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जिन्ना को सही बताने की जिद

धर्म, संस्कृति, भाषा, सभी में ऐसे तत्च तेजी से घुल रहे हैं, जिससे साझी संस्कृति और विरासत खतरे में
संस्कृति प्रसंद

 

 

 

उर्दू के जाने-माने आलोचक, नाटककार और कवि हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में उर्दू के प्रोफेसर रह चुके हैं

 

जब आजादी मिली, तब मैं इतना बड़ा था कि उस वक्त की बहुत सारी बातें याद हैं। हमारे शहर, सुल्तानपुर में अंग्रेज डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट था। आजादी के समय मैं चौथी में पढ़ता था, तब कांग्रेस और मुस्लिम लीग का किस्सा जोरों पर था। आजादी के बाद गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल पहुंचा जो अब गवर्नमेंट कॉलेज कहलाता है। हमारे शहर के एक शायर अवधी में शेर कहते थे। उनका तखल्लुस था देसी सुल्तानपुरी। वे जिगर मुरादाबादी साहब के शागिर्द थे। जिगर साहब हमारे शहर में आते रहते थे।

 

बंटवारा इतना दुर्भाग्यपूर्ण वाकया था कि पाकिस्तान से 25 साल भी संभाला नहीं गया और 1971 में उसके दो टुकड़े हो गए। ‘टू नेशन थ्योरी’ को उसने खुद गलत साबित कर दिया। जिन्ना कहते थे कि हिंदू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और मिलकर नहीं रह सकती हैं। अब उसे हम सही साबित करने पर तुले हैं। पाकिस्तान में उल्टा मामला है। वहां मेरे कई गहरे दोस्त हैं। इंतजार हुसैन बंटवारे को गलत समझते थे। कृष्णा सोबती ने बहुत ही सही बात कही थी कि बंटवारे पर न तो बात करना आसान है, न चुप रहना। उससे पहले सैंकड़ों वर्षों से सब मिलजुल कर रहते थे।

 

जनसंघ के रूप में उस समय आरएसएस का जन्म हो चुका था। मेरे मोहल्ले में ही आरएसएस के लोग रहा करते थे। मेरे वालिद वकालत करते थे और उनके दोस्तों में भी आरएसएस के लोग थे। वे लोग लाठी लेकर और खाकी निकर पहनकर जाया करते थे। उसी जमाने में सुल्तानपुर में हिंदी के बड़े मशहूर कवि पंडित रामनरेश त्रिपाठी रहते थे। वे कांग्रेसी थे और खादी पहनते थे। जवाहरलाल नेहरू के दोस्तों में एक, बाबू गणपत सहाय भी हमारे शहर में रहते थे। बहुत बड़े वकील थे और उनके नाम से वहां पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज है। वह मेरे वालिद के दोस्त थे। हमारा एक-दूसरे के घर आना-जाना था।

 

उस जमाने में हर पढ़ा-लिखा आदमी उर्दू जरूर जानता था। पंडित नेहरू ने भी कहा है कि वे बचपन से उर्दू बोलते थे। भाषा के नाम पर कोई भेदभाव था ही नहीं। हम हिंदी और उर्दू दोनों पढ़ते थे। हमारे घर की जुबान अवधी थी। मेरे वालिद वकालत करते थे तो देहात से जो मुवक्किल आते थे, वे अवधी में ही बात करते थे। उस जमाने में हमारे मोहल्ले में छतों पर रात-रात भर रामचरितमानस का पाठ होता था। देहात से आने वाले कुछ मुवक्किलों को रात में रुकना भी होता था। वे हमारे घर खाना पकाकर रात को रामचरितमानस का पाठ किया करते थे और हम सब सुनते थे। कोई बुरा नहीं मानता था। लेकिन अब हालत बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

 

