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नाटकों का शास्त्रीय संगीतकार

झंडे खां ने अपना संगीत कॅरिअर नाटकों से शुरू किया और फिल्मी पटल पर भी छा गए
कैप्शन-  राग भैरवीः झंडे खां की संगीतबद्ध सबसे प्रसिद्ध फिल्म चित्रलेखा थी

फिल्म निर्माण के आरंभिक दौर की बड़ी कंपनियों में रणजीत फिल्म्स, रणजीत मूवीटोन और उसके मालिक सेठ चंदूलाल शाह का नाम मील के पत्थर की तरह है। रणजीत फिल्‍म्स ने कई संगीतकारों को फिल्मों में मौका दिया। कंपनी के आरंभिक और प्रथम संगीतकार फिल्म देवी देवयानी (1931) में उस्ताद झंडे खां थे। गुजरांवाला के झंडे खां शास्‍त्रीय संगीत के उस्ताद तो थे ही सारंगी में भी दखल रखते थे। वह फिल्मों के लिए शास्‍त्रीय संगीत का सरल, सरस रूप प्रस्तुत करने की कला में भी पारंगत थे।

बचपन से ही झंडे खां ने हारमोनियम और अन्य कई वाद्य-यंत्रों को बजाने में उस्तादी हासिल की थी। उन्होंने बंबई जाकर उस्ताद छज्जू खान साहब से भी शिक्षा ग्रहण की। झंडे खां थिएटर संगीत की दुनिया में मशहूर रहे। जुबली, न्यू अल्फ्रेड और पारसी अल्फ्रेड थिएटरों के लिए उन्होंने सैकड़ों गीत बनाए जो मशहूर रहे। महाभारत नाटक में दिए संगीत के कुछ हिस्सों का एच.एम.वी ने रेकार्ड भी निकाला था। उस वक्त के नाटकों में शुरू में गाए जाने वाले गीतों में अक्सर कोरस का प्रयोग होता था। ऐसे गीतों को स्वरबद्ध करने में झंडे खां ने विभिन्न शास्‍त्रीय तथा अर्धशास्‍त्रीय संगीत शैलियों का इस्तेमाल किया। दिलफरोश नाटक में झंडे खां का स्वरबद्ध गीत ‘दिले नादां को हम समझाए जाएंगे’ मशहूर रहा था। फिल्मों में टाकीज के आगमन के बाद झंडे खां फिल्मों में भी सक्रिय हुए और रणजीत स्टूडियो की कई फिल्मों में संगीत दिया।

उन्होंने रणजीत की चार चक्रम (1932) गौहर अभिनीत राधा रानी (1932) सती सावित्री (1932) के ‘बचेंगे अगर हमसे छुपेंगे किधर’, ‘राज तज सकल साज’, ‘रसिक बिहारी बतिया तिहारी’, भुतिया महल (1932) के ‘साकी ने मेरे घर को मैखाना बना डाला’, ‘लगी है मोहे पिया मिलन की आस’, भोला शिकार (1933) के ‘तेरी कुदरत की बलिहारी आैर ‘अरी रहने दो तुम बड़े बेवफा हो’, भूलभुलैया (1933) के ‘गोरी तेरे नैना जुलम करें’, ‘मत नैना की मारो कटारी सनम’, ‘तुझे मेरे दिल की बता क्या खबर’, परदेशी प्रीतम (1933) के ‘जफा न करना दगा न करना’ जैसे गीतों से फिल्म संगीत में अपनी पहचान बनाई। झंडे खां ने शैलबाला (1932), मिस 1933 (1933), विश्वमोहनी (1933), वीर वब्रुवाहन (1934), तारा सुंदरी, (1934), प्रभु की दुनिया (1935) और प्रभु का प्यारा (1936) के बाद रणजीत से नाता तोड़ लिया। अजंता सिनेटोन की दुख्तरे हिंद (1935), अमृत फिल्म्स की अंजुमन की दुनिया, ईस्टर्न आर्ट्स की भारत की बेटी, (1935), दरयानी प्रोप्राइटर की फिदा ए वतन, ईस्टर्न आर्ट्स की शेर का पंजा, गोल्डेन ईगल की प्रेम बंधन (1936, अनिल विश्वास के साथ) और विष्णु सिनेटोन की पयामे हक (1939, श्याम बाबू के साथ) में भी संगीतकार की हैसियत से काम किया। झंडे खां की सबसे प्रसिद्ध फिल्म केदार शर्मा निर्देशित भगवतीचरण वर्मा के मशहूर उपन्यास पर उसी नाम से बनी चित्रलेखा (1941) थी। चित्रलेखा न सिर्फ मेहताब के स्नान दृश्य के कारण चर्चित हुई बल्कि गायिका रामदुलारी के गाए सुंदर गीतों ने भी इसकी लोकप्रियता में योगदान दिया।

