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अब जमीन नहीं करती मालामाल

परियोजनाओं के ठप पड़ने से मांग टूटी, दाम घटे तो मुनाफा की उम्मीद में निवेश करने वाले हुए नाउम्मीद, चौतरफा निराशा का माहौल
खरीदार का इंतजारः लखनऊ के बाहरी इलाके में खाली पड़े प्लॉट

उत्तर प्रदेश का रियल एस्टेट कारोबार 5-6 साल पहले देश में अग्रणी पायदान पर था, पिछले एक-दो साल से उसके सितारे गर्दिश में हैं। या तो नए प्रोजेक्ट्स नहीं आ रहे हैं, या फिर जो पहले से थे, वह मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। सितंबर, 2013 में औद्योगिक संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2013-14 के प्रथम तिमाही में उत्तर प्रदेश देश में रियल एस्टेट की 40 प्रतिशत नई परियोजनायों की हिस्सेदारी के साथ प्रथम स्थान पर खड़ा था। हालांकि रिपोर्ट में यह बात भी निकल कर आई थी कि यूपी रियल एस्टेट परियोजनाओं को पूरा करने में काफी पीछे रहा था, जिसको लेकर चिंता भी जताई गई थी।

क्षेत्रफल और आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्यों में शुमार और कृषि प्रधान राज्य होने के नाते उत्तर प्रदेश में जमीन का मोल लोग बखूबी समझते हैं। अस्सी के दशक के बाद थमे औद्योगीकरण के चक्के की भरपाई उदारीकरण के दौर ने करनी शुरू की तो नई-नई सरकारों के साथ नए-नए जमीन घोटाले सामने आए। इस बीच, राज्य में उद्योगों को लुभाने की कई कोशिशें हुईं लेकिन ऐसे प्रयास खास जमीन तैयार नहीं कर पाए। अब बदले आर्थिक माहौल में राज्य में शहरीकरण के लिए उपयुक्त और कृषि योग्य जमीन के भाव गिरावट की ओर हैं। मिसाल के तौर पर, पांच-छह साल पहले लखनऊ के बाहरी इलाके में रियल एस्टेट प्रोजेक्ट के लिए एक एकड़ भूमि करीब एक करोड़ रुपये में उपलब्ध थी। बाजार के जानकार बताते हैं कि आज भी यह जमीन इसी दाम पर मिल रही है। फिर भी खरीदार नहीं हैं।

देखा जाए तो डेवलपरों और निवेशकों के लिए यह जमीन खरीदने का सुनहरा मौका है क्योंकि कई साल से दाम नहीं बढ़े या फिर कीमतों में गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन मकान खरीदारों की कमी और कमर्शियल प्रॉपर्टी की मांग में गिरावट ने इस मौके को बेमानी बना दिया है। लखनऊ में जमीन की खरीद-फरोख्त से जुड़े एक कारोबारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि शहर के गोमती नगर इलाके में उसने पांच वर्ष पहले 80 लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से हाउसिंग प्रोजेक्ट के लिए जमीन खरीदी थी। आज उसी इलाके में किसान 40 लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से जमीन बेचने को तैयार हैं। इस कटु अनुभव ने जमीन को लेकर उनकी धारणा बदल दी है। अब वह नई जमीन खरीदने से पहले सौ बार सोचेंगे।

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रियल एस्टेट कंपनी पार्थ इन्फ्राबिल्ड के प्रमोटर और एसोसिएशन ऑफ मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएमडीए) के पूर्व अध्यक्ष पीएन मिश्रा ने बताया कि मौजूदा समय में खरीदार बाजार से दूर हैं। इससे डेवलपरों की आमदनी और निवेश प्रभावित हुआ है। इसके अलावा जीएसटी के तहत बिल्डिंग मैटेरियल सप्लायरों के लिए भी रजिस्ट्रेशन करना अनिवार्य हो गया है। इन वजहों से भी रियल एस्टेट सेक्टर में उदासी का माहौल बन गया। उन्होंने हाल ही के एक अन्य प्रस्तावित नियम, जिसके तहत बिल्डर्स को किसी भी प्रोजेक्ट के लिए 10 प्रतिशत ही अग्रिम धनराशि लेने की बाध्यता है, का हवाला देते हुए दावा किया कि मौजूदा समय में भी 5-6 प्रतिशत से अधिक कोई भी बिल्डर अग्रिम धनराशि नहीं ले पा रहा है। वहीं, सरकार 10 प्रतिशत की बात कर रही है। मिश्रा के मुताबिक, “सरकार की ओर से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि मानो रियल एस्टेट सेक्टर में बूम आया हुआ है और बिल्डर खूब पैसा कमा रहे हैं और जिस पर लगाम कसी जाएगी। इस अंकुश के चक्कर में जो थोड़े बहुत खरीदार थे वे भी मार्केट से गायब हो गए हैं।”