दिल्ली में मेरे बेहद करीबी दोस्तों में हिंदू ही ज्यादा हैं। पेंटर रामचंद्रन और हमारा एक-दूसरे के घर आना-जाना भी है। मेरे ज्यादातर दोस्त गैर-मुस्लिम ही हैं। कभी न उनको, न हमें यह ख्याल लाया कि वे हिंदू है या मुसलमान। अब हम रोजाना फिर से बंटवारा करने पर तुले हैं। प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और मुख्यमंत्री की जुबान से, दूसरे नेताओं की जुबान से इतनी उकसावे वाली बातों पर पहले तो कयामत आ जाती। अब लोग खामोश हैं। डर का माहौल है। सीधी-सी बात है कि हम भी डरते हैं। अच्छे भले लोगों की जुबान पर ताले लग गए हैं। मीडिया को ही देख लीजिए। यहां से ज्यादा आजाद अखबार तो पाकिस्तान में दिखता है। मेरे ख्याल से इस वक्त दक्षिण एशिया का सबसे अच्छा अखबार द डॉन है। वे इमरान खान का खूब मजाक उड़ाते हैं। वहां के न्यूज चैनल देखिए। हमारे यहां बिलकुल उल्टा है। लगता है जैसे हम बात करते हुए घबरा रहे हैं। हमारे यहां भी इस तरह के पत्रकार रहे हैं, लेकिन अब या तो वे हाशिए पर चले गए या खामोश हो गए हैं। सबके सिर पर सरकारी एजेंसियों की खौफ की तलवार लटक रही है। लेकिन एक दीया भी जलता है, तो कहीं-न-कहीं अंधेरे को उससे डर लगता है। चाहे धर्म हो, संस्कृति हो या भाषा, अब क्या चीज बच गई है खराब करने के लिए। जब तक सियासत का विस्तार नैतिकता से नहीं होगा, तब तक इसमें सुधार नहीं आएगा। देखिए, किस तरह के लोग सियासत में चुनकर आ रहे हैं- चिन्मयानंद और कुलदीप सेंगर जैसे।

 

मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का छात्र रहा हूं। राममनोहर लोहिया, सी. राजगोपालाचारी, डॉ. राधाकृष्णन, जवाहरलाल नेहरू जैसे उस जमाने के सभी बड़े नेता वहां आया करते थे। जिसके जी में जो आता था, कहते थे। मुझे याद है, जब चीन के साथ हमारी जंग हुई तब असम से सांसद हेम बरुआ ने पंडित नेहरू पर जुमला कसा था कि वह चांदी के लिए अपनी मां को बेच रहे हैं। आज आपकी हिम्मत है प्रधानमंत्री के बारे में इस तरह की बात कहने की? आज इतना भयावह दृश्य है कि आप सोच नहीं सकते। अभी एक अजीबोगरीब हाल हो गया है। मुझे लगता है कि एक दूसरा पाकिस्तान इस तरह वजूद में आ जाएगा जिसे आप हिंदू पाकिस्तान कह सकते हैं।

 

साहित्य में बदलाव

साहित्य में बदलाव बहुत धीमा होता है। पिछले साल एक अंतरराष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन में भाग लेने के लिए मैं कराची गया था। वहां मैंने विष्णु खरे की कविता भी सुनाई थी। मेरा ख्याल है कि अभी जो भी साहित्य लिखा जाए, उसमें इनसानी दोस्ती की बात ज्यादा हो। दूसरी बात है नैतिकता। हमारे जमाने के विचारकों में एडोरनो (जर्मन दार्शनिक) मुझे बहुत पसंद हैं। वे फ्रैंकफर्ट में रहते थे। उन्होंने लिखा है कि हमारे भीतर नैतिकता का एक न्यूनतम बोध होना चाहिए, वरना जिंदा रहने के कोई मायने नहीं हैं। एक बार नोबेल पुरस्कार पर चर्चा के दौरान किसी ने कहा था कि हमें बिना थके साहित्य, राजनीति और नैतिकता पर बात करते रहना चाहिए। इस संबंध को भूलने का ही नतीजा है कि आज इतनी अराजकता दिखाई देती है।

 

