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जमाया प्रयोगधर्मिता का सिक्का

जेपी को संगीत में परिवेश के यथार्थ और बिंबों को उभारने में महारत हासिल थी
प्रयोगों के संगीतकारः जेपी कौशिक

जगफूल कौशिक यानी जेपी का संगीत प्रयोगों का संगीत है। संगीत में उन्होंने नवीनता की शुरुआत की। पार्श्वसंगीत का महत्‍व जेपी का संगीत सुनकर ही जाना जा सकता है। फिल्म शहर और सपना (1963) में उन्‍होंने व्‍यावसायिक बंबई का यथार्थपरक पार्श्वसंगीत तैयार किया जिसमें हथौड़ों, बसों के हॉर्न, मशीनों और साइ‍किलों की घंटियों की आवाजें थीं। उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी को ध्‍वनियों में तलाशा। शहर और सपना का थीम संगीत भी मधुर था। एक सीन में नव वर-वधू कमरे में हैं, बाहर एक पात्र वायलिन बजा रहा है। वायलिन की धुन वहां रूमानियत की अद्भुत सृष्टि करती है। फि‍ल्‍म का एकमात्र पार्श्वगीत चार भागों में मनमोहन कृष्‍ण ने गाया था। प्रसिद्ध उर्दू शायर अली सरदार जाफरी लिखित इस गीत के साथ ऑरकेस्‍ट्रा के पैंतालीस टुकड़े प्रयोग में लाए गए थे। 1963 में ‘स्वर्ण कमल’ से पुरस्कृत शहर और सपना की विशिष्‍टताओं में जगफूल कौशिक का संगीत महत्‍वपूर्ण था।

ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास की हमारा घर (1966) और आसमान महल (1965) में जेपी फिर से प्रयोगधर्मी संगीत के साथ मुखातिब हुए। हमारा घर में इकबाल की रचना ‘सारे जहां से अच्‍छा’ उन्‍होंने नई गायिका विजया मजूमदार से गवाया। पर विजया का विशिष्ट गीत, धीमी हवा की अनुभूति कराता कर्णप्रिय गीत ‘चले हवा पुरवाई, उषा जगमग-जगमग आई’ था। सरदार जाफरी की यह रचना आज भी रस घोलती है। आसमान महल में हैदराबाद के नवाबी सामंतवादी काल और उसके विघटन को पूरे अंतर्विरोधों के साथ प्रस्‍तुत करने की कोशिश थी। पृथ्‍वीराज कपूर के विराट अभिनय के अलावा इस फि‍ल्‍म की विशिष्‍टता थीम के अनुरूप संगीत था। इसका थीम म्‍यूजिक वैभव लिए हुए था। जब आसमान महल का परिचय दिया जाता है उस समय थीम म्‍यूजिक दर्दीला बन जाता है। एक ही संगीत को परिस्थितियों के अनुसार बदलकर प्रस्‍तुत करना जेपी की प्रतिभा बताता है।

आसमान महल में अद्भुत संगीतात्‍मक दृश्‍य है जहां नायक नशे की हालत में एक कोठे से निकाल दिया जाता है। दूसरे कोठे पर एक नृत्यांगना नाच रही है, तीसरे पर दो नृत्‍यांगनाएं नाच रही हैं। ये तीनों गाने एक साथ बजते हैं। पहले एक का अंतरा फिर दूसरे का और फिर तीसरे का। तीनों के सुर-ताल का मेल बैठाती अद्भुत कृति तीन मुखड़ों ‘मैं शराबी हूं’ ‘हजारों ख्‍वाहिशें ऐसी’ और ‘पी के हम तुम जो चले झूमते मैखाने में’ (महेंद्र, विजया मजूमदार) की संतुलित कंपोजीशन प्रभावित किए बिना नहीं रहती। आसमान महल के ही एक दृश्‍य में मधुर स्‍वर में ‘ऐ रात जरा आहिस्‍ता गुजर’ (गीता) मन को छू रहा होता है वहीं दूसरी ओर पाजेब का कर्कश स्‍वर ‘तन तना तन मौत की बजती है झांझन’ के साथ मौत का आह्वान कर रहा होता है। अलग-अलग परिस्थितियों को बांध कर जेपी प्रयोगधर्मिता का सिक्‍का जमा देते हैं। जेपी आसमान महल में सरदार जाफरी और मजाज दोनों की शायरी उतनी ही खूबसूरत तर्जों में बांधते हैं। ‘तूने समझा ही नहीं क्‍या है हकीकत मेरी’ (विजया), ‘खूबसूरत है तेरी तरह शिकायत तेरी’ (महेंद्र), ‘मैं आहें भर नहीं सकता मैं नगमे गा नहीं सकता’ (महेंद्र, विजया) वगैरह।