रियल एस्टेट सेक्टर की मौजूदा दिक्कतों के बावजूद छोटे शहरों और कस्बों में जमीन के छोटे टुकड़ों या प्लॉट को लेकर लोगों का आकर्षण बना हुआ है। बिजनौर जिले के कान्हा नंगला गांव के प्रदीप देशवाल बताते हैं कि उनके गांव में खेती की जमीन दो लाख रुपये से पांच लाख रुपये प्रति बीघा के रेट पर बिक रही है। तीन-चार साल पहले भी तकरीबन यही रेट था। महानगरों में रियल एस्टेट की हालत से इतर स्थानीय निवेशकों के लिए यह अच्छा मौका है। इस मौके का फायदा उठाने के लिए कई ऐसे लोग भी खेती की जमीन खरीद रहे हैं जिन्होंने कभी खेती नहीं की या फिर बंटाई पर खेती करते रहे हैं। प्रदीप का मानना है कि ग्रामीण स्तर पर जमीन का आकर्षण बना रहेगा। हालांकि, जमीन से मालामाल होने के मौके अब पहले जैसे नहीं हैं। फिर भी शहरों की जमीन से लेकर खेती की जमीन तक एक स्वाभाविक क्रेज तो है ही।

ऐसे में सबसे ज्यादा दिक्कत उन लोगों की है जिन्होंने अल्प अवधि में मुनाफे की उम्मीद में जमीनों में निवेश किया था। इन लोगों के पास औने-पौने दाम जमीन बेचने या फिर अच्छे समय के इंतजार में प्रॉपर्टी को होल्ड करने के बजाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है। बैंकों से कर्ज लेकर लैंड बैंक बनाने वाले बिल्डरों या फिर बड़े पैमाने पर खेती की जमीन खरीदने वाले निवेशकों की हालत सबसे ज्यादा खराब है। पिछले एक दशक में बड़े पैमाने पर छोटे व मझोले कारोबारियों ने हाईवे के आसपास खेती की जमीन में निवेश किया है। बैंकिंग और प्रॉपर्टी सेक्टर के जानकार इस निवेश से कर्ज के डूबने की आशंका जता रहे हैं। कुछ साल पहले जब ये जमीनें खरीदी गईं तब ब्याज दरें काफी ऊंची थीं। आशंका यह भी है कि अगर प्रॉपर्टी बाजार में सुस्ती का सिलसिला जारी रहा तो बैंकों के डूबते कर्ज (एनपीए) में बड़ा इजाफा हो सकता है।

जमीन से जुड़ी दिक्कतें सिर्फ रियल एस्टेट सेक्टर की सुस्ती की देन नहीं हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर और औद्योगिक परियोजनाओं में देरी और लालफीताशाही के चलते भी कई बड़ी परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। इससे भी जमीन की मांग और दाम फीके हुए हैं। तीन साल पहले उत्तर प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में करीब 20-22 लाख आवासों की कमी का अनुमान लगाया गया था। इस दौरान कुल करीब एक लाख आवास ही लाभार्थियों के सुपुर्द हुए हैं। इस तरह आवास की मांग और आपूर्ति के बीच बुनियादी अंतर बना हुआ है। इसी पर भविष्य की उम्मीदें टिकी हैं कि आज नहीं तो कल हालात बेहतर होंगे।

बाजार की सुस्ती के बीच सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण जमीन से पैसा कमाने के इच्छुक लोगों को खास लुभा रहा है। यही वजह है कि प्रदेश में बड़ी सरकारी योजनाओं के लिए जमीन की कमी पेश नहीं आई। पिछली अखिलेश यादव सरकार की सबसे बड़ी परियोजना आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे के लिए सरकार ने किसानों से जमीनें खरीदीं और यह प्रक्रिया बिना किसी बड़ी अड़चन या विरोध के पूरी हो गई। वजह साफ थी, सरकार ने बाजार मूल्य से ज्यादा मुआवजा जमीन मालिकों को दिया।

नोटबंदी और जीएसटी के साथ-साथ रियल एस्टेट रेगुलेशन एक्ट (रेरा) की वजह से भी प्रॉपर्टी बाजार में सुस्ती का माहौल है। रेरा के पूरी तरह अमल होने के बाद बिल्डरों के लिए खरीदारों के पैसे को किसी दूसरे प्रोजेक्ट या उद्देश्य पर खर्च करना मुश्किल हो गया है। रियल एस्टेट कंपनी ओमेक्स के निदेशक मुकेश कुमार का कहना है कि फिलहाल लोगों ने रेरा और जीएसटी को लेकर एक भय का माहौल है। लेकिन उम्मीद है कि आने वाले समय में रेरा खरीदारों का भरोसा लौटाने में मददगार साबित होगा। उससे बाजार में मांग बढ़नी शुरू होगी और तभी जमीन की रौनक वापस आ सकती है। 

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