अच्छा साहित्य भी लिखा जा रहा है। मैं ज्यादातर हिंदी साहित्य ही पढ़ता हूं और हिंदी में लिखने वाले ज्यादातर लेखक मेरे दोस्त हैं। दक्षिण की भाषाओं में भी अच्छा लिखा जा रहा है। हाल में रज़ा फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में गया था। वहां तमाम प्रदेशों से अलग-अलग भाषाओं के लोग आए थे। ज्यादातर युवा लेखक थे। गांधी जी के बहाने नैतिकता और सियासत के रिश्ते पर सबने अपने विचार रखे। हमारे यहां दलित लेखकों में एक जागरूकता पैदा हुई है। हाल में मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि का उपन्यास ‘जूठन’ पढ़ा तो पूरी रात सो नहीं सका। बदकिस्मती से उर्दू में यहां जो कुछ लिखा जा रहा है, वह अधूरा है क्योंकि उर्दू यहां भी बोली जाती है और पाकिस्तान में भी। दूसरे और कई मुल्कों में भी उर्दू भाषा का इस्तेमाल होता है। उर्दू में कई अच्छे लेखक पाकिस्तान में रहते हैं। कुछ भारतीय प्रकाशकों ने उनकी कई किताबें हाल में छापी हैं। भारत की तुलना में पाकिस्तान के साहित्य में इनसान, दोस्ती और विरोध के तत्व ज्यादा हैं। 1947 के बाद उर्दू को भी काफी नुकसान पहुंचा है। पहले स्कूलों से उर्दू गायब हो गई, खासतौर से हिंदी क्षेत्र से। महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में उर्दू का इतना बुरा हाल नहीं हुआ। सरहद के इस पार और उस पार जो लिखा जा रहा है, अगर दोनों को साथ रखें तब उर्दू साहित्य की पूरी तसवीर बनती है। यहां जो हिंदी शायरी हम पढ़ते हैं, वह उसकी पूरी तसवीर होती है। अगर हम उर्दू की शायरी देखें तो सिर्फ यहां लिखी जाने वाली शायरी से पूरी तसवीर नहीं बनती, क्योंकि बहुत से अच्छे लिखने वाले उधर रहते हैं।

 

रहन-सहन और खान-पान

 

रहन-सहन में एकरूपता बढ़ी है। पहले लोग शेरवानी और धोती पहनते थे, अब सब कोट-पतलून पहनने लगे हैं। खाना-पीना अब एक साथ होने लगा है। पहले हिंदू पानी और मुस्लिम पानी अलग-अलग होते थे। रेलवे स्टेशनों पर ऐसे ही पानी बिकता था। छुआछूत भी था। मुसलमानों के साथ बहुत से हिंदू नहीं खाते थे, लेकिन आपस में प्यार ज्यादा था। मेरे पिता के हिंदू दोस्त थे, जिनके यहां हम दशहरा-दीपावली जैसे त्योहारों और शादियों में जाते थे और अलग खाते थे। अब वह तो खत्म हो गया, साथ खाने लगे हैं, लेकिन कहीं न कहीं से दिल में चोर पैदा हो गया है। कई बार लगता है कि बहुत ही संगठित तरीके से लोगों को बताया जा रहा है कि तुम इनसे दूर रहो, ये बुरे लोग हैं। जो तसवीर पेश की जा रही है, वह बहुत भयानक है। न सिर्फ नफरत, बल्कि गुस्सा पैदा करने की कोशिश की जा रही है कि इन्होंने बड़ी ज्यादतियां कीं।

 

शिक्षा का स्तर

 

शिक्षा के साथ इतना बड़ा मजाक पहले कभी नहीं देखा गया। मेरे ख्याल से 20वीं सदी के साहित्य के सबसे बड़े नायक रवींद्रनाथ टैगोर और प्रेमचंद हैं। टैगोर ने राष्ट्रवाद का मजाक बिना वजह नहीं उड़ाया था। 1906-07 में उन्होंने एक भाषण में कहा था कि राष्ट्रीय पहचान क्या होती है, वैश्विक पहचान होनी चाहिए। प्रेमचंद की किताब पाठ्यक्रम से हटाकर उनकी जगह एक अनजान सी महिला की किताब लगा दी गई। मैं एनसीईआरटी में 15 साल एडवाइजर रहा, लेकिन कभी यह हाल नहीं देखा। उन दिनों नामवर सिंह चीफ एडवाइजर थे। यशपाल जी की गाइडेंस हम सबको मिलती थी। हम हर तरह की चीजें पढ़ाते थे। साहित्य में कोई भेदभाव था ही नहीं। हिंदुओं को मुसलमानों के बारे में और मुसलमानों को हिंदुओं के बारे में बताना जरूरी समझते थे। अब आपने देखा कि गुजरात में स्कूल में सवाल पूछा गया कि गांधीजी ने आत्महत्या क्यों की। आज अगर शंकर जैसा कार्टूनिस्ट होता तो वह भी क्या करता, या लक्ष्मण भी क्या बनाते? रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों का क्या हश्र हो रहा है? जेएनयू, दिल्ली यूनिवर्सिटी, जादवपुर यूनिवर्सिटी जैसे बड़े संस्थानों का क्या हाल हो रहा है? यह सिलसिला जारी रहा तो हमारी उच्च शिक्षा का स्तर गिरते देर नहीं लगेगी।

