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अफगानिस्तान: संकट में बदली रणनीति

नए हालात में एक समान चिंताओं से भारत-रूस में करीबी बढ़ी
पेट्रुशेव के साथ अजित डोभाल

जमीनी हकीकत बदलती है तो नीतियों में भी बदलाव करने पड़ते हैं। आज अफगानिस्तान में जब पाकिस्तान और चीन प्रमुख भूमिका में हैं तो भारत को भी रूस के साथ अपने संबंधों को नया रूप देने की जरूरत है। रूसी सुरक्षा परिषद के सचिव जनरल निकोलाई पेट्रुशेव  के पिछले दिनों भारत दौरे को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अफगानिस्तान के मुद्दे पर रूस अभी तक चीन और पाकिस्तान के साथ खड़ा दिख रहा है, लेकिन काबुल में कट्टर इस्लामी विचारों वाली सरकार बनने के बाद वह भी चिंतित है।

पहले हामिद करजई और फिर अशरफ गनी सरकार का समर्थन करने वाले भारत की मौजूदगी अब उस देश में नहीं रह गई है, जहां दो दशक तक उसने विकास के कार्यों में करोड़ों डॉलर लगाए। दो दशक तक नई दिल्ली और काबुल के बीच रिश्ते बहुत अच्छे रहे। पाकिस्तान के आतंकवाद को बढ़ावा देने से दोनों परेशान थे। अब अफगानिस्तान से भारत के बाहर होने पर पाकिस्तान खुश होगा। वह तालिबान को दोबारा सत्ता में लाने की कोशिशों में जुटा था।

पूर्व राजनयिक और कभी विदेश मंत्रालय में यूरेशिया डेस्क के इंचार्ज रहे अनिल वाधवा कहते हैं, “भारत और रूस की चिंताएं एक समान हैं। दोनों अफगानिस्तान के आतंकवाद का हब बनने और जिहादी संगठनों के पनपने को लेकर चिंतित हैं।” हालांकि वाधवा बदलते वैश्विक समीकरणों के चलते भारत-रूस संबंधों में कुछ हद तक अविश्वास की बात भी करते हैं। भारत की चिंता चीन और पाकिस्तान के साथ रूस की बढ़ती नजदीकियां हैं तो अमेरिका के साथ गाढ़ी होती दोस्ती को लेकर रूस, भारत को संदेह की नजर से देखता है।

एक समय था जब मॉस्को ने पाकिस्तान को हथियार बेचने से मना कर दिया था, क्योंकि उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ हो सकता था। कश्मीर मुद्दे पर सुरक्षा परिषद में भी वह भारत के साथ खड़ा रहा। लेकिन अब मॉस्को और इस्लामाबाद युद्धाभ्यास कर रहे हैं। बड़ी गैस डील के लिए राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पाकिस्तान जाने वाले हैं। तालिबान तक पहुंच बढ़ाने के लिए रूस ने पाकिस्तान से नजदीकियां बढ़ाई हैं। यह बात भारत को नागवार गुजर सकती है। लेकिन रूस भी अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकियों को लेकर उतना ही निराश है।

रूस में भारत के पूर्व राजदूत पी.एस. राघवन अफगानिस्तान को लेकर मॉस्को के नजरिए को ‘तालिबान से पहले’ और ‘तालिबान के बाद’ दो भागों में बांट कर देखते हैं। पहले रूस और चीन इस प्रयास में थे कि अमेरिका अफगानिस्तान से निकल जाए। पाकिस्तान की कोशिश थी कि काबुल में उसके समर्थन वाली सरकार बने। अमेरिकी भी अफगानिस्तान से निकलने कि जल्दी में थे। अमेरिका, रूस और चीन की तिकड़ी के साथ पाकिस्तान ने तालिबान को अफगान शांति परिषद के साथ बातचीत के लिए तैयार किया। लेकिन अमेरिका के निकलते ही हालात नाटकीय रूप से बदल गए। दोहा में किए गए वादे खोखले जान पड़ते हैं। नई सरकार में पख्तूनों का बोलबाला है। 33 मंत्रियों में 30 पख्तून हैं। इनके अलावा एक उज्बेक और दो ताजिक हैं। उम्मीद के मुताबिक न कोई महिला है, न शिया हजारा, न बलूच और न कोई तुर्क। अफगानिस्तान मामलों के एक विशेषज्ञ ने इसे ‘मुल्लाक्रेटिक’ सरकार नाम दिया है।

तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी की प्रेस कॉन्फ्रेंस

तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी की प्रेस कॉन्फ्रेंस 

राघवन कहते हैं, “रूस की चिंता के कारण भी वही हैं- अफगानिस्तान से आतंकवादियों का दूसरे देशों में जाना, जिहादी विचारधारा, ड्रग्स का अवैध व्यापार। तालिबान की जीत से दुनियाभर में कट्टर मुसलमानों को शह मिलेगी। दो साल पहले जब आइएस के लड़ाके सीरिया से लौटे, तो रूस और दूसरे राष्ट्रकुल देशों को काफी मुश्किलें पेश आई थीं। रूस एक बार फिर इन लड़ाकों को लेकर चिंतित है। भारत की चिंता है कि विदेशी लड़ाके एक बार फिर कश्मीर मैं घुसपैठ कर सकते हैं।

शायद इन्हीं नए समीकरणों के चलते राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 24 अगस्त को फोन पर बात की। उन्होंने अफगानिस्तान पर जानकारी साझा करने और एक स्थायी द्विपक्षीय समिति बनाने की सलाह दी। इसके तत्काल बाद भारत के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पंकज सरन मॉस्को गए और वहां अपने समकक्ष से बात की, तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ पेट्रुशेव की बातचीत का रास्ता तैयार किया।

अतीत में भारत, रूस और ईरान तालिबान के खिलाफ लड़ाई में नॉर्दर्न एलायंस की मदद कर चुके हैं। क्या दोबारा ऐसा हो सकता है? राघवन कहते हैं “अभी कुछ कह नहीं सकते। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अफगानिस्तान में हालात क्या मोड़ लेते हैं।” तालिबान से संपर्क साधने वाला ईरान भी समान रूप से बेचैन है। सरकार में अल्पसंख्यकों को शामिल न करने पर वह निराशा है। उसने अफगानिस्तान में जल्द से जल्द चुनाव कराने की भी बात कही है।

मौजूदा संकट ने भारत-रूस संबंधों को नई ऊर्जा दी है। पूर्व राजनयिक तलमिज अहमद मानते हैं कि भारत ने अपनी गलती सुधारी है। भारत ने महसूस किया है कि अमेरिका के साथ उसके संबंध एक पक्षीय ही हैं। क्वाड में भी अमेरिकी हित अधिक है। संभव है कुछ आत्मनिरीक्षण हुआ हो, जिसके बाद भारत, रूस और ईरान को महत्व देने लगा है।

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