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संतुलित रवैया जरूरी

केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल हो और फैसले ऐसे हों जो महामारी से जिंदगियां और आजीविकाएं दोनों बचाने के बीच संतुलन बना सकें। क्षुद्र राजनीति और कुत्सित सांप्रदायिक कोशिशें देशहित में नहीं
आजकल

महामारी कोविड-19 से पूरा देश एकजुट होकर लड़ रहा है और उसने दुनिया के 78 देशों में लागू लॉकडाउन में, सबसे सख्त लॉकडाउन में सरकार को पूरा सहयोग दिया, क्योंकि लड़ाई जिंदगी बचाने की है। अभी यह लड़ाई जारी है, सिर्फ हमारे देश में नहीं, बल्कि दुनिया भर में कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक इसका इलाज या टीका विकसित नहीं कर लिया जाता। हो सकता है कुछ माह या साल भर तक लोगों की जिंदगी कुछ अलग तरीके से चले, जिसमें सोशल डिस्टेंसिंग से लेकर संक्रमण से बचने की सावधानियां शामिल हों। आंशिक लॉकडाउन, कंटेनमेंट, रेड और ग्रीन जोन जैसे क्षेत्र बनते-बदलते रह सकते हैं। जाहिर है, दुनिया में ऐसा दौर मौजूदा पीढ़ियों ने नहीं देखा है। ऐसे असामान्य दौर में सरकारों के फैसले भी असाधारण ही होने थे। लेकिन हर देश और समाज की अपनी संरचना और प्रकृति है, इसलिए एक ही तरह का फॉर्मूला हर जगह कारगर नहीं हो सकता। जो अमेरिका, यूरोप या चीन में हुआ, वैसा ही हमारे यहां भी हो, यह संभव नहीं है। हमारा देश संघीय ढांचे और बहुभाषी, बहुधर्मी, समाज की बहुश्रेणियों और बहुसंस्कृति वाला है। यहां ये बातें कहने की इसलिए जरूरत पड़ रही है क्योंकि महामारी से लड़ने में हमारी मजबूती के साथ कई कमजोरियां भी सामने आई हैं।

केंद्र सरकार ने महामारी से लड़ने के लिए रणनीति बनाने में शुरुआती दौर में राज्यों के साथ बेहतर तालमेल से परहेज किया। पहला 21 दिन का लॉकडाउन जिस तरह से लागू हुआ उसमें राज्य लगभग बिना तैयारी के थे। लिहाजा, मानवीय त्रासदी की तसवीरें देश को दशकों तक बेचैन करती रहेंगी। तालमेल की ऐसी ही खामियां चिकित्सा सामान, पीपीई किट और जांच किट खरीदने के मामले में दिखीं, जिसके नियम बार-बार बदलने पड़े। आर्थिक गतिविधियों के ठप पड़ने के बाद पैदा हालात से निपटने के लिए केंद्र ने कई आदेश जारी किए, जिनमें उतनी ही तेजी से बदलाव करने पड़े। राजस्व स्रोतों के लगभग सूख जाने से राज्य प्रधानमंत्री के साथ लगभग हर बैठक में केंद्रीय करों में अपनी हिस्सेदारी और राहत पैकेज का मुद्दा उठाते रहे हैं। लॉकडाउन खोलने और जीवन तथा आजीविका की पटरी पर वापसी को लेकर ठोस रणनीति और पारदर्शिता की खासी कमी झलक रही है।

इस बीच सबसे बेचैन करने वाला पहलू महामारी में सांप्रदायिकता को जोड़ने का कुत्सित प्रयास रहा। प्रशासनिक और पुलिस की खामियों को सामने लाने के बजाय मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश हुई। यही नहीं, इस बात पर भी सवाल खड़े होने चाहिए कि संक्रमित लोगों की संख्या में तबलीगी जमात के लिए अलग से कॉलम बनाने की जरूरत क्यों पड़ी। दिल्ली सरकार ने कई सप्ताह तक इस तरह के आंकड़े अलग से बताए और केंद्रीय अधिकारियों की ब्रीफिंग में भी यह जानकारी साझा की गई। संचार माध्यमों और खासकर टीवी न्यूज चैनलों ने इस मुद्दे को काफी हवा दी। नतीजतन, एक समुदाय को लेकर लोगों की सोच प्रभावित हुई। यही नहीं, कुछ चुनिंदा जनप्रतिनिधियों ने भी समुदाय विशेष से दूरी बनाने के विवादास्पद बयान तक दिए। ऐसे लोगों को जनप्रतिनिधि बने रहने का कोई हक नहीं है। यही वजह है कि खुद प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि वायरस किसी जाति-धर्म को नहीं देखता है। इस तरह की स्थिति हमारी कमजोरी को उजागर करती है और महामारी के इस संकट में यह देशहित में नहीं है।

कई मामलों में यह भी साबित होता है कि केंद्र सरकार कोई पुख्ता रणनीति नहीं बना पा रही है। मसलन, सरकार के दावे के मुताबिक बीमारी काबू में है और वह लॉकडाउन से बाहर निकलने की सोच रही है तो पारदर्शी तरीके से चरणबद्ध प्लान लोगों के साथ साझा करने में क्या बुराई है। उधर, हालात लगातार बुरे होते जा रहे हैं। आर्थिक संकट से केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने खर्चों और वेतनभत्तों में कटौती जैसे कदम उठाए हैं। देश में बेरोजगारों की संख्या रिकार्ड 12 करोड़ तक पहुंच गई है। केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों को लेकर काफी खींचतान चल रही है। असल में, जीएसटी व्यवस्था लागू होने के बाद राज्यों के पास शराब की बिक्री से एक्साइज शुल्क, स्टॉम्प ड्यूटी और पेट्रोलियम उत्पादों पर राज्यों में लगने वाला वैट ही उनका मुख्य राजस्व स्रोत है। लेकिन लॉकडाउन में यह ठप-सा है।

इसके अलावा लगातार घरों में बंद रहने से बड़ी संख्या में मानसिक बीमारियों के संकेत मिलने लगे हैं। शिक्षण संस्थानों की बंदी से पढ़ाई-लिखाई भी ठप-सी है। पूरा फोकस कोविड-19 पर होने के चलते दूसरी बीमारियों से ग्रसित लोगों के इलाज तो हो ही नहीं रहे हैं। ऐसे मरीजों के लिए दिक्कतें बढ़ सकती हैं।

वक्त का तकाजा है कि केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल हो और फैसले ऐसे हों जो महामारी से जिंदगियां और आजीविकाएं दोनों को बचाने के बीच संतुलन बना सकें। इसमें चूक होती है तो कहीं ऐसा न हो कि बीमारी से ज्यादा इलाज महंगा पड़ जाए।

  @harvirpanwar

 

 

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