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बीमा के भरोसे भला कैसे सुधरेगी सेहत

सबसे बड़ी स्वास्थ्य् बीमा योजना के मद में बजटीय प्रावधान नाकाफी, बाकी घोषणाएं भी अपर्याप्त
चिंता स्वास्थ्य कीः ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केंद्रों में प्राथमिक उपचार की भी ढंग की व्यवस्थाम नहीं

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई घोषणाएं कीं। जिस घोषणा पर उन्होंने सबसे ज्यादा जोर दिया वह देश के 10 करोड़ परिवारों यानी औसतन 50 करोड़ लोगों के लिए स्वास्थ्य बीमा से संबंधित है। इसके तहत गंभीर या अतिगंभीर रोगों के इलाज के लिए पांच लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने की बात की गई है। इसे विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताया जा रहा है। अन्य घोषणाओं के अनुसार देश के लगभग 1,50,000 उप स्वास्थ्य केंद्रों को स्वास्थ्य एवं कल्याण (वेलनेस) केंद्रों में परिवर्तित किया जाएगा। 24 नए राजकीय मेडिकल कॉलेज शुरू किए जाएंगे और क्षय रोग (टीबी) के रोगियों को पोषण के लिए 500 रुपये प्रतिमाह भत्ता दिया जाएगा।

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में सबके लिए स्वास्थ्य कवरेज का भी जिक्र किया और कहा कि उनकी इच्छा है कि इसे लागू किया जाए लेकिन अभी यह संभव नहीं हो पा रहा है। यहां यह जान लेना उचित होगा कि 2018-19 के लिए स्वास्थ्य का कुल बजट लगभग 52,000 करोड़ रुपये है जो चालू वित्त वर्ष से लगभग तीन फीसदी अधिक है। हालांकि अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो इस बढ़ोतरी के बावजूद स्‍वास्‍थ्य बजट पिछले वर्ष के बराबर ही बैठेगा। इसलिए बजट में स्वास्थ्य से संबंधित घोषणाओं की जांच-परख की दरकार है और यह देखना होगा कि ये धरातल पर उतर पाएंगी या महज आकांक्षाएं मात्र ही रह जाएंगी। वित्त मंत्री ने स्वयं भी कहा कि यह बजट आकांक्षाओं से भरा है। बजट में स्वास्थ्य संबंधी घोषणाओं को उन्होंने ‘आयुष्मान भारत’ का संबोधन दिया।

बजट के प्रावधानों की जांच-परख से पहले यह जानना उचित होगा कि भारत में प्रति व्यक्ति हर साल लगभग 62 डॉलर स्वास्थ्य पर खर्च होता है, जिसमें मात्र 19 डॉलर सरकार खर्च करती है। स्वास्थ्य व्यय का लगभग दो-तिहाई हिस्सा रोगी को खुद करना पड़ता है। इसके विपरीत पड़ोसी देश जैसे भूटान में प्रति व्यक्ति 89 डॉलर, श्रीलंका में 93 डॉलर खर्च होता है और अधिकतर राशि राजकीय कोष से व्यय होती है। ब्रिक्स राष्ट्रों में रूस 803 डॉलर, ब्राजील 1119 डॉलर, चीन 294 डॉलर और दक्षिण अफ्रीका 670 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष व्यय करता है।

इन आंकड़ों को ध्यान में रखने के बाद इस साल के बजट में सर्वप्रथम प्रस्तावित स्वास्थ्य बीमा योजना पर ही विचार करना मुनासिब होगा। बजट पश्चात हुई चर्चाओं से पता चला कि इसके लिए प्रारंभ में लगभग 2000 करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया गया है। इतना ही नहीं, इसे प्रारंभ करने की अभी कोई तिथि निश्चित नहीं की गई है। संभवतः यह 15 अगस्त या दो अक्टूबर से प्रारंभ हो अर्थात इसके प्रारंभ होने की संभावना आधा वित्त वर्ष निकल जाने के बाद की है। लेकिन बजट प्रस्ताव एक महीने पहले पेश करने का उद्देश्य यह बताया गया था कि इससे समस्त योजनाएं एक अप्रैल से प्रारंभ हो सकेंगी। स्वास्थ्य बीमा के लिए आंवटित समस्त राशि का भी उपयोग अगर बीमा (प्रीमियम) के लिए किया जाए तो यह राशि प्रति परिवार 200 रुपये होगी। इतनी कम राशि में पांच लाख रुपये का बीमा मिलना इसलिए असंभव-सा लगता है क्योंकि केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 30,000 रुपये के बीमा के लिए 400 रुपये से अधिक प्रीमियम का भुगतान करती है। दूसरी ओर नीति आयोग का कहना है कि उसने इस योजना को अमल में लाने की विस्तृत तैयारी कर ली है। अब सवाल यह है कि अगर तैयारी की गई है तो इसे एक अप्रैल 2018 से ही प्रारंभ क्यों नहीं किया जा रहा है? स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से चिकित्सा सेवा उपलब्ध करवाने का अर्थ है निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देना, पर इससे क्या इस देश के निर्धन परिवारों को बेहतर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हो पाएंगी?

