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राजनीति और कूटनीति

हाल के दिनों में विदेश नीति और अर्थनीति में राजनीति का घालमेल कुछ ज्यादा ही दिख रहा
आजकल

भारतीय राजनीति में अभी तक के अपने सबसे मजबूत मुकाम पर पहुंच चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी, दोनों इस समय सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। यह चुनौती जहां कोविड-19 महामारी के लगातार बदतर होते हालात और उस पर नियंत्रण के लिए अपनाई गई रणनीति की खामियों के चलते पैदा हुई है, वहीं पहली बार देश की अर्थव्यवस्था अपने सबसे खराब प्रदर्शन की ओर बढ़ रही है। लद्दाख में चीन के साथ सीमा विवाद का भारी तनाव में बदलना, वहां 20 भारतीय सैनिकों के शहीद होने के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर चीन के सैनिकों का अतिक्रमण और सीमा पर वास्तविक स्थिति को लेकर बार-बार स्पष्टीकरण की नौबत ने सरकार के लिए हालात काफी मुश्किल कर दिए हैं। हालांकि, राजनीतिक मोर्चे पर कांग्रेस के आक्रामक रुख के अलावा बाकी विपक्ष से सरकार को किसी बड़ी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ रहा है, लेकिन जिस तरह से तीनों मोर्चों पर स्थिति संवेदनशील हो रही है वह आने वाले दिनों में राजनीतिक घटनाक्रम और समीकरणों को नए तरह से परिभाषित करेगी, यह लगभग तय है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि जनवरी में देश में कोरोना संक्रमण का पहला मामला आने के बाद से जिस तरह के कदम उठाए गए और जो रणनीति अपनाई गई वह बहुत कारगर नहीं रही है। उस पर सवाल उठ रहे हैं और आने वाले दिनों में जब सरकार के फैसलों की समीक्षा होगी, तब और अधिक सवाल उठेंगे, क्योंकि तब तक बहुत कुछ जानकारी और नतीजे लोगों के सामने होंगे। मसलन, जिस तरह से कुछ घंटों के नोटिस पर 21 दिन का पहला लॉकडाउन लागू किया गया, वह यह साबित करता है कि केंद्र और राज्यों के बीच कोई तालमेल नहीं था और न ही उसके बाद पैदा होने वाली स्थिति से निपटने की कोई पुख्ता तैयारी थी। यही वजह है कि जब लाखों प्रवासी श्रमिक अपने घरों को लौटने लगे, तो घर पहुंचने की जद्दोजहद में सैकड़ों लोगों की जान चली गई। साथ ही भारत उन देशों में खड़ा दिखा जहां सबसे अधिक गुरबत में जीने वाले लोग बिना किसी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के अचानक अनिश्चितता में फंस गए। बिना किसी रोजगार और आश्रय के लाखों लोगों को कष्ट झेलना पड़ा। इसमें केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों की भी नाकामी नजर आई और आखिर में कई माह बाद सुप्रीम कोर्ट को भी इसमें दखल देना पड़ा। कोविड महामारी के दौर में जहां केंद्र और राज्यों के बीच संघीय ढांचे की कमजोरियां दिखीं, तो साथ ही राजनीतिक कड़वाहट भी बढ़ी। लेकिन कुछ नए राजनीतिक समीकरण भी बनते दिखे। मसलन, दिल्ली में भाजपा की मुखर विरोधी आम आदमी पार्टी ने शुरुआती हीला-हवाली के बाद केंद्र का रास्ता अख्तियार कर लिया। जिस तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने नीतिगत मसलों और राजनीतिक विचारधारा के मामले में खुद को बदला है, उससे लगता है कि वह भाजपा के करीब सोच वाली पार्टी के रूप में ही दिखने लगेगी। दिल्ली दंगों के दौरान, उसके बाद की स्थिति और लॉकडाउन में पुलिस की कार्रवाई जैसे मसलों पर जिस तरह का रवैया आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का रहा है, वह इसी तरह का संकेत देता है। केजरीवाल कुछ-कुछ बसपा प्रमुख मायावती जैसा रवैया ही दिखा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदार बसपा सत्तारूढ़ भाजपा के बजाय विपक्ष पर ज्यादा हमलावर दिखती है। जहां तक दूसरे विपक्षी दलों की बात है, तो सबसे मुखर विरोध कांग्रेस कर रही है। उसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस ज्यादा हमलावार दिखती हैं, क्योंकि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा पश्चिम बंगाल पर बड़ा दांव लगा रही है। बाकी विपक्षी दलों की बात करें तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी भी खास सक्रिय नहीं दिख रही। मामला महामारी से निपटने का हो, प्रवासी मजदूरों की वापसी का या फिर खराब आर्थिक हालात के चलते बेरोजगारी का रिकॉर्ड स्तर हो, इन सभी पर समाजवादी पार्टी और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव ट्विटर पर तो काफी सक्रिय दिखे, लेकिन जमीन पर कहीं नजर नहीं आए। हालांकि, कोविड महामारी के चलते राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत नहीं है, लेकिन कांग्रेस ने इसके लिए तरीके खोज निकाले हैं। वह रोजाना अलग-अलग मुद्दों पर सरकार को घेरती नजर आती है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस की गठबंधन सरकार करीब-करीब सही दिशा में चल रही है और वहां यह गठबंधन भाजपा को कोई मौका नहीं दे रहा है। इसके पीछे एनसीपी प्रमुख शरद पवार का राजनीतिक कौशल और प्रभाव काफी हद तक कारगर माना जा रहा है।

