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कव्वाली पर कितने फिदा

‘मेरे रश्के-कमर...’ तीस साल बाद भी लोगों को झुमा रहा है, कव्वाली की दुनिया पर एक नजर
कव्वाली गाते नुसरत फतह अली खान

यह सूफी संगीत का ही जादू है कि ‘मेरे रश्के-कमर...’ गीत आज भी लोकप्रिय है। दिल की गहराइयों को छूकर रूह तक महसूस होने वाले सूफी संगीत की खासियत ही है कि इसको सुनने वाला मदमस्त होकर झूमने लगता है। फिल्म बादशाहो का यह गीत जो आज लोकप्रियता का परचम लहरा रहा है, इसे 1988 में उस्ताद नुसरत फतेह अली खां की गाई एक कव्वाली की तर्ज पर बनाया गया है। तीस साल पहले फना बुलंदशहरी की लिखी इस कव्वाली की मकबूलियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज तक कितने ही गायकों ने इसे अपनी आवाज से सजाया और हर बार श्रोताओं की वाहवाही लूटी। दरअसल, सूफी परंपरा में संगीत भी इबादत का एक अंग है और कव्वाली इसकी एक खास विधा। कभी दरगाहों और खानकाहों में सूफियों की सजने वाली ‘समां’ की महफिलों का ही बदला हुआ एक रूप कही जा सकती है कव्वाली।

कभी सूफियों ने अमन और सच्चाई का पैगाम लोगों तक पहुंचाने के लिए इस विधा का सहारा लिया था। आज सूफी संगीत की गूंज उन यूरोपीय देशों तक है जहां के लोग भले ही इसके साहित्य से अनभिज्ञ हों, मगर उनके दिलों का राबता कव्वाली के सुरों से जुड़कर सूफी संगीत की धुन में रम जाता है। यही इस संगीत की खासियत भी रही है। कव्वाली शब्द कौल से बना है। इसके मायने हैं, बार-बार दोहराना। इसे सुनने वाले सुकून महसूस करते हैं। दरअसल, कव्वाली का मकसद भी यही होता है। कव्वाली को इबादत से जोड़कर देखा जाता रहा है। इसमें मंच पर बैठने वाले कव्वालों के बैठने के क्रम में अदब और वरिष्ठता का ख्याल रखा जाता है। इसे गाने से पहले वुजू भी किया जाता है। पारंपरिक कव्वाली से पहले हम्द, नात और मनकबत के साथ गजल भी पेश की जाती है।

राहत फतह अली

फिल्मी पर्दे पर बिखरते सूफी संगीत को इसके जानकार भले ही रूहानियत से न जोड़कर सिर्फ मनोरंजन के साधन के तौर पर देखें, मगर फिल्मों में बिखरते सूफी संगीत की इस छटा को सुनने वालों ने शुरू से इसे दिल से पसंद किया है। एक तरफ जहां सूफी संगीत ने सरहदों को पार कर दिलों को जोड़ा है, वहीं यह भी सच है कि पारंपरिक कव्वाली के स्वरूप में भी कुछ बदलाव आज वक्त की जरूरत बन गए हैं। यही वजह है कि पारंपरिक कव्वालियों के स्वरूप में भी बदलते वक्त के साथ कई बदलाव किए गए हैं। करीब 800 साल के अपने इतिहास में कव्वाली ने सूफियों के ‘समां’ और दरगाहों, खानकाहों तक का सफर तय किया है। अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत और लोक भाषाओं का समायोजन करके कव्वाली को अपने समय की संगीत की एक विकसित और लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित किया। पहले जहां यह पारंपरिक वाद्ययंत्रों पर शब्दों की अदायगी के साथ सुरों पर सजती थी, वहीं आज इसे नई तकनीक और संगीत का मिश्रण करके पेश किया जा रहा है। उस्ताद नुसरत फतेह अली खां के भतीजे और मशहूर कव्वाल मुअज्जम अली खां इस बात को मानते हैं और उनका कहना है, ‘‘आज लोग भारी संगीत सुनना पसंद करने लगे हैं। इस वजह से हमने कुछ वाद्य इसमें जोड़े हैं। अपने लाइव शोज में हम इनको इस तरह से मिक्स करते हैं कि कव्वाली भी रहे और संगीत का कुछ अलग फ्यूजन भी इसमें हो। मुझे लगता है इस तरह से भी कव्वाली के जरिए अल्लाह का जो मैसेज सुनने वालों तक पहुंचाया जाता है, वह तो रहेगा ही। मगर एक नया बदलाव भी लोगों को पसंद आएगा।’’