 

सोच पर हमला

 

एक तरफ हम चांद पर जाने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारे शिक्षा मंत्री कहते हैं कि ज्योतिष से बड़ा और कोई विज्ञान नहीं है। पंडित नेहरू ने कहा था कि भाखड़ा नंगल हमारे नए मंदिर-मस्जिद हैं। उन्होंने कहा था कि वैज्ञानिक सोच पैदा करना बहुत जरूरी है। आज उसी वैज्ञानिक सोच को कुचलने की पूरी कोशिश है। अलग विचार रखने वाले लोग टीवी चैनलों से गायब हो रहे हैं। ऐसे माहौल में लिबरलिज्म कैसे पैदा होगा? अगर हम यही कहेंगे कि हमारे पास पहले ही सब कुछ था, हमें किसी चीज की जरूरत नहीं तो वैज्ञानिक सोच कैसे पैदा होगी? पाकिस्तान और बांग्लादेश हमारे गरीब पड़ोसी हैं। लेकिन बांग्लादेश को देखिए! जमात-ए-इस्लामी जैसी जमातें बांग्लादेश में भी हैं, लेकिन वहां कोई उनको घास नहीं डालता। वहां लोगों में तंगनजरी नहीं है।

 

सामाजिक हिंसा

हिंसा बढ़ने के कई कारण हैं। मेरे विचार से तो हमारा समाज ही हिंसक प्रवृत्ति वाला है। खून बहाने में हमें बिलकुल झिझक नहीं होती। जब सोनिया गांधी को लेकर बात चल रही थी कि वे प्रधानमंत्री पद स्वीकार करेंगी या नहीं, तब शायद ज्योति बसु ने कहा था कि हम बहुत ही हिंसक समाज हैं, और सोनिया शायद डर रही हैं। इसी हिंसा के चलते उन्होंने अपना शौहर खो दिया, सास को खो दिया। हिंसा हमारी फितरत में छुपी हुई है। हम किस तरीके से मारते हैं, उस पर गौर कीजिए। गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़ देते हैं। हमारे भीतर गुरबत का गुस्सा है लेकिन हम उसे सही दिशा नहीं देते। असल मुद्दे पर सोचने के बजाय हम लोगों का ध्यान भटका देते हैं। दलितों और औरतों के सिलसिले में तंगनजरी देख सकते हैं।

 

हमारे नेता जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उससे पता चलता है कि हमारा कितना पतन हुआ है। प्रधानमंत्री की भाषा है कि मैं तो घर में घुसकर मारता हूं, यह मेरी फितरत है। आप सोचिए कि कभी नेहरू यह जुमला बोल सकते थे? आप किसे निशाना बनाते हैं, यह साफ है। आप कहते हैं कि सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन सबका स्वागत है, बस एक कौम है जो सारी बुराइयों की जड़ है। वह है मुसलमान। मुसलमान इतने वर्षों से हैं, लेकिन कभी हिंदुओं को इनसे या इनको हिंदुओं से समस्या नहीं हुई। आज अचानक पता चला कि सारी समस्याओं की जड़ मुसलमान हैं। विभाजन के समय दंगे हुए थे, अब भी बीच-बीच में होते रहते हैं। लेकिन यह हालत नहीं थी जो अब है। एक बेहद बारीक दीवार खड़ी हो गई है। पढ़े-लिखे लोग भी कहने लगे हैं कि कुछ भी हो, राष्ट्रहित तो एक चीज होती है। उनके जेहन में क्या भरा गया, यह समझने में आपको देर नहीं लगेगी। जिनकी तादाद 25 फीसदी भी नहीं है, वे कर क्या लेंगे?

