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बिजनेस स्कूलों को मिलेगी पंख फैलाने की आजादी

अधिक स्वायत्तता देने के सरकार के फैसले से आइआइएम बनेंगे ज्यादा प्रतिस्पर्धी
मजबूत नींवः आइआइएम अहमदाबाद जैसे कैंपस खोलते हैं कामयाब कॅरिअर की राह

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में भारतीय प्रबंधन संस्थान (आइआइएम) की सफलता की कहानी शायद सबसे अनूठी है। खासकर, जब बात अध्ययन और अनुसंधान की हो, कॅरिअर विकल्पों की हो, आइआइएम ग्रेजुएट बेहद आत्मविश्वासी होते हैं। उनकी अधिक मांग है। अच्छी-खासी तनख्वाह पाते हैं।

हाल ही में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भारत के दौरे पर थे। इस दौरान आइआइएम बंगलोर ने अपनी तरह के पहले भारत-जापान केंद्र की शुरुआत की। केंद्र के संस्थापक, उद्योगपति विक्रम किर्लोस्कर और उद्योग जगत के अन्य प्रतिष्ठित लोगों ने पुरजोर तरीके से इस पहल का समर्थन किया है। उनका मानना है कि विचार के इस साझा प्लेटफॉर्म से दोनों देशों को फायदा होगा। इसकी शुरुआत के समय को बिलकुल मुफीद बताते हुए किर्लोस्कर ने कहा कि यह केवल प्रबंधकीय तौर-तरीकों को समझने का मसला ही नहीं है। यह एक-दूसरे की संस्कृति, मानसिकता और सोच को समझने जैसा भी है। इससे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार को व्यापक गति मिलेगी।

आइआइएम बंगलोर के निदेशक मंडल की चेयरपर्सन किरन मजूमदार शॉ के मुताबिक, यह नए सिरे से विकास की ओर अग्रसर जापान और वाइब्रेंट इंडिया के साझा संबंधों के एजेंडे में योगदान देगा।

इस समय सरकार संस्थानों को वैश्विक स्तर पर सही मायनों में प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए कदम उठा रही है। इसके लिए आइआइएम बिल लाया गया है। लोकसभा में यह अगस्त में पारित हुआ। राज्यसभा और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह अमल में आएगा। इसके बाद सभी संस्थानों की स्वायत्तता में अभूतपूर्व इजाफा देखने को मिलेगा।

बिल के प्रावधानों के मुताबिक मौजूदा 20 से ज्यादा आइआइएम सरकारी नियमों से मुक्त हो जाएंगे। वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने, विदेशी शिक्षकों और छात्रों को आकर्षित करने, सफलता के शिखर तक पहुंचने के मानक तय करने के लिए संस्थान स्वतंत्र होंगे। आइआइएम उदयपुर के निदेशक जनत शाह ने आउटलुक को बताया कि प्रस्तावित बिल में जिस स्तर की स्वायत्तता का प्रावधान है, वह भारत में किसी संस्थान के पास नहीं है। ऐसा होने पर देश में उच्च शिक्षा की तस्वीर में आमूलचूल बदलाव आएगा। यह बिल भारतीय शिक्षा को दिशा देने का काम करेगा।

बिल से दो बड़े बदलाव होंगे। पहला, आइआइएम जो इस समय केवल डिप्लोमा देते हैं, डिग्री भी प्रदान कर पाएंगे। हालांकि भारत में आइआइएम के डिप्लोमा की काफी साख है। लेकिन, जब यहां से निकले छात्र विदेश में नौकरी या आगे की पढ़ाई के लिए आवेदन करते हैं तो डिग्री नहीं होना बाधा बन जाती है। इस तरह के मसलों को देखें तो यह कदम काफी प्रशंसनीय है।

सरकार ने जो दूसरा फैसला किया है वह मौलिक तौर पर बेहद अहम है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर इसे एक ऐतिहासिक फैसला मानते हैं। मौजूदा नियमों के मुताबिक आइआइएम के निदेशक मंडल के चेयरमैन और डायरेक्टर के लिए तीन-तीन नाम की अनुशंसा करने का अधिकार है। पर नियुक्ति को लेकर आखिरी फैसला सरकार ही करती है। नया कानून अमल में आने के बाद निदेशक मंडल सरकार के हस्तक्षेप के बिना नियुक्ति करने में सक्षम हो जाएंगे।