ऐसे में आने वाले दिनों में राजनीतिक स्तर पर कई तरह के समीकरण उभर सकते हैं। इसकी पहली परीक्षा नवंबर में संभावित बिहार विधानसभा चुनावों में होने जा रही है। यह चुनाव साबित करेंगे कि जिन तीन मोर्चों पर मोदी सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा लड़ रही है, वहां उसकी रणनीति कितनी कारगर साबित हो पा रही है।

राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों में कुछ मसलों पर एक राय होना जरूरी है और उसमें विदेश नीति और अर्थनीति सबसे अहम हैं। अगर हम इन मोर्चों पर मजबूत होते हैं तो चीन द्वारा पैदा किया गया सीमा विवाद हो या वैश्विक महामारी से पैदा हुआ आर्थिक संकट, दोनों को हल करने की दिशा में बेहतर तरीके से आगे बढ़ सकते हैं। माना जाता रहा है कि विदेश नीति दीर्घकालिक होती है, इसलिए इसमें घरेलू राजनीतिक फायदे-नुकसान नहीं देखने चाहिए। इसी तरह, आर्थिक नीतियों में जरूरत से ज्यादा राजनीति का घालमेल नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे कई तरह की पेचीदगियां पैदा हो जाती हैं। लेकिन हाल के दिनों में विदेश नीति और अर्थनीति, दोनों में राजनीति का घालमेल कुछ ज्यादा ही दिखने लगा है। उदाहरण के तौर पर देखें, तो इन दिनों कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआइआइ) से ज्यादा कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) को तवज्जो मिलने लगी है। मौजूदा हालात में चीन में बनी वस्तुओं के खिलाफ जिस तरह से कैट अभियान चला सकता है, वह सीआइआइ नहीं कर सकता। यह फर्क इसलिए है क्योंकि कैट ट्रेड की संस्था है और सीआइआइ इंडस्ट्री की। सच तो यह है कि अगर वाकई चीन जैसी चुनौती का सामना करना है, तो ट्रेड नहीं, इंडस्ट्री की ज्यादा जरूरत है।

दरअसल, ‘बायकॉट चीन’ की बात करने वाले जमीनी हकीकत से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा जरूर 60 अरब डॉलर से ज्यादा का है, लेकिन चीन के कुल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी करीब दो फीसदी ही है। चीन का वैश्विक व्यापार में हिस्सा 13 फीसदी है जबकि भारत का हिस्सा मात्र 1.7 फीसदी है। देश के स्मार्टफोन बाजार में चीन की कंपनियों की हिस्सेदारी 70 फीसदी से ज्यादा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय कंपनियां अपने अधिकांश उपकरण चीन से आयात करती हैं। फार्मा इंडस्ट्री अपने एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इनग्रेडिएंट्स की 65 फीसदी से ज्यादा जरूरत चीन से ही पूरी करती है। यही स्थिति पेस्टीसाइड इंडस्ट्री की है। हाल के कुछ बरसों में स्थापित पावर प्लांट में तमाम बड़े उपकरण चीन से आयात किए गए हैं। भारत का सोलर पावर का मिशन भी चीन के उपकरणों के सहारे ही आगे बढ़ रहा है। देश के तमाम बड़े स्टार्टअप में चीन का भारी निवेश है। इसलिए हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि जो सामान दिल्ली के सदर बाजार में सस्ती कीमतों पर मिलता है, वही चीन से आता है। केवल नारे और प्रदर्शनों या चीन के उत्पादों को लेकर प्रदर्शन से यह स्थिति बदलने वाली नहीं है। इसके लिए दीर्घकालिक आर्थिक नीति की दरकार है। भारतीय कॉरपोरेट को केवल ट्रेडर वाली मानसिकता से बाहर निकलकर बेहतर और प्रतिस्पर्धी कीमतों वाले उत्पाद विकसित कर बाजार पर कब्जा करना होगा। पहले खुद को अंदर से मजबूत करना होगा, तभी हम चीन का आर्थिक मोर्चे पर मुकाबला कर सकेंगे। इसके लिए हमें देश के किसानों से सीखना होगा। कृषि उत्पादों के मामले में हम सरप्लस की स्थिति और प्रतिस्पर्धी इसलिए हैं क्योंकि किसान मिट्टी में मिट्टी होकर मेहनत करता है। राजनीतिक दलों को राजनीति किनारे रख दीर्घकालिक नीति पर चलना होगा। वह नीति केवल मुनाफा कमाने के लिए लेनदेन तक सीमित रहने वाली ट्रेडिंग की नहीं हो सकती है।