 

पाकिस्तान में भी एक हलका है जिसकी अल्पसंख्यकों के प्रति तंगनजरी है। शिया के खिलाफ, अहमदियों के खिलाफ, हिंदुओं के खिलाफ वहां भी तंगनजरी है, लेकिन उसे इतनी खुली छूट नहीं कि आप पर हाथ उठा दे। यहां चाहे अखलाक का मामला देख लीजिए या पहलू खान का, सब चीज कैमरे में कैद है। वहां का पढ़ा-लिखा तबका अब पछता रहा है। वह समझ रहा है कि हमने अलग होकर गलती की। मौलाना आजाद की किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ अब वहां पढ़ी जाती है। पहले वहां लोग मौलाना आजाद से नफरत करते थे, क्योंकि वे कौमी नजरिए के सबसे बड़े विरोधी थे।

 

एक बार एक कार्यक्रम में मैं, नामवर जी, कुंवर नारायण, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी समेत कई लोग वहां एक कॉन्फ्रेंस में गए थे। हम लोग लाहौर में थे तब अशोक वाजपेयी ने कहा था, “यह बड़ा साफ-सुथरा शहर है। बिलकुल दिल्ली जैसा लगता है।” वहां भी आपको चारों तरफ पीपल, बरगद, शीशम और नीम के पेड़ दिखाई देंगे। खास बात यह है कि बाहर से आने वालों की जितनी मेहमानवाजी वे करते हैं, उतनी हम नहीं कर पाते।

 

कभी-कभी मुझे लगता है कि दोनों मुल्कों में आत्महत्या की प्रवृत्ति पैदा हो गई है। हम अपने आपको तबाह करने पर तुले हैं। इमरान खान इतने बड़े क्रिकेटर रहे हैं, ऑक्सफोर्ड में पढ़े हैं, वे कहते हैं कि हम भी न्यूक्लियर पावर हैं। अरे, आपकी जुबान पर यह बात आई कैसे? अगर आपने परमाणु हमला किया तो क्या आप बचेंगे, या हमने किया तो हम बचेंगे? जिस तरह हम रोज पागलपन की बातें कर रहे हैं, एक दिन हमारे दिल से डर निकल जाएगा।

 

हम एक बहुत ही अजीबोगरीब समय से गुजर रहे हैं। कोई चीज ऐसी नहीं जिसे हमने दांव पर न लगा रखी हो, चाहे वह शिक्षा हो या संस्कृति। आप मुसलमानों को अलग भी कर दें, तो भी भारत में एक संस्कृति कभी नहीं थी। दक्षिण की संस्कृति अलग है तो पूरब की अलग। बंगालियों की तरह पंजाबी नहीं रहते। इसके बावजूद एक सहिष्णुता थी सबके भीतर। यू.आर. अनंतमूर्ति ने जामिया में एक व्याख्यान में कहा था कि कितनी अजीब बात है कि जिस देश में इतने प्रदेश हैं, इतने तरह के खाने के व्यंजन हैं, वहां हम पिज्जा और बर्गर खाने लगे हैं। हमारे यहां कितनी विविधता रही है। एक दिन मेरे एक मित्र आए। मेरे घर कृष्ण का एक पोर्ट्रेट लगा था। मेरे यहां से जाने के बाद उन्होंने फोन पर बातचीत के दौरान उस पोर्ट्रेट का जिक्र किया और कहा कि मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने कहा कि देखिए, हम जहां के रहने वाले हैं वहां दशहरा मिलन या ईद मिलन सब साथ मनाते हैं। जन्माष्टमी की रौनक शबे-बरात जैसी दिखाई देती थी।

 

पाकिस्तान जाता हूं तो कभी-कभी उकता जाता हूं। मैं उनसे कहता हूं, आपके यहां तो एक ही तरह का खाना मिलता है। इंतजार हुसैन हिंदुस्तान आते थे तो उन्हें यहां की विविधता अच्छी लगती थी। लेकिन अब हम यही चाहते हैं कि सब लोग एक तरह का खाना खाएं। एक तरह के कपड़ों पर तो अभी हम नहीं आए हैं, शायद इसलिए कि हमारे प्रधानमंत्री जी कपड़ों के बहुत शौकीन हैं। मेरा ख्याल है कि हम विनाश की ओर जा रहे हैं। वह बहुत ही तकलीफदेह हिंदुस्तान होगा, जिसका मुकाबला आप उस हिंदुस्तान से नहीं कर सकते जो हमारी यादों में बसा है। हर सोसायटी की एक खास महक, एक खास संस्कृति होती है, वह धीरे-धीरे खत्म हो रही है।

