Advertisement

विचारों और बाजार का खुला मंच

ग्यारहवें जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हर रंग-पात के साहित्यकर्मियों और श्रोताओं की रिकॉर्ड हिस्सेदारी ने इसकी अहमियत साबित की
अपने-अपने ख्यालातः नवाजुद्दीन सिद्दीकी और नंदिता दास

जनवरी 25 विवादास्पद फिल्म पद्मावत रिलीज होने की घोषित तारीख थी। इसी दिन जयपुर में बहुचर्चित जेएलएफ (जयपुर लिटफेस्ट या साहित्योत्सव) का उद्‍घाटन भी होना था। जेएलएफ के एक सेशन में सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी की हिस्सेदारी एक अलग तरह के तनाव की स्थिति बनाए हुए थी। पद्मावत जयपुर या राजस्‍थान के सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हुई। हालांकि जयपुर में लोग सिर्फ आठ रुपये में पायरेटेड डीवीडी से फिल्म का आनंद उठा रहे थे। प्रसून जोशी ने आयोजकों को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया, “मैं नहीं चाहता मेरे कारण साहित्य प्रेमियों, आयोजकों को असुविधा हो और आयोजक अपनी मूल भावना से भटक जाएं।”

यह गौर करने लायक बात है कि जेएलएफ में लेखकों, फिल्मकर्मियों आदि ने खुलकर करणी सेना की धुनाई की और फिल्म के खिलाफ बनाए गए हिंसक माहौल की निंदा की। निश्चय ही प्रसून जोशी अगर आने के लिए अड़ जाते तो जेएलएफ में सुरक्षा संबंधी तनाव बढ़ जाता। लेकिन ‘सोशलाइट’ लेखिका शोभा डे ने एक सेशन में बहुत बोल्ड बातें कहीं और मोदी सरकार की नीतियों, देश के अराजक माहौल पर जमकर प्रहार किया। सत्तर साल की शोभा डे स्टारडस्ट की फिल्मी पत्रकारिता के दौर से बाहर आ चुकी हैं और अब खुल्लम खुल्ला तौर पर तीखे हमले कर सही मुद्दों के लिए लड़ रही हैं।

जेएलएफ को साहित्य का ‘कुंभ’ कहा जाता है। ग्यारहवें जेएलएफ ने श्रोताओं की हिस्सेदारी के नए रिकॉर्ड बनाए हैं। 181 सत्रों में पांच दिन सुबह से रात तक दुनिया भर के साढ़े तीन सौ लेखक वहां बतियाते रहे। पांच दिनों में पांच लाख की भीड़ जुटाना आसान काम नहीं है। पिछले साल की तुलना में इस बार ‘फुटफॉल’ 23 प्रतिशत अधिक था। साठ प्रतिशत से अधिक श्रोता 25 साल से कम उम्र के थे। कोई आश्चर्य नहीं कि जेएलएफ में फैशन और सेल्फी संस्कृति का भी बोलबाला था।

इस साहित्योत्सव का अंतिम सत्र ‘मी टू’ आंदोलन पर बहस से समाप्त हुआ। चर्चित फेमिनिस्ट रुचिरा गुप्ता के अनुसार, “पुरुषों का एक वर्ग यदि सेक्स संबंधी ताकत का दुरुपयोग करने लगता है, तो पूरे समाज के लिए परेशानियां पैदा हो जाती हैं।” उपन्यासकार और पत्रकार संदीप रॉय के अनुसार वास्तविक परिवर्तन तभी आएगा जब एक औरत पुलिस स्टेशन पर जाकर सेक्सुअल हैरेसमेंट की शिकायत दर्ज कराए और उससे यह न पूछा जाए कि उसने पहना क्या हुआ था या वह क्या पी रही थी।

जेएलएफ के आयोजक अक्सर जेएलएफ के पहले संस्करण को याद करते हैं जब डिग्गी पैलेस के सेशन में श्रोता नहीं थे। आज यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो चुका है। उस वक्त डेढ़ दर्जन जापानी पर्यटकों का एक दल आमेर किला ढूंढ़ता हुआ डिग्गी पैलेस आ गया था और उसके सदस्य ही जेएलएफ के प्रारंभिक प्रतिबद्ध श्रोता थे। पिछले दस सालों में जेएलएफ के श्रोताओं का नक्‍शा पूरी तरह से बदल गया है। इस कुंभ के माहौल की हालत यह है कि अनुराग कश्यप या नवाजुद्दीन सिद्दीकी ही तिल रखने को जगह न हो ऐसी भीड़ इकट्ठी नहीं करते बल्कि टॉम स्टॉपर्ड सरीखे विश्वप्रसिद्ध अंग्रेजी नाटककार और सिने पटकथा लेखक के कारण भी वही जगह ठसाठस भर जाती है। बी.एन. गोस्वामी सरीखे गंभीर कलाविद् जब अट्ठारहवीं शताब्दी के पहाड़ी चित्रकार मनकू पर भाषण देते हैं, तो खचाखच भरे दरबार हॉल में श्रोता देर तक खड़े होकर तालियां बजाते हैं। इसी हॉल में महान डच कलाकार रेंब्रां और मुगल मिनियेचर कला के रिश्तों पर स्कॉलर स्टेफानी श्रेडर को सुनने के लिए श्रोता जमीन पर भी बैठे जाते हैं।

