में फिल्मों की स्थिति को समझने के लिए गहराई में उतरना होगा
फिल्म माध्यम मनोरंजन की मांग करता है, यह नहीं तो कुछ नहीं

भारत में सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, यह इस देश की आत्मा में बसता है। लोगों के दुख और सुख जुड़े हुए हैं सिनेमा से। फिल्मी हस्तियों को पूजने और उनके मंदिर बनाने का रिवाज रहा है इस देश में। यही कारण है कि आज हिंदी फिल्मों की मौजूदा स्थिति को लेकर चल रही बहस राष्ट्रीय मुद्दा बन गई है। सभी अपनी-अपनी राय रख रहे हैं। जोर-शोर से उछाला जा रहा है कि हिंदी फिल्मों का समय खत्म हो गया है। यह ऐसा ही है, जैसे गली के नुक्कड़ पर देश की रक्षा, विदेश, आर्थिक नीति पर बातें होती हैं। इनमें कोरी भावुकता के अलावा और कोई आधार नहीं होता। वर्तमान समय में फिल्मों की स्थिति को समझने के लिए गहराई में उतरना होगा।

कहा जा रहा है कि हिंदी फिल्में, दक्षिण भारतीय फिल्मों के आगे बौनी साबित हो रही हैं। जब यह कहा जाता है तो इसका आधार नहीं बताया जाता। आंकड़ों की बात मानें तो इस साल हिंदी में तकरीबन 53 फिल्में रिलीज हुईं, जिनमें पांच ने 100 करोड़ रुपये का जादुई आंकड़ा पार किया। यदि 100 करोड़ को सफलता की कसौटी मानते हैं तो इस आधार पर दक्षिण भारत में बनी तकरीबन 370 से अधिक फिल्मों में से केवल 15 ने बॉक्स ऑफिस पर जादुई आंकड़े को पार किया है। यह बताता है कि न केवल हिंदी फिल्म बल्कि मलयालम, कन्नड़, तमिल, तेलुगु भाषा की फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर रही हैं।

हर इंडस्ट्री में अच्छा और बुरा समय आता है। आज हिंदी सिनेमा में ऐसा समय आया है जब इस इंडस्ट्री की खामियां खुलकर दिखाई दे रही हैं, लेकिन इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि इसी बहाने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दोष दूर होंगे और आगामी भविष्य में यह बेहतर प्रदर्शन करेगी। अगर हिंदी फिल्मों की असफलता के कारणों पर बात करें, तो कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर बात करनी होगी। पहला हिंदी पट्टी में थियेटरों की कमी। पूरे भारत में जितने थियेटर हैं, उनमें 50 फीसदी से अधिक थियेटर केवल दक्षिण भारत में हैं। यानी हिंदी पट्टी में न तो थियेटर हैं, न ही गुणवत्ता। पहले हर शहर में चार से पांच सिनेमाहॉल होते थे। अब छोटे शहरों, कस्बों में थियेटर ही नहीं हैं। जब आपके पास अच्छे स्तर के थियेटर नहीं होंगे तो दर्शक फिल्में देखने घर से बाहर क्यों आएंगे।

कोरोना महामारी के कारण देश में भारी आर्थिक संकट आया। लोग मूलभूत जरूरतों के लिए भी मुश्किल से पैसा कमा पा रहे हैं। मेहनत की कमाई को मनोरंजन पर खर्च करने के बारे में दर्शक बहुत सोच समझकर चुनाव करता है। ओटीटी माध्यम ने दर्शक को सुविधा दी है कि अपनी पसंद की फिल्म वह घर बैठे देख सकता है। जब तक किसी फिल्म का वर्षों से इंतजार न हो या किसी फिल्म के बारे में देश भर में चर्चा न हो, तब तक दर्शक थियेटर में फिल्म देखने नहीं जाना चाहता। 

हिंदी फिल्मों की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वे हिंदी पट्टी की बातें नहीं कर रही हैं। हिंदी फिल्मों का दर्शक कंटेंट से खुद को जोड़कर नहीं देख पा रहा। अधिकतर फिल्में या तो दक्षिण भारत से कॉपी की जा रही हैं या विदेश से। विडंबना है कि कानपुर के नायक को पंजाबी गाना गाते हुए दिखाया जाता है। हर अभिनेता गोरे रंग का ही होता है। हिंदी पट्टी के मुख्य शहर जैसे कानपुर, बनारस, लखनऊ, आगरा, मथुरा की बात इक्का-दुक्का फिल्मों में ही दिखाई पड़ती है। ऐसी फिल्में बस नाम भर के लिए हिंदी फिल्में हैं, इनमें हिंदी का कोई तत्व नहीं दिखता। अब बॉलीवुड का विकेंद्रीकरण करने की जरूरत है। जरूरी है कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड की पृष्ठभूमि पर भी फिल्में बनें और उनमें वहां की संस्कृति, खानपान, वेशभूषा, भाषा नजर आए। हिंदी सिनेमा जगत में फिल्म के पोस्टर से लेकर स्क्रिप्ट, सेट से लेकर संवाद तक, सब अंग्रेजी में होता है। निर्देशक, अभिनेता, सब हिंदीभाषी प्रदेश की जमीनी सच्चाई से दूर हैं। जब तक यह दूरी रहेगी, तब तक जो भी रचा जाएगा उसमें नकलीपन होगा।

बॉलीवुड की छवि हमेशा से सेकुलर रही है। कट्टरपंथी लोग सिनेमा के व्यापक असर को जानते हैं इसलिए अपना हित साधने के लिए वे ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंदी सिनेमा हिंदुत्व विरोधी है। हिंदी सिनेमा को मुस्लिमपरस्त दिखाने का प्रयास जोर-शोर से चल रहा है। इसी का नतीजा है कि देश भर में बायकॉट बॉलीवुड की मुहिम जोर पकड़ रही है। यह सच है कि बॉलीवुड में परिवारवाद, गुटबाजी, ड्रग्स का इस्तेमाल होता है। यह बॉलीवुड ही नहीं, हर उस जगह है जहां पैसा, सत्ता, ग्लैमर है। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या ने बॉलीवुड की गंदगी को दुनिया के सामने उजागर करने का काम किया है, लेकिन इसकी आड़ में बॉलीवुड को हिंदुत्व विरोधी घोषित करने का काम किया जा रहा है। 

निराश होने की जरूरत नहीं है। सर्जरी होती है तो दर्द भी होता है, लेकिन उपचार भी इसी से संभव है। हिंदी सिनेमा बुरे दौर से मजबूती से बाहर निकलेगा। सौ वर्षों की बुनियाद है हिंदी सिनेमा की। कुछ फिल्मों के असफल होने से इंडस्ट्री असफल नहीं हो जाती। उम्मीद है कि कोई छोटी फिल्म आएगी, कोई नया कलाकार आएगा, जो हिंदी सिनेमा को दोबारा स्थापित करेगा और सुनहरा दौर फिर से लौट आएगा।

 (अजय ब्रह्मात्मज वरिष्ठ फिल्म पत्रकार हैं। मनीष पाण्डेय से बातचीत पर आधारित)

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