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भावनाओं के सागर में डूबता देश

मुझे पुराना जमाना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि मेरे मुताबिक दुनिया पुराने जमाने में आसान थी
भावना बड़ी चीज है!

हमारी उम्र अब वह हो गई है जब हमें पुराने जमाने के लोग कहा जा सकता है। अब पुराने जमाने के लोगों की तरह मुझे भी शिकायत हो गई है कि पुराना जमाना ही अच्छा था। मुझे पुराना जमाना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि मेरे मुताबिक दुनिया पुराने जमाने में आसान थी। उस वक्त यूं था कि अर्थशास्‍त्र, अर्थशास्‍त्र के नियमों से चलता था, विज्ञान के अपने नियम थे जो विज्ञान की किताबों में लिखे होते थे। इतिहास के बारे में माना जाता था कि वह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित होता है और गणित के अपने नियम थे। तब दुनिया आसान थी, अर्थशास्‍त्र समझना हो तो हम किसी अर्थशास्‍त्री को पकड़ लेते थे, इतिहास समझने के लिए इतिहासकार के पास जाते थे। जानवर बीमार हो तो जानवरों के डॉक्टर के पास जाते थे और इंसान बीमार हो तो इंसानों के डॉक्टर के पास। धीरे-धीरे मामला उलझता गया क्योंकि उसमें भावनाएं आ गईं। पहले इतिहास में भावना आ गई। इतिहासकार बताते हैं कि ऐतिहासिक तथ्यों के हिसाब से अमुक दौर बड़ा अच्छा था तो लोगों ने कहा कि नहीं हमारी भावनाएं बताती हैं कि वह दौर बहुत बुरा था। इतिहासकार बताते कि अमुक जगह एक तालाब है तो लोगों ने कहा कि नहीं हमारी भावनाओं के मुताबिक यहां एक मैदान है। सारा इतिहास भावनाओं में डूब गया। यहां तक कि कई सदियां और कालखंड लोगों ने भावनाओं में ही बहा दिए। हमने सोचा कोई बात नहीं, इतिहास से अपना रिश्ता स्कूल के जमाने से ही ठीक नहीं है, बह गया तो बह जाने दो। लेकिन फिर समझ में आया कि सारा ज्ञान-विज्ञान ही भावनाओं की बाढ़ में डूब गया। हमने पढ़ा था कि पेड़ दिन में प्रकाश संश्लेषित करके ऑक्सीजन छोड़ते हैं। तो एक मंत्री जी ने कहा कि पीपल का पेड़ तो दिन-रात ऑक्सीजन ही छोड़ता है। क्योंकि उनकी भावना ऐसी है।

तभी एक और मंत्री नमूदार हुए, उन्होंने कहा कि गाय भी सांस से ऑक्सीजन छोड़ती है क्योंकि उनकी भावना में गाय पवित्र जीव है सो वह कार्बन डाइऑक्साइड कैसे छोड़ सकती है। मुझे अपने स्कूल के जूलॉजी और बॉटनी वाले मास्टरसाहब याद आए, वे क्यों ऐसे भावुक प्राणी नहीं हुए। अब तो सारा अर्थशास्‍त्र ही भावनाओं के पाले में चला गया है। शेयर बाजार तो पुरानी हिंदी फिल्म की हिरोइन जैसा भावुक लगता है, “तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा” गाता हुआ। नोटबंदी का तो सारा खेल ही भावनाओं का था। हद तो यह हो गई कि बजट भी भावनाओं का बजट बन गया है। किसानों को लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य कैसे मिलेगा? जवाब मिलता है, “बात की भावना को समझो।” पैसा तो आता जाता रहता है, भावना बड़ी चीज है। कोई पूछता है कि दस करोड़ परिवारों के स्वास्थ्य बीमा के लिए पैसा कहां से आएगा। जवाब मिलता है, “क्या पैसा-पैसा लगा रखा है, भावना होनी चाहिए।” बड़ा कंफ्यूजन है और यह भी नहीं पता कि इस कंफ्यूजन को दूर करने किसके पास जाएं।

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