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खेती-किसानी की उम्मीदों पर कितना खरा

प्रावधानों से भूमिहीन श्रमिकों के साथ-साथ छोटे और सीमांत किसान सहित ग्रामीण आबादी की स्थिति सुधरेगी, पर त्वरित और समावेशी कृषि विकास के लिहाज से कुछ प्रावधानों के लिए अपर्याप्त आवंटन सवाल पैदा करते हैं
खेत में हल चलाते किसान की आशाएं जुड़ी हैं बजट से

बजट 2018-19 में कृषि विकास, ग्रामीण विकास और किसानों के कल्याण के लिए कई अच्छे प्रावधान किए गए हैं। खेती-किसानी और उससे जुड़े कामों के लिए बजट आवंटन 2017-18 के 56,589 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) से बढ़ाकर 2018-19 के लिए 63,836 करोड़ रुपये किया गया है। ग्रामीण विकास के लिए आवंटन 2017-18 के 1,35,604 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) से बढ़ाकर 2018-19 में 1,38,097 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त कई नई योजनाओं की घोषणा की गई है। सही तरीके से लागू किए जाने पर इनसे किसानों और गांवों में रहने वाले लोगों की जिंदगी बदल सकती है। फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि क्या बजट किसानों की उम्मीदों के मुताबिक है और यह भी कि क्या कृषि विकास और किसानों के कल्याण में तेजी लाने के लिए बजट में घोषित विभिन्न योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन हो पाएगा। आइए, कुछ अपरिहार्य कसौटियों पर बजट का आकलन करते हैं।

लाभकारी समर्थन मूल्य

बजट में सबसे महत्वपूर्ण घोषणा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर की गई है। वित्त मंत्री ने उपज की लागत से 50 फीसदी अधिक एमएसपी की घोषणा की। स्वामीनाथन आयोग ने कुछ साल पहले इसकी सिफारिश की थी। किसानों और कृषक संगठनों की यह मुख्य मांग रही है। भारतीय जनता पार्टी ने भी 2014 लोकसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में खेती-किसानी के संकट के समाधान को लेकर इसका वादा किया था। इसलिए, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार चुनावी वादे को पूरा करती दिख रही है। इससे किसानों को खुश होना चाहिए।

हालांकि कुछ लोग यह विवाद भी उठा रहे हैं कि उपज की किस लागत पर समर्थन मूल्य में 50 फीसदी बढ़ाेतरी की जाएगी, यह स्‍पष्ट नहीं है। फसलों की कीमत की सिफारिश करने वाली संस्‍था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) आमतौर पर उपज की लागत का निर्धारण करने के ‌लिए तीन तरीकों का इस्तेमाल करता है। ये हैंः

-पहला है ए2 तरीका। इसके तहत नकद में तथा अन्य तरीकों से किए गए सभी खर्च और खेती के लिए पट्टे पर ली गई जमीन के मद में किए गए भुगतान की गणना की जाती है।

-दूसरा तरीका ए2+एफएल कहलाता है। इसमें ए2 के तहत हुए खर्च और कृषक परिवार के श्रम की कीमत शामिल है।

-तीसरा तरीका सी2 है। इसमें ए2+एफएल के तहत हुए खर्च में निजी जमीन का किराया, जमीन के अलावा अन्य अचल पूंजी परिसंपत्तियों के मूल्य पर ब्याज, खेती-किसानी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्रियों के मूल्य में अवमूल्यन वगैरह को शामिल कर उपज लागत का निर्धारण किया जाता है।

स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में लागत निर्धारण के तरीकों को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है, लेकिन कुल लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा एमएसपी देने की बात कही गई है। लागत निर्धारण के सी2 और सी3 तरीके की आमतौर पर अनदेखी की जाती है। सी2 का आकलन मजदूरी की न्यूनतम कानूनी दर या वास्तविक दर के आधार पर किया जाता है, जो भी ज्यादा हो। सी3 का मतलब है कि सी2+10%, जो किसान के प्रबंधकीय कार्यों की कीमत है।

2017-18 में खरीफ सीजन के दौरान बाजरा, अरहर, उड़द सहित कई फसलों का एमएसपी ए2+एफएल का 50 से 65 फीसदी ज्यादा था, लेकिन सी2 लागत से कम था। धान के मामले में एमएसपी ए2+एफएल से 38.8 फीसदी ज्यादा था, जबकि सी2 से केवल 4.4 फीसदी ही अधिक था। ज्वार, रागी, मूंग, कपास और सूरजमुखी के एमएसपी में सी2 शामिल तक नहीं था। 2018 में सैफ्लावर को छोड़कर सभी रबी फसलों का एमएसपी ए2+एफएल से 50 फीसदी से ज्यादा था, लेकिन सी2 के मुकाबले मार्जिन कम था। हालांकि ये एमएसपी भी किसानों को कम ही सही, पर मार्जिन प्रदान करते हैं, लेकिन कुल लागत से 50 फीसदी अधिक मार्जिन की किसानों की मांग को पूरा नहीं करते। एमएसपी का स्तर तय करते समय सीएसीपी न केवल उत्पादन की लागत पर विचार करता है बल्कि इनपुट प्राइस में बदलाव, बाजार की कीमतों के रुझान, मांग-आपूर्ति की स्थिति, फसलों की कीमत में अनुरूपता, जनरल प्राइस के स्तर पर प्रभाव, औद्योगिक लागत संरचना पर प्रभाव, कृषि व्यापार की शर्तों सहित कई अन्य कारकों पर भी विचार करता है।

