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गिरिजा देवी: एक युग का अंत

सुर निचले हों या ऊपर के, उनका निशाना अचूक होता था और आवाज की बुलंदी वैसी ही बनी रही
गिरिजा देवी

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि हिंदुस्तानी संगीत की शीर्षस्थ गायिका गिरिजा देवी के निधन के साथ ही एक युग का अंत हो गया है। यूं तो हर बड़ी शख्सियत के निधन को अपूरणीय क्षति बताने की रस्म है, लेकिन गिरिजा देवी के निधन के बारे में यह कहना रस्म अदायगी नहीं है क्योंकि उनके जाने से जो शून्य पैदा हुआ है, उसके भरने की फिलहाल कोई संभावना नजर नहीं आ रही। इस समय एक भी गायक या गायिका ऐसा नहीं है जो उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने के प्रति आश्वस्ति जगाता हो। उनका खाली स्थान बहुत समय तक खाली ही रहेगा। उसे भरने की क्षमता वाला कलाकार कब संगीत के क्षितिज पर उदित होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। 

गिरिजा देवी के गायन में बनारस की संगीत परंपरा अपनी पूरी भव्यता और ठसक के साथ दिखाई देती थी। रसूलन बाई और सिद्धेश्वरी देवी के बाद वे ठुमरी, दादरा, टप्पा, होरी, कजरी, चैती और झूला आदि गाने वाली अपने समय की अप्रतिम कलाकार थीं और इस समय जो भी गायक-गायिकाएं इस क्षेत्र में सक्रिय हैं, वे सभी बस ठीक-ठाक भर हैं। जैसी कलात्मक सौंदर्य और रचनात्मक विविधता से पूर्ण बोल-बनाव की ठुमरी, जैसा मोहक एवं मर्मभेदी दादरा, जैसा चंचल और फिरतयुक्त टप्पा, जैसी मनचली होरी और जैसी तड़प वाली कजरी और चैती हमें गिरिजा देवी सुना गई हैं, वैसी अब फिर सुनने में नहीं आने वाली। दो सदियों से अधिक समय से चली आ रही बनारस की इस परंपरा की वे अंतिम कड़ी थीं। इस संसार से उनकी विदाई के साथ ही इस परंपरा की विदाई भी हो गई है। इसी अर्थ में उनका निधन एक युग का अंत है।