कौशिक का संगीत प्रयोगों के साथ यथार्थवादी रहा। फि‍ल्‍मों के परिवेश के यथार्थ को  बारीकियों और बिंबों के साथ उभारने में उनकी यह कला सामने आई। सामंतवादी परिवेश के लिए महफिलों की संगीत-शैलियां,  शहरी यांत्रिकता के लिए प्रतीकात्‍मक संगीत, ग्राम्‍य जीवन के अनुरूप लोकरंजक यानी सभी प्रकार का संगीत उन्‍होंने दिया। यह अलग बात है कि गजलों में उनकी रचनात्‍मकता खूबसूरती से उभरी। प्रतिभा के बावजूद जेपी सिर्फ ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास के संगीतकार बनकर रह गए। अन्‍य निर्माताओं का ध्‍यान उनकी ओर नहीं गया। अब्‍बास की ही बम्‍बई रात की बांहों में (1967)  में उनका संगीत था पर हसन कमाल के गीत सरदार जाफरी वाली बात न ला सके। वैसे ‘दिल जो दुनिया के गमो-दर्द से घबराया है’ (महेंद्र, सुलक्षणा पंडित) और ‘उसने जो कहा मुझसे एक गीत सुना दो ना।’ (कृष्‍णा कल्‍ले) अच्‍छे गीत थे।

सात हिंदुस्‍तानी (1969) के लिए अब्‍बास ने जगफूल को संगीत का दायित्‍व सौंपा पर वह असफल रहे। इसी बीच उन्होंने भारत-कथा नामक दो रील की एक फि‍ल्‍म का संगीत भी दिया, जिसमें रामायण की लोकधुनों से लेकर, रागमालिका, कव्‍वाली और गजल का समावेश था। इसके बाद के दशक में जेपी गायब से रहे। बस्‍ती और बाजार (1977)  में ‘अगर आहें भरते बदनाम होते’ (मन्‍ना डे, बेला सावेर) अच्‍छी कृति थी। जेपी द्वारा संगीतबद्ध मुकेश के गाए ‘आज गगन से चंदा उतरा’ और ‘बात अधूरी रह गई’ जैसे गैर फि‍ल्‍मी गीत भी लोकप्रिय रहे। बहुत बाद में आंखिन देखी (1978), धमाका (1980) और सिस्‍टर (1980) में संगीतकार के रूप में जेपी फिर आए। आंखिन देखी में राग जोगिया कलिंगड़ा में रफी से पारंपरिक रचना ‘उठ जाग मुसाफिर भोर भई’ उन्‍होंने अच्‍छा गवाया था। इसी फि‍ल्‍म का रफी, सुलक्षणा पंडित का गाया लोकशैली पर बना ‘सोना रे तुझे कैसे मिलूं’ लोक‍प्रिय रहा। धमाका में कौशिक (जेपी) ने निदा फाजली के कलाम ‘मौसम अपने मीत पुराने’ को महेंद्र कपूर से गवाया था। सिस्‍टर (1980) में कौशिक ने खोई हुई गायिका मुबारक बेगम से एक गजल ‘जिंदगी हम तेरी हद से गुजर गए’  को सितार, तबले और सारंगी के साथ गवाकर समां बांधा था। इसी फि‍ल्‍म में नए गायक राजदीप से मुशायरे शैली में ‘जुल्‍फें संवारने’ गीत अच्‍छा बना था। अधूरा मिलन के लिए उन्‍होंने नितिन मुकेश के स्‍वर में सुंदर रचना ‘बावफा हम हरदम रहे’ गवाई थी (जिसके बीट्स आर. डी. बर्मन के ‘तेरी कसम’ के ‘क्‍या हुआ एक बात पर बरसों का याराना गया’ से काफी मिलते हैं।) सांझी (1984) में भी जेपी ने विविध कंपोजीशंस का हुनर दिखाया। ‘रात में तारों भरी तनहाइयां’, ‘मुहब्‍बत से हमें अपना’ जैसी शायराना रचनाएं, राजस्‍थानी लोकशैली में ‘बादल रूठ्या री सखी’ या ‘बबम बम बम लहरी’, ‘मस्जिद में जा के’ जैसी ग्रामीण रंग की कव्‍वाली, पंजाबी लोकशैली की ‘मन्‍ने आवै हिचकी’ और मुजरा-शैली में ‘तोरे मुखड़े पे जम गई नजरिया’ जैसे गीतों का आकर्षण था पर बाजार नहीं। चंद्रावल (1988) और हरियाणवी फि‍ल्‍म लाड्डो बसंती के गीतों को क्षेत्रीय लोकप्रियता मिली पर हिंदी फि‍ल्‍मों की उनकी यात्रा समाप्‍त ही हो गई।

 (लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और संगीत विशेषज्ञ हैं)

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