वास्तव में, एक बार यह फैसला ले लिया जाए कि एमएसपी कुल उपज लागत से 50 फीसदी अधिक होगा तो किसी भी अन्य कारकों पर विचार करने और संस्‍थान के तौर पर भी सीएसीपी की जरूरत नहीं होगी। समस्या केंद्र सरकार की ओर से निर्धारित औसत लागत पर विभिन्न राज्यों के मानदंड बनाने से भी पैदा होती है, क्योंकि जिन राज्यों में उपज लागत ज्यादा है वहां इससे सी2 पर कोई मार्जिन किसानों को नहीं मिल पाता है। सीएसीपी की हालिया रिपोर्ट से साफ पता चलता है कि 2017-18 में पश्चिम बंगाल, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में धान का एमएसपी औसतन सी2 से कम था। 2016-17 में गेहूं को लेकर इसी तरह की स्थिति हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में थी। जब तक खेती मुनाफा नहीं देगी, कुशलता से खेती के लिए किसान न तो प्रेरित होंगे और न उनकी क्षमता बढ़ेगी। इसलिए, किसानों को लाभकारी मूल्य मुहैया कराना जरूरी है, खासकर ऐसे समय में जब 2022 तक उनकी आय दोगुना करने का लक्ष्य तय किया गया है।

भाव में अंतर का भुगतान

बजट पेश करते समय वित्त मंत्री ने फसलों के भाव में अंतर के भुगतान को लेकर कहा कि बाजार में दाम एमएसपी से कम होने पर सरकार या तो एमएसपी पर खरीदी करेगी या कोशिश करेगी कि किसी अन्य व्यवस्‍था के अंतर्गत किसानों को पूरी एमएसपी मिले। यह मूल रूप से सरकार द्वारा मूल्य में अंतर के भुगतान की ओर इंगित करता है, हालांकि वित्त मंत्री के बजट भाषण में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है। ऐसा है तो सरकार को खरीदारी करने की जरूरत नहीं होगी और इसके बजाय एमएसपी और बाजार मूल्य के बीच के अंतर को सीधे किसान के खाते में भेजा जा सकेगा। इस स्थिति में सभी जगह के किसान खुश होंगे, क्योंकि आमतौर पर चावल और गेहूं को छोड़कर अन्य फसलों पर एमएसपी से उन्हें लाभ नहीं होता। इसलिए, सभी क्षेत्र के किसान भाव में अंतर के भुगतान से लाभान्वित होंगे। किसानों को प्रभावी तरीके से उनकी फसल का कम से कम एमएसपी मिल सके इसके लिए नीति आयोग, केंद्र और राज्यों की सरकारों के साथ चर्चा कर एक पुख्ता व्यवस्‍था तैयार करेगा।

अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान

बजट में कई दूसरे प्रावधान भी किए गए हैं। मसलन, मार्च 2018 तक सभी बड़े 585 एपीएमसी को ई-नैम नेटवर्क से जोड़ना, 22 हजार ग्रामीण हाटों को ग्रामीण कृषि बाजारों के रूप में विकसित और उन्नत कर इलेक्ट्रॉनिक रूप से ई-नैम से जोड़ना और उन्हें एपीएमसी के नियमों से छूट प्रदान करना, जिलों में कृषि उत्पाद को चिह्नित कर खासकर बागवानी के लिए क्लस्टर आधारित मॉडल, ‘हरित सोना’ के तौर पर बांस को संपूर्ण रूप में बढ़ावा देना, टमाटर, प्याज और आलू जैसी जल्द खराब होने वाली सब्जियों को बचाने के लिए कृषि उत्पादक संगठन, एग्री लॉजिस्टिक्स और प्रसंस्करण सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए ‘ऑपरेशन ग्रीन’ की शुरुआत करना, टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देना, अत्यधिक विशिष्ट औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती को सहायता प्रदान करना, पट्टाधारी किसानों को संस्‍थागत ऋण सुलभ कराना, खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को विकसित करना, कृषि उत्पादक संगठनों को त्वरित विकास के लिए टैक्स में शत-प्रतिशत की छूट देना शामिल है।

कई अच्छी चीजों के बावजूद बजट 2018 में कुछ खामियां भी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण में स्पष्ट तरीके से कृषि क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन से होने वाले संकट के प्रति आगाह किया गया है। इसका समाधान तकनीकी नवाचारों में छिपा है। आइसीएआर और कृषि विश्वविद्यालयों में विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने का तरीका खोजने के लिए बजट में अनुसंधान के लिए फंड बढ़ाया जाना चाहिए था। इसके अलावा, रेनफेड एरिया में वाटरशेड के विकास में सहभागिता के लिए ज्यादा फंड दिया जाना चाहिए था। यह पैदावार और किसानों की आय बढ़ाने में मददगार साबित होता। 2018-19 के बजट से यह सकारात्मक संदेश गया है कि केंद्र सरकार किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए ईमानदारी से काम कर रही है। हालांकि यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि त्वरित और समावेशी कृषि विकास के नज‌रिए से देखें तो बजट के कुछ प्रावधानों के लिए पर्याप्त आवंटन नहीं किए गए हैं।

(लेखक कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन हैं)

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