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नए तेवर से जान फूंकने की तैयारी

अगले महीनों में संगठन चुनावों के बाद राहुल की अध्यक्ष पद संभालकर नई चुनौतियों पर खरा उतरने की कोशिश
नए जज्बे के साथः सोनिया गांधी के हमकदम राहुल और उनके नए नेताओं की टोली

इसे आप चाहें तो बर्कले ऐलान कह सकते हैं, जिसका कांग्रेस लगभग नौ साल से इंतजार कर रही थी। आखिर हाल में अमेरिका के बर्कले में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पहली बार खुलकर स्वीकार किया कि वे पूरी तरह जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं, बशर्ते पार्टी चाहे। मगर पार्टी तो तब से इंतजार कर रही है जब 2008 में पार्टी के बड़े नेता वीरप्पा मोइली ने “राहुल फॉर पीएम” का नारा बुलंद किया था और 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस बड़ी जीत के साथ उभरी थी। हिंदी प्रदेशों खासकर उत्तर प्रदेश में 22 सीटें जीतकर कांग्रेस की नई फिजा तैयार हुई थी। तब भाजपा के नेता भी अनौपचारिक बातचीत में युवाओं में राहुल के प्रति आकर्षण की बात स्वीकार करने लगे थे। मगर राहुल उदासीनता से नहीं उबर पाए। और 2014 के चुनावों में तो सारा नजारा ही बदल गया। सो, अभी भी पार्टी में कई तरह के स्वर उभर रहे हैं।

कांग्रेस के छोटे-बड़े नेता मान चुके हैं कि अक्टूबर के आखिर या नवंबर में राहुल गांधी का पार्टी के आंतरिक चुनावों के जरिए अध्यक्ष बनना तय है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, अक्टूबर के आखिर तक राज्य इकाइयों में संगठन के चुनाव हो जाएंगे। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर संगठन का चुनाव होगा, जिसमें राहुल गांधी का चुना जाना अब मात्र औपचारिकता है। मोइली मानते हैं कि इसी में देश और कांग्रेस दोनों का भला है। उनके मुताबिक यह गेमचेंजर साबित होगा।

वैसे, आप लुटियन दिल्ली में कांग्रेस के पुराने नेताओं से बात कीजिए। आजकल उनके चेहरों पर अजीब-सी हताशा या खिसियाहट के भाव दिखाई देंगे। चेहरे का यह भाव शायद कांग्रेस में बुजुर्ग और युवा नेतृत्व के नजरिए में फर्क का इजहार है। ज्यादातर असहमतियां राहुल गांधी की कार्यशैली, उनकी टीम और छवि को लेकर हैं। लेकिन पार्टी के समक्ष मौजूद चुनौतियों और समय से पहले अगले लोकसभा चुनाव की आहट के बीच इस तरह के अंदरूनी टकराव के लिए अब ज्यादा मौका नहीं है। इसलिए कांग्रेस से जुड़े सूत्र मान रहे हैं कि अब पुराने नेताओं ने भी हथियार डाल दिए हैं और महीने भर में राहुल गांधी और उनकी टीम बहुप्रतीक्षित बड़ी भूमिका में होगी। हालांकि, कांग्रेस में इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी जैसे अपेक्षाकृत नए चेहरों को प्रधानमंत्री बनाने के फैसले अचानक हुए थे। ये तीनों पुराने नेताओं की पूरी पीढ़ी को पीछे छोड़ आगे बढ़े थे। इसलिए राहुल गांधी की ताजपोशी कांग्रेस संगठन के लिए बहुत अलग तरह का फैसला नहीं है। इस दौरान उनकी छवि बनाने और चमकाने के तमाम प्रयास हुए।

