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नीलाभ को ऐसे याद करें

नीलाभ की एक खूबी थी कि वे राजनीति को नेताओं नहीं, बल्कि समाज की तरफ से जानने और समझने की कोशिश करते थे
स्मृतिः नीलाभ मिश्र (16 जून 1960 - 24 फरवरी 2018)

एक वाक्य का परिचय देना हो, तो यही कहना सटीक है कि नीलाभ मिश्र संपूर्ण पत्रकार थे। नीलाभ कहीं गए थोड़े ही हैं, हम सबके आसपास ही हैं, बने रहेंगे और इस परिचय को अपनी चिरपरिचित मुस्कुराहट के साथ मौन सहमति दे रहे होंगे। नवभारत टाइम्स, पटना से 1986 में नीलाभ ने कॅरिअर की शुरुआत की थी और न्यूजटाइम, आउटलुक और नेशनल हेराल्ड तक की अपनी यात्रा में वे विशुद्ध जनसंवेदी,जनपक्षीय लेखक-पत्रकार ही बने रहे।

आज पत्रकारिता का जो हाल है, उसमें यह रूप बनाए रखना दुष्कर ही था। लेकिन नीलाभ ऐसा कर पाए तो इसकी वजह थी। नीलाभ ने कई काम बहुत खूबसूरती से किए और यही इस तरह की पत्रकारिता को संभव बना पाया। नीलाभ को किताबों से बहुत प्रेम था। वे सभी चीजें पढ़ सकते थे और उन सबको पचा सकते थे। हिंदी-अंग्रेजी और बहुत हद तक संस्कृत साहित्य तो वे पढ़ते ही रहते थे, समाजशास्‍त्र, समाज मनोविज्ञान और राजनीति की नवीनतम किताबें भी वे बहुत मनोयोग से पढ़ते थे। भाषा और सही शब्दों के उपयोग पर वे इसी वजह से जोर दे पाते थे। अर्थनीति राजनीति को नियंत्रित करती है और पिछले तीन दशकों में तो इसने राजनीति के व्यवहार को ही बदल दिया है। इसलिए माइक्रो फाइनेंस जैसे विषय तक को उन्होंने साध रखा था। उनसे बातचीत करते हुए मजा आता था क्योंकि वे उस वक्त और आने वाले दिनों की संभावनाओं के बारे में बात करते हुए बहुत दूर तक चले जाते थे। यह सब करते हुए उनमें ज्ञान को प्रदर्शित करने का तनिक भी उतावलापन नहीं था, वे सामान्य ढंग से सूचनाएं-जानकारियां सामने वाले के सामने परोस देते थे।

लेकिन नीलाभ ऐसा सिर्फ किताबी ज्ञान के आधार पर नहीं करते थे। उनके साथ यात्रा करने में इसलिए आनंद आता था कि वे लोगों से बातचीत के दौरान अपनी इस तरह की जानकारी को दुरुस्त भी करते रहते थे। नवभारत टाइम्स, पटना में तो नहीं लेकिन आउटलुक हिंदी में स्टोरीज करने के दौरान उनके साथ यात्रा करने का यह मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव है। वे सबसे खुलकर बात कर लेते थे। उनका तरीका बहुत सीधा-सरल था लेकिन आम तौर पर लोग इसे अपना नहीं पाते। वे किसी भी तरह के आदमी से आराम से बात करते थे, उससे आम तौर पर बहस नहीं करते थे। ध्यान से सुनने के बाद ही वे अपनी बात शुरू करते थे। यह किसी को स्पेस देना और फिर अपने लिए पर्याप्त स्पेस निकाल लेने का बहुत ही सोचा-समझा तरीका है। ह्यूमन रिसोर्स और प्रोफेशनल एक्टिविटीज के ज्ञानी लोग भारी-भरकम पैसे लेकर इस तरह की बातों की ट्रेनिंग इन दिनों दिया करते हैं। नीलाभ इसे वर्षों से आजमा रहे थे। राजनीति के प्रचलित मुहावरे में कहूं तो बिलकुल अंतिम आदमी तक से संवाद करने, उसका दुख-दर्द जानने, उसे सार्वजनिक कर पाने का नीलाभ का यह तरीका इस मामले में अद्‍भुत था।

नीलाभ राजनीति को नेताओं नहीं, समाज की तरफ से जानने-समझने की कोशिश करते थे। किसी मुख्यालय से निकलकर हाइवे किनारे के ढाबों पर रुक जाने तक ही नहीं, बल्कि वास्तविक रूरल रिपोर्टिंग करने के लिए वे लालायित रहते थे। पॉलिटिकल रिपोर्टिंग में यह बात अनुपस्थित-जैसी हो गई है। आज की भागमभाग जिंदगी में इसका अभाव हो गया है। राजनीतिक संवाददाता अब अपने संपर्कों का गैरपत्रकारीय कामों में ही ज्यादा उपयोग करने लगे हैं। नीलाभ के साथ यह दुविधा नहीं थी। वे किसी भी आयोजन में जाते अवश्य थे और वहां मिली जानकारी का अपने लेखन में उपयोग कर लेते थे। इसीलिए किसी सामान्य सभा से लेकर गंभीर विषय वाले सेमिनारों और शास्‍त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में भी नीलाभ दिख जाते थे, तो यह आश्चर्य की बात नहीं थी। इस दौरान बने सपर्कों से किसी भी तरह का अतिरिक्त लाभ उठाने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की। आज की तथाकथित प्रोफेशनल पत्रकारिता में यह दुर्गुण की तरह है। लेकिन नीलाभ ढर्रे पर चलने वाले थे ही नहीं, वे तो अलग लकीर खींचने वाले थे।

नीलाभ रूढ़ अर्थों में एक्टिविस्ट भी नहीं थे। वे पटना में रहते हुए पीयूसीएल से जुड़े और उसके महासचिव बने। वहां से जयपुर जाने के बाद मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े। सूचना के अधिकार के लिए चले आंदोलन में उन्होंने महती भूमिका निभाई। नर्मदा आंदोलन, छत्तीसगढ़ में आदिवासी आंदोलन वगैरह के लोगों के बीच भी वे सब दिन सक्रिय रहे। यह दोधारी तलवार की तरह था। लेकिन इस राह पर चलते हुए उन्होंने इसे पत्रकारिता में नारा नहीं बनाया। जिस दौर में एक्टिविज्म को पत्रकारीय कॅरिअर के लिए खतरनाक माना जाने लगा है, नीलाभ इस तरह की गतिविधियों और इनसे प्राप्त सूचनाओं का पत्रकारिता में सकारात्मक उपयोग करते रहे। जनपक्षीय पत्रकारिता की आकांक्षा पूरी करने की यह कला आम तौर पर अब कहां पाई जा सकती है? बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि यूपीए शासनकाल के दौरान नरेगा जैसी योजना के लिए कॉन्सेप्ट पेपर तैयार करने वालों में पी साईनाथ, ज्यां द्रेज जैसे लोगों के साथ नीलाभ भी थे।

इसीलिए मुझे लगता है, नीलाभ को मिशनरी पत्रकार के रूप में याद किया जाना चाहिए। शायद इसी रूप में वे याद किया जाना चाहते भी रहे होंगे।

(लेखक आउटलुक हिंदी में कार्यकारी संपादक रह चुके हैं)  

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