निदेशक मंडल में अपने नुमाइंदों की संख्या में भी सरकार ने कटौती की सिफारिश की है। मौजूदा स्तर से यह करीब आधा हो जाएगा। कई स्तरों पर तो केंद्र और संबंधित राज्य सरकार का एक से ज्यादा नुमाइंदा नहीं होगा। इन नुमाइंदों के पास अपनी बात कहने का अधिकार तो होगा, लेकिन बोर्ड उनकी अनुशंसा मानने को बाध्य नहीं होगा। बोर्ड के अन्य सदस्यों में नामचीन लोग, शिक्षक और पूर्व छात्र होंगे। पूर्व छात्रों का प्रतिनिधित्व मौजूदा स्तर से बढ़ाया जाएगा। ये बदलाव अन्य संस्थानों जैसे एम्स, आइआइटी के हालात से बेहद अलग होंगे। इन संस्थानों में निदेशकों की नियुक्ति करना सरकार जारी रखेगी। एक बार जब बिजनेस स्कूलों के प्रबंधन से सरकार हाथ खींचेगी, कैग निरीक्षण कर संसद में रिपोर्ट पेश करेगी ताकि पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।

शासकीय प्रणाली में इस स्वायत्तता से उम्मीद है कि ज्यादा अकादमिक आजादी हासिल की जा सकेगी। निदेशक मंडल के एक सदस्य ने बताया, इससे यह डर नहीं बना रहेगा कि सरकार के नियंत्रण में होने के कारण मेरे नवीन विचारों को बोर्ड से मंजूरी नहीं मिलेगी।

हालांकि आइआइएम से जुड़े शिक्षाविद मानते हैं कि शैक्षणिक स्तर पर अभी भी काफी स्वायत्तता है। खासकर, शुरुआती छह आइआइएम-बंगलोर, इंदौर, अहमदाबाद, कलकत्ता, कोिझकोड और लखनऊ को। आइआइएम इंदौर के निदेशक आर. कृष्णन ने बताया कि निःसंदेह शुरुआती छह आइआइएम को काफी स्वायत्तता मिली हुई है। अकादमिक तौर पर तो शत-प्रतिशत स्वतंत्रता है।

उल्लेखनीय तौर से संस्थानों द्वारा फीस बढ़ाने का कुछ साल पहले का उदाहरण है। एक समय कई आइआइएम ने सालाना फीस में पांच से 30 फीसदी का इजाफा किया था। उस समय, सरकार ने हस्तक्षेप किया था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जब मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे तो उन्होंने फीस बढ़ाने का विरोध किया था। वे चाहते थे कि आइआइएम अपने दृष्टिकोण को एक समिति के सामने रखें। लेकिन, आइआइएम के विरोध और एनडीए सरकार के चुनाव हारने के बाद यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

दिलचस्प यह है कि 90 के दशक के मध्य में वरिष्ठ शिक्षाविदों ने कहा था कि सरकार इस पक्ष में है कि आइआइएम अपनी फीस बढ़ाएं। इसके कारण दो साल के कोर्स की फीस 500 रुपये से बढ़कर 19 लाख रुपए से ज्यादा हो गई। आइआइएम इंदौर जैसे सुव्यवस्थित तरीके से संचालित संस्थानों ने बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को फीस में इजाफे का अधिकार दे दिया। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि फीस को लेकर सरकार की चिंता ज्यादा महीन है और वह मानती है कि छात्रों की जरूरत को लेकर संस्थान संवेदनशील हों। हालांकि आइआइएम से निकले स्‍नातकों को मोटी तनख्वाह मिलने की आमतौर पर गारंटी होती है, इसलिए प्रबंधन इस लिहाज से बेहद कम दबाव में होते हैं।

आइआइएम बंगलोर के निदेशक जी रघुराम ने आउटलुक को बताया कि सरकार की ओर से जब पूर्व में आइआइएम की वित्तीय मदद रोकी गई तो हमारे पास फीस तय करने की आजादी थी। पाठ्यक्रम और उसका पैमाना तय करने के लिहाज से तो हमे हमेशा से स्वायत्तता रही है। प्रो. रघुराम के मुताबिक सरकारी मदद के बिना सीटों में इजाफे के लिए भी हम स्वतंत्र हैं। सीट में इजाफा करते वक्त ओबीसी आरक्षण को ध्यान में रखना अनिवार्य है।

