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बी-स्कूल सावधान! सुधरो वरना बंद करो

घिसे-पिटे पाठ्यक्रम, कम योग्य फैकल्टी, रोजगार अक्षम स्नातक और सबसे बढ़कर उद्योग में मांग बेहद कम होने से बिजनेस स्कूलों के लिए खतरे की घंटी बजी
स्कूलों में है सुधार की जरूरत

अभी कुछेक साल पहले तक एमबीए का मतलब होता था पांच अंकों में तनख्वाह और हाई क्लास जीवन-शैली की तमाम सुख-सुविधाओं वाली ऊंची नौकरी का टिकट हासिल कर लेना। उद्योगों में मांग ज्यादा थी। सो, नौकरियां भी उसी तेजीसे मिलीं, जिस तेजी से बिजनेस स्कूलों से एमबीए बाहर आ रहे थे।

लेकिन उद्योग में आमद घटने और कंपनियों के सतर्क हो जाने के साथ देश भर में दनादन खुल रहे बिजनेस स्कूलों से एमबीए डिग्रीधारियों की निकलती भारी तादाद से हालात बदल गए। इस वजह से बी-स्कूलों के बहुत-से एमबीए डिग्रीधारियों को अच्छी नौकरी नहीं मिल पा रही है। पिछले साल एसोचेम के एक अध्ययन में साफ-साफ कहा गया कि भारतीय बी-स्कूलों से पास होने वाले सिर्फ सात फीसदी एमबीए ही नौकरी पाने के योग्य हैं, तभी खतरे की घंटी बज चुकी थी।

अध्ययन में कहा गया कि क्वालिटी कंट्रोल तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव, कैंपस प्लेसमेंट के जरिए कम वेतन की नौकरियां और कम योग्य फैकल्टी जैसी वजहों से बी-स्कूलों के लिए संकट ला रहा है। उभरते वैश्विक कारोबारी परिदृश्य में योग्य अध्यापकों को बनाए रखने और फैकल्टी में लगातार नई प्रतिभाओं को जोड़ने की प्रक्रिया ही कई बी-स्कूलों में नहीं है। इससे अक्सर कोर्स के पाठ्यक्रम भी पुराने पड़ जाते हैं।

बेशक, आइआइएम और टॉप 20 बिजनेस स्कूलों की गिनती इनमें नहीं है। ये उम्दा क्वालिटी के गढ़ हैं और अपने ग्रेजुएटों का शत-प्रतिशत प्लेसमेंट हासिल करने के काबिल हैं।

जानकार इस बेहतरीन पेशेवर पढ़ाई की इस मौजूदा दशा की दो मुख्य वजहें गिनाते हैं। एक, बी-स्कूलों की तादाद में अनियंत्रित इजाफे से एमबीए डिग्रीधारियों की अचानक बाढ़ आ जाना है। उद्योग के आकलनों के मुताबिक, देश में करीब 5,500 बिजनेस स्कूल हैं। इनसे हर साल एमबीए डिग्रीधारी निकल रहे हैं। इस तरह मांग-आपूर्ति का संतुलन गड़बड़ा गया है। टी.ए. पै मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (टीएपीएमआइ) के डायरेक्टर मधु वीराघवन का मानना है कि देश के आला 50 बी-स्कूलों के आगे जाते ही, क्वालिटी बुरी तरह गिर जाती है। इसलिए कंपनियां वहां भर्ती के लिए पहुंचती ही नहीं हैं। उनका कहना है, ‘‘अगर कच्चा माल ही गड़बड़ होगा तो तैयार माल तो गड़बड़ होगा ही।’’

इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के संस्थापक डीन प्रमथ राज सिन्हा कहते हैं, ‘‘यह धारणा बनी हुई है कि कॉरपोरेट जगत में ऊंची तनख्वाह वाली नौकरियों के लिए एमबीए डिग्री की दरकार है। इसलिए एमबीए लोकप्रिय हो गया और अनेक एमबीए कॉलेज और पाठ्यक्रम शुरू हो गए। ज्यादातर पाठ्यक्रम एमबीए डिग्रीधारियों की कुछ हद तक बेतुकी मांग का दोहन करने के ख्याल से ही खोले गए। सो, उनकी क्वालिटी बेहद कमजोर किस्म की थी। दूसरे विषयों की शिक्षा की तरह ही सिर्फ किताबी ज्ञान पर जोर दिया गया। उसके साथ प्रासंगिक प्रैक्टिकल की कोई व्यवस्था नहीं की गई। यही असली वजह है।’’