 

एक वकील साहब थे, हिंदू थे। उन्होंने बताया कि दिवाली में उनके घर सबसे पहले आने वालों में मेरे वालिद होते थे। उनकी पत्नी हर साल मेरे वालिद का इंतजार करती थीं। अब ऐसा माहौल कहां रह गया है। गांवों तक में जहर इस तरह बोया जा चुका है कि इस पर काबू पाना बड़ा मुश्किल है। यह ऐसा जिन्नात है जिसे हमने बोतल से निकाल तो लिया, लेकिन अगर हम इसे फिर उसी बोतल में डालना चाहें तो नहीं डाल पाएंगे। जैसा पाकिस्तान में हुआ। वहां एक बार आतंकवादियों को खुली छूट दे दी, फिर क्या हुआ? वहां ओसामा बिन लादेन पैदा हो गया।

 

राजनीति बदले

 

एक समाधान है राजनीति के असर से आजादी। अलगाववाद की राजनीति को इजाजत नहीं होनी चाहिए। चाहे उसके लिए हमें कानून बनाना पड़े। अभी तो स्थिति यह है कि कोई कुछ भी कह सकता है। आप किसी की जुबान बंद नहीं कर सकते। पॉलिटिक्स में एक तरह का लालच पैदा हो गया इसलिए भ्रष्टाचार बहुत है। पॉलिटिक्स सिर्फ नाजायज तरीके से पैसे कमाने का जरिया रह गया है। उसके लिए चाहे जो करना पड़े, चाहे फसाद ही क्यों न करवाना पड़े।

 

मैंने अयोध्या में भी देखा है कि लोग वहां किस तरह मिलजुल कर रहते थे। वह दुनिया ही दूसरी थी। अयोध्या में थोड़े मुसलमान रहते थे लेकिन उन्हें कोई डर नहीं था। उनके होटल और दुकानें थीं। पूजा-पाठ का सारा सामान बनाने वाले वही थे। जिन इलाकों में मुसलमानों की बड़ी आबादी नहीं होती थी, वहां भी मुसलमानों को डर नहीं होता था। अब तो हिंदी के एक जाने-माने लेखक ने एक दिन मुझसे कहा कि मैं रेल से जाने में डरता हूं कि कहीं किसी ने पहचान लिया तो मेरे ऊपर हमला न हो जाए। कुछ दिनों पहले अमेरिका से मेरे एक दोस्त आए थे।

 

आसनसोल में उनकी एक बहन रहती हैं। उनकी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि दिल्ली से रेल से आसनसोल चले जाएं। आखिर जुनैद जैसे वाकये यहीं तो हुए। यह जो स्थिति बनी है उस पर पाबंदी लगनी चाहिए। इस तरह की तकरीर पर, इस तरह लिखने-बोलने पर पाबंदी लगनी चाहिए। इसके लिए कानून बनाइए, लोगों में कानून का डर पैदा कीजिए। लेकिन जो कानून बनाता है वही नहीं डरता तो आम लोग कैसे डरेंगे।

 

दूसरा उपाय है शिक्षा। इसके साथ हम जो मजाक कर रहे हैं वह बड़ा भयानक है। वह तो हमारी तादाद इतनी बड़ी है कि जीनियस पैदा हो जाते हैं। लेकिन धीरे-धीरे ये भी किनारे किए जा रहे हैं। भारतीय विदेशों में हॉस्टल में रहकर खुश हैं, लेकिन यहां नहीं आना चाहते। क्यों?

 

 

-- मुझे लगता है कि एक दूसरा पाकिस्तान इस तरह वजूद में आ जाएगा जिसे आप हिंदू पाकिस्तान कह सकते हैं

-- एक बेहद बारीक दीवार खड़ी हो गई है। पढ़े-लिखे लोग भी कहने लगे हैं कि कुछ भी हो, राष्ट्रहित तो एक चीज होती है

-- ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों में आत्महत्या की प्रवृत्ति पैदा हो गई है। हम अपने आपको तबाह करने पर तुले हैं

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