जेएलएफ की असाधारण अंतरराष्ट्रीय सफलता के बाद देश में लिटफेस्ट की संस्कृति कुकुरमुत्ते की तरह उगती चली जा रही है। आखिरी गिनती के अनुसार देश में 123 लिटफेस्ट जन्म ले चुके हैं। जाहिर है इन साहित्योत्सवों में फिल्मी व्यक्तित्व लेखक को पीछे धकेल देते हैं। ग्लैमर और तमाशे पर जोर बढ़ता जाता है। बाजार की ताकतें ऑक्टोपस की तरह चीजों को जकड़ने लगती हैं।

शशि थरूर

दुनिया भर के बड़े लेखकों को एक मंच पर बुलाने के लिए बड़ा बजट भी चाहिए। जब सरकारी संस्‍थाएं मीडियॉकर लेखन की प्रवक्ता बनती जा रही हैं तब जेएलएफ में अगर ढंग के बीस लेखक भी बाहर से बुलाने में सफल हो जाते हैं, तो यह उपलब्धि है। जेएलएफ पर अंग्रेजीदां होने का आरोप भी लगाया जाता है। लेकिन इस साहित्योत्सव की बनावट ही ऐसी है कि इसे हिंदी लेखकों का उत्सव नहीं बनाया जा सकता। इस बार जयपुर में जनवादियों और प्रगतिशीलों ने बाजारवाद के विरुद्ध अपना समानांतर सम्मेलन किया जिनमें कुछ बड़े लेखकों ने हिस्सेदारी भी की। इस तरह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। अंग्रेजी की कहावत है, ‘मोर द मैरियर।’ ऐसे और भी आयोजन हों, अच्छा है।

अंग्रेजी का बड़ा लेखक जिस आसानी से चालू लेखकों (चेतन भगत, अमीश आदि) के साथ मंच पर बैठने के लिए तैयार हो जाता है वह बात हिंदी की दुनिया में नहीं है। एक गंभीर स्‍थापित कवि और उपन्यासकार को जासूसी उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक के साथ मंच पर बैठने में परेशानी क्यों होती है? अमीश को भारत का पहला ‘लिटरेरी पॉपस्टार’ बताया जाता है और सुरेंद्र मोहन पाठक को क्राइम लेखन का बादशाह बताया जाता है। कुछ के लिए लेखन कारोबार है और कुछ के लिए समाज को बदलने का कारगर हथियार।

इस बार जेएलएफ में जबरदस्त भीड़ जुटाने वालों में फिल्मकार अनुराग कश्यप थे जिन्हें ‘हिटमैन’ के रूप में पेश किया गया। बुकमार्क (प्रकाशकों, लेखकों, लिटरेरी एजेंटों और अनुवादकों का एक सशक्त प्लेटफार्म) की एक सार्थक बहस में अनुराग कश्यप ने कहा कि मैं उदय प्रकाश के लेखन पर काम करना चाहता था। पटकथा की योजना थी पर हिंदी लेखकों से संवाद आसान नहीं है। वे फिल्म की भाषा और जरूरतों को समझना नहीं चाहते हैं। मैं नामवर सिंह के पास सलाह के लिए गया, तो वह मेरी जींस देखकर उत्साहित नहीं हुए।

विदेशों में बड़े लेखकों को सुनने के लिए महंगा टिकट खरीदना पड़ता है। लंबी लाइनें लगानी पड़ती हैं। लेकिन जेएलएफ में बड़े लेखकों को मुफ्त में सुना जा सकता है, उनसे संवाद किया जा सकता है। कुछ बड़े लेखकों को सुनने के लिए दूर से आते हैं। कुछ होटल का किराया बचाने के लिए प्लेटफार्म पर ही रात बिता देते हैं।

(लेखक वरिष्ठ कवि, उपन्यासकार, कला और फिल्म समीक्षक हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement