Advertisement

भारत और इंडिया

बिना व्यापक योजना के महज चार घंटे की मोहलत पर 21 दिनों के लॉकडाउन के ऐलान से जो तसवीर उभरी वह देश की गलत प्राथमिकताओं को दर्शाती है
आजकल

यह मानवीय त्रासदी है, जो हमारे प्रशासकों ने देश के गरीब तबके पर थोप दी है। सरकार ने कोरोनावायरस से फैलने वाली बीमारी कोविड-19 की रोकथाम के लिए देश भर में 24 मार्च की आधी रात से 21 दिन का लॉकडाउन किया। उसके बाद जो तसवीर उभरी, उसकी शायद किसी ने कल्पना न की होगी। ‘न्यू इंडिया’ की बुलंद होती तस्वीर को कमजोर ‘भारत’ की असलियत ने ढंक दिया। इस फैसले से देश के करोड़ों लोगों को अचानक बेरोजगारी के संकट, रहने और भोजन की किल्लत और घर से दूर किसी अनहोनी की आशंका ने घर वापसी के लिए मजबूर कर दिया। नोटबंदी के बाद फिर साबित हो गया कि बिना किसी ठोस तैयारी के अचानक रात के आठ बजे केवल चार घंटे के नोटिस पर प्रधानमंत्री का फैसला कई दूरगामी संकटों को जन्म दे सकता है। हालांकि सरकार ने अभी भी खुलकर स्वीकार नहीं किया है कि नवंबर, 2016 का नोटबंदी का फैसला देश की अर्थव्यवस्था, छोटे कारोबारी, गरीब, मजदूर और कृषि के लिए घातक साबित हुआ था, उसके बाद से घिसटती अर्थव्यवस्था के आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं।

 21 दिन का लॉकडाउन कहीं ज्यादा प्रतिकूल असर वाला साबित होगा क्योंकि जिस तरह दिल्ली, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दूसरे महानगरों में गरीब, मजदूर और निम्न मध्य वर्ग के लोग बिना किसी परिवहन साधन के अपने परिवारों को लेकर सड़कों पर निकल पड़े, उससे यह साबित होता है कि जीवन की अनिश्चितता का भय उनके लिए महामारी के भय से भी भयानक है। असल में हमारे सत्ताधारी नेता और प्रशासनिक मशीनरी लोगों की मनःस्थिति को नहीं समझ रही है। घर वापसी करने वाले लोग मेहनत-मजदूरी कर अपने परिवार चलाते हैं। इनकी परवाह तो नहीं की गई लेकिन इसके विपरीत विदेश से लौटने वाले रसूखदारों की तीमारदारी के लिए क्वारेंटाइन जैसी कई व्यवस्‍थाएं तत्परता से की गईं। 

 खैर, इतना बड़ा कदम उठाने के पहले व्यापक तैयारी और केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच बड़े तालमेल के साथ वित्तीय संसाधनों की जरूरत थी, जिस पर काम नहीं किया गया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वव्यापी कोरोनावायरस महामारी के नतीजे देश के लिए घातक हो सकते हैं। क्योंकि हमारे संसाधन सीमित हैं इसलिए बचाव ही उपाय है और लॉकडाउन जैसा कदम सोच-समझकर उठाया जाना चाहिए था। हालांकि केरल और वहां की स्वास्थ्य मंत्री इसका अपवाद हैं। केंद्र ही नहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी संवेदनशीलता का परिचय नहीं दिया।

हम भले ही पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनने का ढोल पीटते रहें, सच्चाई यह है कि हम स्वास्‍थ्य संबंधी ढांचे में दुनिया में सौवें स्थान से भी नीचे हैं। 2016-17 के आर्थिक सर्वे में बाकायदा रेलवे के आंकड़ों के आधार पर कहा गया था कि हर साल 90 लाख प्रवासी मजदूर काम के सिलसिले में देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाते हैं। तमाम रिपोर्ट बताती हैं कि देश के असंगठित क्षेत्र के करीब 50 करोड़ लोगों में से 90 फीसदी से ज्यादा श्रमिकों की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है और न ही वे कहीं पंजीकृत हैं। लंबी जद्दोजहद के बाद 1.7 लाख करोड़ रुपये का जो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज घोषित किया गया है, अधिकांश गरीब उस पैकेज से बाहर रह जाएंगे। यह पैकेज देश के जीडीपी का केवल 0.8 फीसदी है, जबकि अमेरिका ने 2.2 ट्रिलियन डॉलर का पैकेज घोषित किया है जो वहां की जीडीपी का दस फीसदी है। लेकिन हमारी सरकार चाहती है कि उससे अधिक जिम्मा देश के लोग उठाएं। तभी तो पुख्ता कदमों के बजाय ज्ञान ज्यादा दिया जा रहा है। इसमें भी बाकी देशों के मुखिया और स्वास्‍थ्य मंत्री लगभग रोज नए-नए उपायों के साथ लोगों को आश्वस्त करते दिख रहे हैं जबकि हमारे स्वास्‍थ्य मंत्री सीन से ही गायब हैं। 

असल में आजादी के 73वें साल में भी हम देश की अधिसंख्य जनता को जीविका का स्थायित्व नहीं दे सके हैं। हमारी सरकारों की प्राथमिकताएं गलत रही हैं। अभी भी देश में दस हजार लोगों पर केवल सात हॉस्पिटल बेड हैं। हमारी सरकार जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी ही स्वास्थ्य पर खर्च करती है। पिछले कुछ बरसों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी अनदेखी की गई और निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया। तभी तो आज देश के कुल हास्पिटल बेड में 51 फीसदी निजी क्षेत्र में हैं। कोरोना जैसी महामारी का सामना बिना सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के नहीं किया जा सकता है। त्रासदी यह भी है कि जो गरीब मजदूर जीवन को जोखिम में डालकर गावों में पहुंचे हैं, उनमें कुछ संक्रमित हुए तो इलाज भी शहरों में हैं।

ऐसे में, जमीनी हकीकत समझकर हमें विकास के मॉडल को बदलने पर विचार करना होगा। एक्सप्रेस-वे, एयरपोर्ट, एलिवेटेड रोड और सेंट्रलविस्ता जैसी परियोजनाओं का मॉडल कारगर नहीं है। इसके बदले ग्रामीण भारत और छोटे कस्बों और शहरों में रोजगार के मौके बढ़ाने, स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करने का मॉडल अपनाना होगा, जिससे भारत और इंडिया के बीच खाई कम की जा सके।

  @harvirpanwar

Advertisement
Advertisement
Advertisement