गिरिजा देवी की प्रसिद्धि उनके ठुमरी-दादरा-टप्पा और कजरी-चैती-झूला आदि के गायन के लिए थी, खयाल गायन के लिए नहीं। लेकिन हमेशा वे अपने कार्यक्रम की शुरुआत कम-से-कम आधा घंटा बड़ा और छोटा खयाल गाकर किया करती थीं। इस विषय में मुझे बहुत लंबे समय तक उलझन रही क्योंकि वे खयाल गायन में भली-भांति प्रशिक्षित होने के बावजूद मूलतः खयाल की गायिका नहीं थीं। यूं भी बनारस के खयाल गायन की उस अर्थ में अपनी कोई अलग और विशिष्ट पहचान नहीं है जिस अर्थ में ग्वालियर, किराना, आगरा, जयपुर या पटियाला घराने के खयाल गायन की है। आवाज लगाते ही पता चल जाता है कि गायक किस घराने का यानी खयाल गायन के किस संप्रदाय का प्रतिनिधि है। लेकिन बनारस के खयाल गायकों के साथ ऐसा नहीं होता। वहां के सफल गायकों की शैली अनेक शैलियों के कलात्मक मिश्रण से बनी हुई होती है। मुझे लगता था कि खयाल गाकर गिरिजा देवी यह सिद्ध करना चाहती हैं कि वे ठुमरी-दादरा-टप्पा जैसे उपशास्‍त्रीय समझे जाने वाले गायन-प्रकारों में ही सिद्धहस्त नहीं हैं बल्कि खयाल जैसे शास्‍त्रीय प्रकार को भी निपुणता के साथ गा सकती हैं। दरअसल, बीसवीं शताब्दी के आरंभ में खुले संगीत विद्यालयों और उनमें स्वीकृत पाठ्यक्रमों ने उनमें श्रेष्ठ और हीन की श्रेणीबद्धता स्थापित की और ध्रुपद एवं खयाल गायन को शास्‍त्रीय यानी सबसे ऊंचा दर्जा, ठुमरी-दादरा-टप्पा आदि को उपशास्‍त्रीय यानी उससे निचला दर्जा और भजन एवं गीतों को सुगम यानी सबसे नीचा दर्जा दिया गया। यह अलग बात है कि उस समय के गायक और संगीत के संरक्षक रईस लोग और राजे-महाराजे तथा नवाब इस प्रकार के वर्गीकरण से न तो परिचित थे और न इसे मानते ही थे। उस्ताद फैयाज खां जैसे खानदानी और दिग्गज गायक ध्रुपद-धमार, खयाल, ठुमरी, दादरा, होरी और यहां तक कि गजल भी धड़ल्ले से गाया करते थे और हर रंग में अपना सिक्का जमाने की क्षमता के कारण चौमुखे गायक कहलाते थे। जब मैंने हिंदी के यशस्वी कथाकार अमृतलाल नागर की पुस्तक ये कोठेवालियां में विद्याधरी बाई के साथ उनकी बातचीत का विवरण पढ़ा, तब मेरी आंखें खुलीं और मुझे पता चला कि गिरिजा देवी भी इसी परंपरा में दीक्षित थीं। यह बातचीत संभवतः 1950 के दशक के अंत में हुई थी। उस समय विद्याधरी बाई की उम्र नब्बे वर्ष के आसपास थी और नागर जी के साथ सिद्धेश्वरी देवी के बारे में वे ‘यह लड़की’ कह कर बात कर रही थीं। उन्होंने बताया कि उनकी समकालीन लगभग सभी गायिकाएं ठुमरी-दादरा-टप्पा और अन्य प्रकारों के साथ ही खयाल भी गाती थीं। किसी राजा के यहां हुई अपनी ही एक यादगार महफिल का जिक्र करते हुए उन्होंने नागर जी को बताया कि पहले उन्होंने मालकौंस में खयाल और तराना गाकर रंग जमाया और फिर ठुमरी-दादरा की ओर मुड़ीं।

गिरिजा देवी इस परंपरा की आखिरी प्रतिनिधि थीं। दिसंबर 2014 में मैंने उन्हें भुवनेश्वर में सुना था। तब भी उनकी उम्र 85 साल हो चली थी। निचले सुर हों या ऊपर के, उनका निशाना अचूक होता था और आवाज की बुलंदी बरकरार थी। सभी अलंकारों का यथोचित प्रयोग करते हुए उन्होंने अपने गाने में उसी आस और पुकार के दर्शन कराए जिसके लिए लोग ठुमरी-दादरा सुनने को तरसते हैं। उम्र का मानो उन पर कोई असर ही नहीं था। उनकी आवाज कोमल नहीं बल्कि फौलादी दृढ़ता लिए हुए थी और थोड़ी-सी नेकनी भी थी। किसी और गायिका के लिए यह दोष साबित हो सकता था लेकिन यह उनकी विशिष्टता बन गई थी, बहुत कुछ वैसे ही जैसे बेगम अख्तर की आवाज का ऊपर जाकर टूटना भी ऐसा हो गया था जैसे सुंदर कपोल पर काला तिल।

अब न उनके जैसी आवाज सुनने को मिलेगी, न भावप्रवणता और कलात्मकता से भरा-पूरा गाना। मल्लिकार्जुन मंसूर द्वारा गाया यमनी बिलावल याद आ रहा है, “आली री! कितवे गए लोगवा, उन संगत सुख पायो रे...”

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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