झंडे खां ने विरोध के बावजूद सभी गीतों में भैरवी द्वारा ही विविध रसों को उभारा। रामदुलारी के स्वर में जलतरंग के अद्‍भुत प्रयोग के साथ ‘तुम जाओ बड़े भगवान बने’ उन्होंने सरगम आधारित लंबी तानों के साथ कंपोज किया। ‘नीलकमल मुसकाए भंवरा झूठी कसमें खाए’ और ‘सैयां सांवरे भए बावरे’ जैसे गीतों का कंपोजीशन आकर्षक था। गौर करने लायक है कि ‘तुम जाओ बड़े भगवान बने’, के मूल भाव को लेकर ही दोबारा बनी चित्रलेखा (1964) में साहिर ने ‘संसार से भागे फिरते हो’ की रचना की थी। नमाजी झंडे खां का कद भले ही नाटा था लेकिन भव्य संगीतकार थे। अपनी अंतिम फिल्म शहंशाह अकबर (1943) में उन्होंने ‘अकबर महाबली की जय हो’ स्तुति गीत कंपोज किया था। ऐसे स्तुति गीत कम ही कंपोज हुए हैं। इस गीत की कंपोजीशन की तुलना मुगले आजम या रजिया सुल्तान के खय्याम द्वारा कंपोज खूबसूरत ताजपोशी गीत से की जा सकती है। इसी फिल्म में झंडे खां की कल्पना पर ‘जाग–जाग मन भज बनवारी’, ‘श्याम नहीं आए जिया मोरा जाए’, ‘पिया बिन सावन-भादों नैन और ‘मन दर्शन का अभिलाषी प्यासे मोरे नैन’ जैसे गीतों की रचना की गई थी। शास्‍त्रीय आधार कायम रखते हुए सुमधुर, सरस गीतों की रचना करने का अपना फन झंडे खां ने इन गीतों में भी बखूबी कायम रखा था। हमीद पिक्चर्स की जीवन का साज प्रदर्शित तो नहीं हुई पर इसमें झंडे खां ने अमीरबाई से परंपरागत नाट्यशैली में ‘बिछड़ा बचपन’, बहुत खूबसूरती से गंवाया था। इस गीत का आरकेस्ट्रेशन, विशेषकर सारंगी का प्रयोग लाजबाब था। फिल्म का ही एक अन्य गीत, ‘सजनी से साजन मिल गए’ के भी इंटरल्यूइस का वाद्य-संयोजन बहुत प्रभावशाली था। इस गीत के हर अंतरे में परिवर्तित लय और गति का प्रयोग भी विशिष्ट प्रभाव छोड़ता है। ‘लाहौरी लाला’, ‘रावी पार’, ‘पगली’ (अन्य संगीतकारों के साथ) झंडे खां की स्वरबद्ध अन्य उल्लेखनीय फिल्म रही है। झंडे खां ने कम फिल्में की पर अपने दौर के स्तरीय संगीतकारों की श्रेणी में उनका नाम आता है। नौशाद, गुलाम मुहम्मद, हेमंत कुमार और श्याम सुंदर जैसे कलाकारों ने भी झंडे खां से संगीत शिक्षा ली थी। 1951 में झंडे खां का निधन हुआ।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं) 

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