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आपदा, अवसर और स्वावलंबन

जब देश और दुनिया में स्थितियां सामान्य थीं, तो स्वावलंबन को मजबूत करने से किसने रोका था और जब नीतियां बेहतर थीं तो करोड़ों गरीब मजदूरों को पैदल चलकर अपने गांव क्यों लौटना पड़ा
आजकल

महामारी कोविड-19 से पूरी दुनिया लड़ाई लड़ रही है और हमारा देश भी अब चौथे लॉकडाउन की तरफ बढ़ रहा है। तीसरा लॉकडाउन 17 मई को समाप्त हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को अपने संबोधन में साफ संकेत दिया कि लॉकडाउन जारी रहेगा, लेकिन कुछ ज्यादा छूट मिल सकती है। इसके लिए उन्होंने नए ‘रंग-रूप’ शब्द का इस्तेमाल किया। हो सकता है कि यहां रंग से मलतब जिंदगी के कुछ रंग लौटाने से हो, क्योंकि लगातार करीब दो माह तक घरों में कैद रहे लोगों में बाहर निकलने की छटपटाहट और मजबूरी दोनों है। यह काफी अव्यावहारिक भी होती जा रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री ने कोविड को हराने के लिए सबसे पहले 24 मार्च की शाम आठ बजे लोगों से 21 दिन मांगे थे। उन्होंने यह भी कहा था कि महाराभारत 18 दिन में समाप्त हुआ और हम इस लड़ाई को 21 दिन में जीतेंगे।

 इस बीच देश के लोगों ने तमाम दुख और तकलीफें सही हैं। उन्होंने अनुशासन का पालन करते हुए सोशल डिस्टेंसिंग के मूलमंत्र को कोरोनावायरस के संक्रमण से बचने का उपाय मानकर जीवन जिया है। लेकिन अब उन्हें घुटने टेकने पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि इसका एहसास सरकार को भी है। असल में शुरू में सब कुछ जहां का तहां रुक गया था और बाद में सरकारों की बंदइंतजामी, लापरवाही और संवेदनहीनताएं भी सामने आने लगीं, तो लॉकडाउन का लंबा सिलसिला कई तरह की अनिश्चितताओं का सबब बन गया। सबसे पहले धैर्य उन मजदूरों का टूटा जो किसी क्वारंटीन सेंटर, राहत शिविर या खुद के छोटे दड़बों में थे, लेकिन जब अनिश्चितता बढ़ी तो उन्होंने पैदल ही अपने घरों का रुख कर लिया। उसमें सैकड़ों भूख या दुर्घटनाओं में मारे गए और आने वाले दिनों में लाखों के जीवन में कई तरह के कष्ट बढ़ेंगे।

दूसरी ओर, सरकार बड़ा पैकेज तैयार करने में मशगूल रही। मामला बिगड़ता देख राज्यों पर मजदूरों को उनके घर भेजने का दबाव बढ़ गया। उसी मजबूरी के चलते श्रमिक ट्रेनें चलाई गईं। इसमें एक पेच यह भी रहा कि कई राज्यों ने राजस्थान के कोटा के कोचिंग सेंटरों में पढ़ने वाले मध्य वर्ग के परिवारों के बच्चों को बसों में मंगवाया था, जिससे मजदूरों और गरीबों के प्रति असंवेदनशील चेहरा सामने आ गया। उसी को ढंकने के लिए मजदूरों को लाने की कवायद शुरू हुई। लेकिन उनसे किराया वसूलने का मामला भी उठा और केंद्र सरकार ने खुद को उनकी मदद से बाहर कर लिया। श्रमिक ट्रेनें चल रही हैं और मजदूर सड़क पर भी चल रहे हैं, सैकड़ों, हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए। ऐसे में एक बार फिर हमारे देश की कमजोरी खुल गई और करोड़ों लोगों की बदहाल तसवीरों ने हमें अफ्रीकी देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया।

इस बीच संक्रमित लोगों और मौतों की संख्या बढ़ती गई। लोगों के जीवन को पटरी पर लाने के लिए बढ़ते दबाव के चलते कई तरह की गतिविधियों की छूट दी गई, लेकिन अभी भी कुछ राज्यों के बीच सीमाएं ऐसे सील हैं जैसे दो देशों के बीच होती हैं। अर्थव्यवस्था की बदहाली से बेरोजगार हो रहे लोगों के भयावह आंकड़े आ रहे हैं। यह सिलसिला असंगठित क्षेत्र और छोटी कंपनियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बड़े कॉरपोरेट भी छंटनी कर रहे हैं। उधर, केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल के अभाव में भारी विवाद भी सामने आ रहे हैं, जो देश के संघीय ढांचे के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

इस सबके बीच एक बार फिर 12 मई को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की। इससे कैसे जिंदगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी, उसकी जानकारी की पहली किस्त 13 मई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण लेकर आईं, जिसमें बहुत प्रभावी कदम नहीं दिखे। हालांकि यह सिलसिला अगले कई दिनों तक जारी रहेगा। इस बीच सबसे अहम संकट को अवसर में बदलने, देश को आत्मनिर्भर बनाने का प्रधानमंत्री का संकल्प सामने आया। उन्होंने इसके लिए पांच स्तंभों इकोनॉमी, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी, डिमांड और चार मंत्रों लैंड, लेबर, लिक्विडिटी, लॉ में सुधारों की बात की। इससे स्वदेशी का एजेंडा आगे बढ़ेगा। लेकिन कई सवाल अनुत्तरित हैं कि क्या हम इस संकट के बाद अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को इतना मजबूत करेंगे कि देश के लोगों के जीवन को बचाने की स्थिति बेहतर हो जाए? क्या हम अपने जीवन की जरूरतों और रक्षा जरूरतों को भी देश में बनने वाले उत्पादों से पूरा कर सकेंगे? वैसे जब हमारे तमाम राज्य विदेशी निवेश के लिए अलग डेस्क बना रहे हैं तो वैश्वीकरण के इस माहौल में आत्मनिर्भर होने की बात करना क्या मृग-मरीचिका जैसा नहीं है।

इसे मेक इन इंडिया को मजबूत करने और आर्थिक सुधारों के लिए मौका बताने वालों को यह भी बताना चाहिए कि जब देश और दुनिया में स्थितियां सामान्य थीं, तो स्वावलंबन को मजबूत करने से किसने रोका था और जब नीतियां बेहतर थीं, तो करोड़ों गरीब मजदूरों को पैदल चलकर अपने गांव क्यों लौटना पड़ा। इस घर वापसी की वजहों को हल किए बिना स्वावलंबन की बात ख्यालीपुलाव जैसी लगती है।   

  @harvirpanwar

 

 

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