दूसरा मसला विदेश नीति का है जहां राजनीतिक सहमति की जरूरत है। अगर हम छह साल की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर गौर करें तो घरेलू राजनीति और विदेश नीति के बीच काफी करीबी रिश्ता मिल जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ व्यक्तिगत रिश्तों की बात हो, अमेरिका में ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम हो या फिर भारत में ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम, इन सबको घरेलू राजनीति से जोड़ने की कोशिश की गई। चीन के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ प्रधानमंत्री की केमिस्ट्री भी कई साल से दिख रही है। पहली बार उनको अहमदाबाद की यात्रा पर आमंत्रित किया गया था। उसके बाद भी कई अनौपचारिक वार्ताएं हुईं, जिसे राजनीतिक तौर पर भुनाने की कोशिश की गई। लेकिन चीन से भारत को जो मिला उस पर पूरे देश में बहस छिड़ गई है। लद्दाख में जो हुआ, जिस तरह भारत के 20 सैनिक शहीद हुए और दस सैनिकों को बंधक बनाने के बाद रिहा किया गया, उसका राजनीतिक नुकसान प्रधानमंत्री को उठाना पड़ सकता है।

दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी इन दिनों अपने दोनों कार्यकाल में सबसे बड़े राजनीतिक संकट से गुजर रहे हैं। अगर चीन के साथ ताजा सीमा विवाद पर वह कोई सकारात्मक हल नहीं निकाल पाते हैं तो उनकी कार्यशैली और विदेश नीति ही नहीं, बल्कि रक्षा मामलों की नीति पर भी सवाल उठते रहेंगे। सुकून की बात है कि सभी विपक्षी दल सीमा विवाद में सरकार के साथ खड़े हैं, हालांकि कांग्रेस पार्टी और इसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी इस मसले पर प्रधानमंत्री और सरकार पर हमलावर हैं। इसमें दो राय नहीं कि इस मसले पर सरकार की ओर से जिस तरह सूचनाएं सार्वजनिक की गईं और बयान जारी किए गए, उससे स्थिति स्पष्ट होने के बजाय और उलझ गई। इसलिए सरकार को एक के बाद एक स्पष्टीकरण जारी करने पड़े। यह न सरकार के हित में है और न ही सरकार चला रही भाजपा के हित में, क्योंकि जहां प्रधानमंत्री मोदी को एक मजबूत नेतृत्व और सख्त फैसले लेने वाला व्यक्ति माना जाता है, वहीं भाजपा खुद को राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी झंडाबरदार बताती रही है।

अब चरणबद्ध अनलॉक के जरिए आर्थिक गतिविधियों को खोला जा रहा है, लेकिन तमाम अनुमान बता रहे हैं कि चालू वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था तीन से पांच फीसदी तक सिकुड़ सकती है। इसके चलते आम आदमी के लिए आने वाले दिन काफी मुश्किल भरे होने जा रहे हैं। लेकिन यह मसला राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है। अधिकांश राजनीतिक दल इस पर न तो बात कर रहे हैं, न ही उनके पास सरकार को घेरने की कोई रणनीति है। इसकी एक बड़ी वजह कोविड-19 महामारी को माना जा सकता है। संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं और चंद रोज में संक्रमित लोगों की संख्या पांच लाख के पार चली जाएगी। यह इस पर काबू पाने की रणनीति की नाकामी को साबित करने के लिए काफी है। लेकिन इस दौरान राजनीति भी परवान चढ़ती रही। भाजपा ने लॉकडाउन के ऐन पहले मध्य प्रदेश में कांग्रेस को बेदखल कर अपनी सरकार बनाने में राजनीतिक कामयाबी हासिल की, तो राज्यसभा चुनावों में अधिक सीटें जीतने के लिए वह गुजरात में कांग्रेस विधायकों को तोड़ने में भी सफल रही। यानी वह संसद के ऊपरी सदन में बहुमत के करीब पहुंचने की रणनीति पर पुख्ता तरीके से काम कर रही है। बढ़ते संक्रमण के बीच उसने बिहार विधानसभा चुनावों की तैयारी भी शुरू कर दी है और वर्चुअल रैली के जरिए मतदाताओं तक पहुंच रही है। लेकिन कांग्रेस को छोड़कर बाकी विपक्षी दलों में इस तरह की सक्रियता और रणनीति नहीं दिख रही है। जमीनी स्तर पर राजनीतिक गतिविधियों की इस समय गुंजाइश भी नहीं है। इसका फायदा भाजपा को मिल रहा है, भले ही यह तात्कालिक हो। यह तय है कि आने वाले दिनों में कोविड महामारी से पैदा हालात, चीन के साथ सीमा विवाद और आर्थिक मोर्चे पर बदहाली देश की राजनीति पर सबसे अधिक प्रभाव डालेंगे।

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नवंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव संभावित हैं, तभी इस बात का पता चलेगा कि तीन प्रमुख मोर्चों पर मोदी सरकार और भाजपा की रणनीति कितनी कारगर है

 

 

‘बायकॉट चीन’ की बात करने वाले जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 60 अरब डॉलर से ज्यादा, लेकिन चीन के कुल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ दो फीसदी

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