सीट और आरक्षण के मसले को परे रख दें तो आइआइएम के लिए एक गंभीर मसला यह है कि वास्तव में वे विदेशी छात्रों को आकर्षित करने में विफल रहे हैं। कुछ संस्थान 10 फीसदी सीट विदेशी आवेदकों के लिए रखने के बाद भी इस दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए हैं। इसका कारण आइआइएम की डिग्री से शीर्ष विदेशी संस्थानों में दाखिला नहीं हो पाना है। इस आधार पर अन्य विदेशी संस्थानों से आइआइएम प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं। उम्मीद की जा रही है कि ज्यादा स्वायत्तता मिलने के बाद आइआइएम अपने अकादमिक मानक को बेहतर कर सकेंगे और ज्यादा से ज्यादा विदेशी छात्रों को नामांकन के लिए लुभाने में कामयाब हो पाएंगे।

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शिक्षा के मानक को उठाने के लिए आइआइएम को अध्ययन और अनुसंधान की मजबूत संस्कृति और बेहतर वर्क कल्चर का निर्माण करना होगा। जहां से भी हो अच्छे शिक्षक लाने होंगे। छात्रों को प्रेरित करना होगा। विदेशी छात्रों तक पहुंचने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। जीमैट परीक्षा का आयोजन करने वाली जीएमएसी आइआइएम इंदौर और आठ अन्य बिजनेस स्कूलों के साथ मिलकर इस दिशा में काम कर रही है।

यह भी उम्मीद की जा रही है कि देश-विदेश में परिसर खोलने को लेकर आइआइएम पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। इस समय आइआइएम लखनऊ नोएडा में अपना एक परिसर चलाता है। हालांकि आइआइएम बंगलोर को परेशानियों का सामना करना पड़ा था जब उसने सिंगापुर में अपने एक चेप्टर की 2012 में शुरुआत की। संस्थानों को उम्मीद है कि भविष्य में ऐसे प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे।

संस्थानों के लिए बाजार के हालात के अनुसार खुद को ढालना भी आवश्यक है। सरकारी नियंत्रण वाले संस्थान आइआइएम को पारदर्शिता के मानकों को पूरा करना होगा, आरक्षण से जुड़े निर्देशों का पालन करना होगा। इसके अलावा वे प्राइवेट सेक्टर के साथ सहयोग को मुक्त होंगे।

प्रो. कृष्णन के अनुसार, अगर हम उद्योगों के साथ मिलकर कुछ करना चाहते हैं तो सरकार अब तक इसके रास्ते में नहीं आई है। ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो हमें उद्योगों के साथ संपर्क ज्यादा बढ़ाने से रोके। हम से ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी और खुलेपन की उम्मीद की जाती है। न तो सरकार और न ही कोई आइआइएम किसी खास कंपनी या औद्योगिक समूह की तरफदारी करना चाहता है।

प्रो. रघुराम भी इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा मानना है कि आइआइएम को स्वायत्तता मिलने का कंपनियां सम्मान करेंगी। वित्तीय मदद मुहैया कराने को वे ज्यादा स्वच्छंद होंगी। इसका उपयोग कैसे हो यह बोर्ड तय करेगा। वैसे ज्यादातर आइआइएम वित्तीय संसाधनों के लिहाज से स्वयं सक्षम हैं। प्रो. कृष्णन के अनुसार, अपनी जरूरतों से ज्यादा संस्थान कमा लेते हैं और वे वित्तीय मदद के लिए किसी कंपनी पर आश्रित नहीं हैं।

आत्मनिर्णय की ज्यादा आजादी से आइआइएम के बीच उत्कृष्टता को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। बोर्ड ऑफ गवर्नर रणनीति तैयार करेगा। प्रो. रघुराम के अनुसार, प्रतिस्पर्धा की भावना ज्यादा व्यापक होने से बेहतर प्रदर्शन का रास्ता खुलेगा। प्रत्येक आइआइएम क्षेत्र विशेष और खास सेक्टर को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार कर पाएंगे। यह स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर विकास में मूल्य संवर्धन करेगा। जब बात विशेष सेक्टर पर ध्यान की आती है तो आइआइएम इंदौर माइक्रो, माइक्रो और मीडियम इंटरप्राइजेज (एमएसएमई) पर ध्यान केंद्रित करना पसंद करेगा। संस्थान एक ऐसे क्षेत्र में है जो इस तरह के उद्योगों का केंद्र है और इस समय यह सेक्टर कई चुनौतियों से जूझ रहा है।

हालांकि इस तरह के संस्थानों में कोई भी बदलाव क्रमिक प्रक्रिया से ही संभव है। हर संस्थान एक दिशा तय करने और लंबे समय तक इसे जारी रखने में सक्षम होंगे और इसके परिणाम भी लंबे समय में सामने आएंगे।

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