जाहिर है, इस अनियंत्रित बाढ़ में बाजार की ताकतों की बड़ी भूमिका रही। पिछले दशक में एमबीए डिग्रीधारियों की भारी मांग से मैनेजमेंट को पेशे के रूप में चुनने का फैशन हो गया। आइआइएम, कोझिकोड के पूर्व डायरेक्टर तथा इंटरनेशनल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (आइएमआइ) के डायरेक्टर जनरल देबाशीष चटर्जी कहते हैं, ‘‘एमबीए फैशन ने अजीब-सी एक धारणा बना दी कि एमबीए विलासितापूर्ण जीवन-शैली का पासपोर्ट है। बाजार और स्कूल कायम करने वालों के बीच एक किस्म की मिलीभगत थी। सो, जिस ढंग से एमबीए स्कूल तैयार किए गए और जैसे उनकी बाढ़ आ गई, उसी में काफी गड़बड़ी थी।’’

दूसरी वजह और गंभीर चिंता का विषय है कि नए बी-स्कूलों और वहां से निकलने वाले ग्रेजुएटों की कोई क्वालिटी ही नहीं है। टॉप 50 कॉलेजों के अलावा बाकी कॉलेजों से निकले छात्रों में मैनेजर बनने के बुनियादी हुनर ही नहीं हैं। डिलॉयट इंडिया के पार्टनर तथा चीफ टैलेंट अफसर एस.वी.नाथन कहते हैं, ‘‘इस गिरावट की बड़ी वजह से बिजनेस स्कूलों की बेहिसाब बाढ़ है। इन स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता का अंदाजा तो इसी से हो जाता है कि वहां की फैकल्टी और उसके सदस्यों को कितना रिसर्च के लिए और कितना नगद पैसा मिलता है। यह एक बड़ी वजह है। एक बड़ी समस्या यह है कि बी-स्कूलों का फोकस छात्रों के प्लेसमेंट पर ज्यादा होता है जबकि फोकस पाठ्यक्रम और पढ़ाई पर होना चाहिए।’’

तथ्य यह भी है कि ऐसे हलकों से छात्र एमबीए में आए जिनका रुझान असंगठित व्यवस्था में समस्या समाधान की ओर नहीं था, जो कॉरपोरेट क्षेत्र के किसी मैनेजर का अनिवार्य गुण होना चाहिए। विप्रो में चीफ लर्निंग अफसर तथा एचआर प्रोफेशनल अभिजित भादुड़ी कहते हैं, ‘‘आज बी-स्कूलों में करीब 90 फीसदी छात्र इंजीनियर हैं जिनके पास एक तरह के हुनर हैं लेकिन व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का कोई बना-बनाया ढांचा नहीं होता, उनके समाधान के लिए अलग तरह की हुनर की दरकार होती है, जो उनमें नहीं होती। इसके अलावा हमारी मूल व्यवस्था इम्तहान केंद्रित होती है और ज्यादातर छात्र इम्तहान पास करने के तरीके जान लेते हैं। लेकिन उसके अलावा उनमें हुनर की खासी कमी होती है।’’

कुछ मामलों में दोष बिजनेस स्कूलों का भी है क्योंकि वे बदलते वक्त के साथ नहीं बदल पाते हैं और अभी पढ़ाई के उसी पारंपरिक ढर्रे पर चल रहे हैं जो पुराना पड़ चुका है। भादुड़ी कहते हैं, ‘‘हर उद्योग में ऊंच-नीच होती है। आज एमबीए स्कूलों के साथ यही हो रहा है। शिक्षा के पाठ्यक्रम स्थिर जीवन के चित्रों की तरह तैयार किए गए हैं, जब तक मामला एक जैसा था सब ठीक था लेकिन अब जीवन के रंग पल-पल बदल रहे हैं, हर सेकेंड कुछ नया फ्रेम तैयार हो जाता है। इस तरह एमबीए पीछे छूट गए हैं और अब वे अंधी दौड़ का हिस्सा बन गए हैं।’’