रिजवान मुअज्जम

कव्वाली का नई तकनीक से संबंध 1925 में तब जुड़ना शुरू हुआ जब अपने समय के नामी कालू कव्वाल की आवाज को ग्रामोफोन पर रिकार्ड किया गया। यह सिलसिला चला तो कई और मशहूर कव्वालों ने भी इसे जारी रखा। इनमें शेख लाल, रघुनाथ यादव, मुहम्मद बशीर, अजीम प्रेम रागी, मुमताज हुसैन, स्वालेह मुहम्मद, इस्माइल आजाद की कव्वालियां लोगों में बहुत लोकप्रिय हुईं। उस समय की रिकार्डेड कव्वाली ‘हाजी मलंग दूल्हा...’ काफी मशहूर हुई। इसके अलावा जॉनी बाबू कव्वाल की ‘दमादम मस्त कलंदर’, अजीज नाजां की ‘गुरु ख्वाजा मैं तोरी गली आई’, हाथरस के शंकर-शंभू कव्वाल की जोड़ी की गाई ‘महबूब किबरिया से मेरा सलाम कहना’ आदि ने सुनने वालों के दिलों पर गहरा असर छोड़ा। इसी के बाद से कव्वालों की मशहूर जोड़ियों के नाम सामने आए। वारसी और साबरी बंधु की गाई ‘छाप तिलक सब छीनी’, ‘दमादम मस्त कलंदर’ जैसी कव्वालियों ने इन जोड़ियों को अलग पहचान दिलाई। वहीं कव्वाली के बादशाह कहे जाने वाले उस्ताद नुसरत फतेह अली खां ने भी कव्वाली में शास्‍त्रीय संगीत का संगम कर अभिनव प्रयोग किए।

बदलते दौर में कव्वाली की भी दो धाराएं हो गई हैं, पारंपरिक और फिल्मी। हालांकि फिल्मों में आने के बाद पारंपरिक कव्वाली के स्वरूप में कुछ बदलाव आए हैं। सौ साल के फिल्मी सफर में कव्वाली की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता। 1944 में पहली बार फिल्म नाइट बर्ड के गाने में कव्वाली का अंदाज दिखा था। इसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा और तब से लेकर आज तक सूफी संगीत की तर्ज पर कई कव्वालियों ने सुनने वालों के मन को मोहा है।

फिल्मों में कव्वाली को अलग अंदाज में संगीतबद्ध करने का श्रेय संगीतकार रोशन को जाता है। उनके संगीत से सजी ‘न तो कारवां की तलाश है’ और ‘ये इश्क-इश्क है’ जैसी कव्वालियां आज भी लोगों के जहन में ताजा हैं। हैदराबाद के मशहूर कव्वाल ‘वारसी बंधु’ के नसीर अहमद खां वारसी फिल्मी कव्वालियों को महज मनोरंजन का एक साधन मानते हैं। वहीं सूफी संगीत को युवाओं में लोकप्रिय बनाने वाले कैलाश खेर ऐसा नहीं मानते। उनके मुताबिक, ‘‘फिल्मी कव्वाली पारंपरिक कव्वाली की ही तर्ज पर बनाई जाती है। हालांकि इसका उद्देश्य अलग होता है। यह फिल्म की स्क्रिप्ट को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती है। मुक्तक कव्वालियां भक्त से भगवान की ओर या कह सकते हैं शिष्य से गुरु की ओर ले जाती हैं। पारंपरिक और फिल्मी कव्वाली की कोई तुलना नहीं की जा सकती। बदलते समय के साथ भाषा और वेशभूषा में जो बदलाव होता है, इसी तरह का बदलाव कव्वाली में भी हो रहा है। हमारे यहां संतों की धरती है। यहां कबीर हुए, अमीर खुसरो हुए। जिस गंगा-जमुनी तहजीब को इन संतों ने आगे बढ़ाया आज का हम सबका सूफी संगीत भी उसी का एक हिस्सा है। इसे इस तरह कह सकते हैं कि कव्वाली का स्वरूप बदल कर फिल्मों में प्रयोग किया जा रहा है।’’

कैलाश खेर

फिल्मी कव्वालियों के अलावा मुकाबला कव्वालियों का भी चलन रहा है। यह कब से है यह कहना मुश्किल है, लेकिन पारंपरिक कव्वाली विधा में महिला-पुरुष कव्वाली मुकाबले का निषेध है। इस बारे में मुअज्जम अली खां कहते हैं, ‘‘आज औरत और मर्द के बीच जो कव्वाली के मुकाबले होते हैं उनके बारे में मैं यही कहूंगा कि इसमें औरतों का इस तरह गाना मना है। कव्वाली को इबादत से जोड़कर देखा जाता है और इसकी महफिलों में अक्सर सूफी, औलिया मौजूद होते हैं। ऐसे में इन महफिलों में इस तरह के मुकाबले कैसे हो सकते हैं। महिलाओं का मंचों पर या रेडियो पर मर्दों के साथ गीत गाना तक तो ठीक है पर सूफी संगीत में औरत-मर्द का मुकाबला करना, यह हमारे यहां नहीं होता। मैं खुद भी इस चीज को अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसमें अदब, एहतराम का और दीन, मजहब का भी एक लिहाज है, एक दायरा है।’’

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