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संगीत पर गीतमय उपन्यास

मृणाल पांडे ने इस उपन्यास में शास्त्रीेय संगीत की मौजूदा स्थिति और उसकी कई उप-धाराओं को जीवित रखने में तवायफों की भूमिका को विषय बनाया है
सहेला रे

अध्यापन, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता, नाट्यलेखन और स्‍त्रीवादी विमर्श में पर्याप्त योगदान दे चुकी मृणाल पांडे का छठा उपन्यास सहेला रे दिवंगत गायिका किशोरी अमोनकर की एक चर्चित प्रस्तुति की पहली पंक्ति से शुरू जरूर होता है पर यह पिछले सवा-डेढ़ सौ साल के हिंदुस्तानी शास्‍त्रीय संगीत के ऐसे पक्ष को सामने लाता है जिसे जानते सब थे पर ढंग से बात रखने और उसके महत्व को रेखांकित करने का शऊर किसी में नहीं था। मृणाल पांडे ने इस उपन्यास में शास्‍त्रीय संगीत की मौजूदा स्थिति और उसकी कई उप-धाराओं को जीवित रखने में तवायफों की भूमिका को विषय बनाया है। उन्होंने नए किस्म के जबरदस्त फॉर्मेट और नई भाषा और विषय के साथ इसे प्रस्तुत किया है। पिछले दिनों इसी विषय के शोध पर आधारित उनकी किताब ध्वनियों के आलोक में भी आई है। यह उपन्यास न सिर्फ उसका विस्तार और कथारूप है बल्कि इस दौर के पूरे संगीत जगत की बेहतरीन तस्वीर पेश करता है। हमारी आंखों के सामने वह दुनिया इस तरह आती है जैसी पहले कभी नहीं आई। मृणाल जी संगीत की अच्छी जानकार हैं, शायद दूसरी किसी विधा से अच्छी, सो उन्होंने उपन्यास में संगीत का सम बनाकर रखा, उसे बेसुरा नहीं होने दिया।

उपन्यास के केंद्र में अंग्रेज बाप और पहाड़ी बारी जाति की गायिका की शादी से जन्मी अंजली बाई और उसकी मां हीरा की कहानी है। ‘क्रिस्तान’ बनकर संपत्ति से बेदखल हुई महिला और उसकी बेटी के संघर्ष, संगीत प्रेम, तवायफ और संगीत बाजार के लटके-झटके सीखने के कौशल और सफलता के साथ उसकी कथा सुनाने वाली सहेली/गायिका की पीढ़ी के साथ बदलती चार पीढ़ियों की यह विस्तृत कथा है। इसमें नैनीताल, बनारस, कलकत्ता, बम्बई और अमेरिका जैसे सभी ठिकाने तो आए ही हैं, इन सौ-डेढ़ सौ साल के शास्‍त्रीय संगीत का लगभग हर बड़ा-छोटा पात्र कम-ज्यादा महत्व के साथ विराजमान है। किसने संगीत को क्या दिया, किसने क्या बिगाड़ा, किसने कमाया, किसने लुटाया जैसे काफी प्रकरण हैं। हीरा कौन है, अंजली कौन है यह समझना जितना आसान या मुश्किल है उससे ज्यादा सुगम इस दौर के सभी प्रमुख पात्रों को पहचानना है। इसमें कोई अपने सच्चे नाम से आया है, कोई छद्मनाम से। उपन्यास पढ़ते हुए बार-बार कुमार मुखर्जी की किताब कुदरत रंग रंगीली और गजेन्द्र नारायण सिन्हा की किताब महफिल की याद आती रही, तो बीते सौ सवा सौ साल के संगीतकारों-गायकों के गायन-वादन से भी ज्यादा उनके जीवन की दिलचस्प छोटी-छोटी कहानियों का खजाना भी है। कई बार लगता है कि ये दोनों लेखक भी कथा का हिस्सा बन गए हैं। कथारूप देने से मृणाल जी को यह सुविधा हो गई है कि ऐसी कहानियों को मनचाहा मोड़ दें या तल्ख प्रकरणों में पात्रों का चरित्र/नाम/स्थान बदल दें।

सहेला रे जैसा उपन्यास है और जैसी इसकी कथावस्तु है वह संगीत जगत की चंद चर्चित हस्तियों के दिलचस्प प्रसंगों को समेटने भर से नहीं संभल सकती थी। गानेवालियों का जीवन, उनके संबंध, उनकी साधना, समाज के हाशिए पर रहकर समाज का इतना बड़ा काम करने की ललक, तब के समाज का व्यवहार, तकनीक और गायन-वादन में आ रहे बदलाव, संगीत का बुनियादी व्याकरण और इतिहास जाने बगैर यह लिखा नहीं जा सकता था। हम मान सकते हैं कि तवायफों के संगीत में योगदानवाली किताब लिखते हुए उन्होंने कुछ पढ़ाई की होगी। दोनों किताबों को पढ़ने के बाद कहा जा सकता है कि उन्होंने काफी पढ़ाई की है, बहुत लोगों से मिली हैं, कई यात्राएं की हैं। उपन्यास में पत्रों के माध्यम से कथा आगे बढ़ाने की तरह संभवत: उनको असल में भी इसी तरह टुकड़ाेें में जानकारियां मिली होंगी।

एक शोधकर्ता लेखिका द्वारा चिट्ठियों के माध्यम से उपन्यास को आगे बढ़ाना जहां जासूसी उपन्यास की तरह परत-दर-परत रहस्य खुलने जैसा आनंद देता है, वहीं हीरा-अंजली के जीवन से इतर कई प्रकरण कुछ ज्यादा पसरने के चलते स्वाद तोड़ते हैं। कलकत्ता के संगीत सम्मेलन में बड़े गुलाम अली साहब वाला प्रकरण नाम बदलने के बावजूद साफ दिखता है पर मूल कथा में क्षेपक-सा लगता है। इसकी तुलना में एक चर्चित सितारवादक की कहानी जिस तरह रंग-रूप बदलकर दी गई है वह आनंद देती है। क्योंकि यह कहानी छोटे-छोटे प्रसंगों में आई है। जिन्हें संगीत का ज्ञान है उन्हें बहुत सारे पात्र और प्रसंग दिलचस्प लगेंगे। कुल मिलाकर हीरा-अंजली की कथा के माध्यम से लेखिका कई बातें कहने में कामयाब हुई हैं। इसमें संगीत में तवायफों का योगदान मुख्य विषय है। जिस तरह कथा कही गई है वह दिलचस्प है। हिंदी के कई प्रयोग, तत्सम के ठीक बाद घोर तद्‍भव या बोलीवाला पद लाना अखरता है। इससे उपन्यास की खूबसूरती में खलल पड़ता है।

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