आज ज्यादातर स्कूल केस स्टडी वाली पढ़ाई का तरीका अपनाते हैं, जिसकी शुरुआत हार्वर्ड जैसे वैश्विक बिजनेस स्कूलों में हुई और बाद में आइआइएम में अपनाई गई। लेकिन अब वे उससे आगे चले गए हैं जबकि ज्यादातर बी-स्कूल उसी पुराने ढर्रे पर अटके हुए हैं। नतीजतन, कई बी-स्कूल और कुछ नए आइआइएम भी दाखिले की सीटें पूरी भरने या अच्छा प्लेसमेंट का प्रदर्शन नहीं कर पाते।

अच्छे प्रतिभावान फैकल्टी पाना भी एक और संकट है। आइआइएम ही बेहतरीन अध्यापकों की तलाश में जुटे रहते हैं तो सामान्य बी-स्कूलों में तो अध्यापक कमतर प्रतिभा के ही होंगे। इसकी एक वजह यह भी है कि हर एमबीए आजकल उद्योगों में जाकर अच्छी कमाई करना चाहता है। बेहद थोड़े या कोई भी पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्र में नहीं जाना चाहता। इस कारण इन संस्थानों में शिक्षकों का अभाव रहता है। छोटे बी-स्कूलों की दूसरी समस्या उद्योगों से पर्याप्त संपर्क न होना है और उनकी पहचान न बन पाना है, जिससे छात्रों को पहली कतार के उद्योगों का अनुभव नहीं मिल पाता।

इसमें दो राय नहीं कि मैनेजर बनने के लिए दाखिला लेने वाले छात्रों की गुणवत्ता ही सबसे बड़ी समस्या है। नाथन कहते हैं, ‘‘मेरी आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम जो चाहते हैं और हमें जो मिल रहा है, उसमें बड़ा फर्क है। और यह फर्क हर साल बढ़ता ही जा रहा है। हमें छात्रों में अंग्रेजी की पढ़ाई-लिखाई आला दर्जे की चाहिए। यह पूरी तरह गायब है। ऐसे में भला वे कल के अगुआ कैसे बन सकते हैं? पूरी जमात में से सिर्फ तीन से पांच फीसदी ही नौकरी पाने योग्य हैं!’’

जानकारों का तो यह भी मानना है कि आज बी-स्कूलों से निकलने वाले ज्यादातर छात्रों में अच्छे मैनेजर बनने के बुनियादी हुनर भी नहीं हैं। वीराघवन कहते हैं, ‘‘उद्योग जगत की मांग सादे-सादे एमबीए से आगे बढ़ गई है। अब अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञों की दरकार है लेकिन बी-स्कूल यह मांग पूरा नहीं कर पा रहे हैं। नियोक्ता संवाद-संप्रेषण कला में माहिर लोग चाहते हैं लेकिन नए एमबीए डिग्रीधारियों में वह हुनर नहीं मिलता। इसके अलावा उनमें जांच-परख, समय का सही प्रबंधन जैसे गुणों का अभाव होता है और व्यावहारिक चुनौतियों का भी अंदाजा नहीं होता और सबसे बढ़कर वे समस्या का समाधान नहीं कर पाते, संकटमोचन नहीं बन पाते। इस वजह से 95 फीसदी एमबीए नौकरी योग्य नहीं हैं।’’

इससे निपटने के लिए, बकौल वीराघवन, बी-स्कूलों को हर दो साल में अपने पाठ्यक्रम को बदलने और उद्योग जगत की जरूरतों के हिसाब से सजाने-संवारने की दरकार है क्योंकि दुनिया तेजी से बदल रही है।

तो, भविष्य का नजरिया क्या हो? चटर्जी का तो कहना है कि टॉप 50 कॉलेजों को भी दबाव महसूस होगा क्योंकि स्वर्णिम दौर शायद बीत चुका है लेकिन वे बचे रह जाएंगे। ‘‘उनके अलावा बाकी बी-स्कूलों का करीब-करीब सफाया हो जाएगा।’’ बी-स्कूलों को लगातार उद्योग जगत के लिए अपने को प्रासंगिक बनाए रखना होगा। और यही सबसे कठिन है क्योंकि उद्योगों की जरूरतें लगातार बदलती जा रही हैं। टॉप बी-स्कूल तो ऐसा करने भी लगे हैं। अगर दूसरे भी ऐसा नहीं करेंगे तो वे उनकी बेमानी होने वालों की फेहरिस्त में शुमार हो जाएंगे या अपनी दुकान बंद करने पर मजबूर हो जाएंगे।

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