यह सर्वविदित है कि निजी क्षेत्र व्यापारिक उद्देश्य से कार्यरत है और उसमें लाभ अर्जित करना मुख्य ध्येय भी है और आवश्यक भी है। इसी प्रकार बीमा कंपनियां भी व्यापारिक दृष्टिकोण से ही अपना कार्य संपादन करती हैं। इसके अतिरिक्त वर्तमान में लगभग 75 फीसदी साधारण रोगी और लगभग 60 फीसदी गंभीर रोगी अपना उपचार पहले ही निजी क्षेत्र में करवाते हैं। अर्थात इतनी अधिक मात्रा में जब निजी क्षेत्र चिकित्सा सेवा प्रदान करने में लगा है, तब उसे अतिरिक्त भार क्यों सौंपा जा रहा है? यह स्वास्थ्य बीमा योजना किस रूप में किस बीमा कंपनी के साथ होगी और इसमें किन रोगों के उपचार को शामिल किया जाएगा यह स्पष्ट नहीं है। निजी क्षेत्र से स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने में दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इनकी चिकित्सा सुविधाएं दूर-दराज के क्षेत्र, जहां निर्धन परिवार बसते हैं, वहां उपलब्ध ही नहीं है। निजी क्षेत्र के चिकित्सा संस्थान बड़े शहरों में स्थित हैं, जहां सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं भी बेहतर रूप से उपलब्ध हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि दूर-दराज क्षेत्र में बसे निर्धन परिवारों को इलाज के लिए बड़े शहरों तक भागना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें गंभीर रोगों के लिए तुरंत उपचार की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाएगी। यह इससे भी साबित होता है कि 2017 में नीति आयोग ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखकर उनसे अपने राज्यों में 50,000 से 1,00,000 की जनसंख्या वाले शहरों में स्थित जिला चिकित्सालयों में निजी भागीदारी से हृदय, फेफड़े और कैंसर रोगों के लिए चिकित्सा सेवाएं प्रारंभ करवाने को कहा था। लेकिन कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहां इस प्रकार की सेवाएं प्रारंभ हो सकीं। न ही इसमें राज्य सरकारों ने रुचि ली और न ही निजी क्षेत्र ने कोई रुचि दिखाई। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के माध्यम से सतत गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए जो निगरानी व्यवस्था स्थापित करने की जरूरत पड़ती है, उसका भी बड़ा भारी बोझ बन जाता है।

उप स्वास्थ्य केंद्रों को स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों में परिवर्तन  करने के लिए बजट में 12,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इस तरह यह प्रति केंद्र 80,000 रुपये बैठता है। इसी के तहत समन्वित प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा मुहैया करनी है, जिसमें संक्रमित और गैर संक्रमित रोग दोनों के उपचार की सुविधा हो। वर्तमान में अधिकतर उप स्वास्थ्य केंद्रों में एक नर्स नियुक्त है। कुछ ही स्थान ऐसे हैं, जहां दो की नियुक्ति हुई है जबकि स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों पर एक आयुष चिकित्सक, दो महिला और एक पुरुष नर्स को नियुक्ति करनी होगी। एक केंद्र के लिए प्रति वर्ष 80,000 रुपये में यह कैसे संभव हो पाएगा।

इसमें दो राय नहीं कि 24 नए मेडिकल कॉलेज खोलना और क्षय रोगी (टीबी) के उपचार के समय 500 रुपये प्रति माह पोषण के लिए देने जैसी मदद मुहैया कराना सराहनीय कदम है। लेकिन यह बहुत देर से उठाया गया अपर्याप्त कदम है। देश में प्रशिक्षित चिकित्सकों, विशेषज्ञ चिकित्सकों की भारी कमी है और सिर्फ 24 नए मेडिकल कॉलेजों से इसकी भरपाई संभव नहीं है। आवश्यकता यह है कि प्रत्येक जिला स्तर पर एक सरकारी मेडिकल कॉलेज हो। इसी प्रकार टीबी उपचार के समय पोषण के लिए दिए जाने वाले 500 रुपये को भोजन के रूप में दिया जाना ज्यादा उचित होगा, न कि नकद।

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.1 प्रतिशत ही है जो विश्व के अधिकतर देशों के मुकाबले सबसे कम है। केंद्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में इसे बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य रखा गया है पर यह लक्ष्‍य 2025 तक के लिए तय किया गया है। विडंबना है कि 2002 की स्वास्थ्य नीति में यह लक्ष्य 2017 तक प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया था। उसके लिए गठित कार्यबल की रिपोर्ट के मुताबिक यह अब 3 प्रतिशत से अधिक होना चाहिए।

(लेखक जन स्वास्थ्य अभियान के संयोजक हैं)

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