राहुल के लिए दलितों के घर खाने से लेकर बाइक से भट्टा पारसौल पहुंचने और उत्तर प्रदेश में खाट पंचायत करने जैसे तमाम उपाय आजमाए जा चुके हैं। अमेरिका में उनका हालिया संवाद इसी कोशिश में नया पड़ाव है, जो कई मायनों में कारगर रहा। एक वैश्विक मंच से उन्होंने पार्टी और परिवारवाद जैसे मुद्दों पर खुलकर बात की। सीधे शब्दों में बता दिया कि बच्चन हों या अंबानी, गांधी परिवार हो या मुलायम कुनबा, भारत में यही चलता है। सूचना-प्रसारण मंत्री और अमेठी से चुनाव लड़कर हार चुकीं स्मृति ईरानी ने परिवारवाद पर उनके बयान पर खूब तंज कसे। लेकिन राहुल की साफगोई की सराहना करने वाले भी कम नहीं हैं। राहुल के भाषण पर हमला बोलने के लिए भाजपा ने जिस तरह अपने दिग्गज मंत्रियों को मैदान में उतारा, उससे उनकी अहमियत बढ़ी ही, कम नहीं हुई। दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने तो दिल्ली विश्व विद्यालय छात्रसंघ चुनाव में एनएसयूआइ को मिली जीत को भी राहुल के इसी भाषण से जोड़ दिया। कांग्रेस में चापलूसी की ऐसी होड़ कोई नई बात नहीं है।

बहरहाल, अमेरिका के भाषण से गदगद टीम राहुल ऐसे और भी आयोजनों की योजना बना रही है। भाजपा और केंद्र सरकार के व्यापक प्रचार अभियान से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस प्रचार और सोशल मीडिया के मोर्चे पर पुरानी चूक को दुरुस्त करने में जुटी है। सोशल मीडिया की जिम्मेदारी दीपेंद्र हुड्डा से लेकर कर्नाटक की अभिनेत्री से नेता बनीं दिव्या स्पंदना उर्फ रम्या को दिए जाने के बाद मीडिया के मामलों में पार्टी की मदद के लिए वरिष्ठ नेताओं का एक समूह भी बनाया गया है। इसमें पी. चिदंबरम, आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद, मणिशंकर अय्यर और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे पुराने नेता शामिल हैं। इस तरह की कोशिशों से नए-पुराने के बीच तालमेल बनाया जा रहा है।

सोशल मीडिया के मामले में कांग्रेस की कोशिशें साफ नजर आती हैं। उसके छोटे-बड़े ज्यादातर नेता फेसबुक, ट्वीटर पर मोदी सरकार और भाजपा के खिलाफ हमलावर रहते हैं। जब तक अमेरिका जैसे राहुल के भाषण न हों, टीवी और अखबारों की सुर्खियां बटोरना कांग्रेस के लिए चुनौती बना हुआ है, लेकिन सोशल मीडिया पर ग्राफिक्स, एनिमेशन और वीडियो के जरिए कटाक्ष का कोई मौका कांग्रेस चूकने के मूड में नहीं है। इसका अंदाजा राहुल के हाल के उस बयान में भी मिलता है, "मेरे पीछे  1000  लोग कंप्यूटर पर बैठा दिए गए हैं, जो लगातार भ्रम पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं।" हालांकि, सोशल मीडिया पर आक्रामक होने की होड़ के बीच मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं के दांव उलटे भी पड़ रहे हैं। लेकिन यह ऐसा मोर्चा है, जिसमें कोई पीछे नहीं छूटना चाहता। हाल के दिनों में नोटबंदी, जीडीपी, किसानों की दुर्दशा, आधार और पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम ने कांग्रेस को बैठे-बिठाए सरकार पर हमले के हथियार दे दिए हैं। गौर कीजिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की रिपोर्ट के बाद किस तेजी से पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने नोटबंदी पर निशाने साधे। सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ वे लगातार लिख रहे हैं। उनके तर्क भी बेहद पुख्ता और धारदार हैं।

कांग्रेसी नेताओं में 2014 तक इस किस्म की आक्रामकता का अभाव था। पिछले दिनों अहमदाबाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को युवाओं से अपील करनी पड़ी कि सोशल मीडिया की बातों में न आएं, अपना दिमाग लगाएं। दरअसल, “गुजरात में विकास पगला गया है” जैसे संदेश खूब वायरल हुए थे जो सोशल मीडिया पर कांग्रेस की बड़ी सक्रियता का सबूत है। माना जा रहा है कि रम्या के नेतृत्व में कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम पहले से बड़ी और मजबूत हुई है। फेसबुक, ट्वीटर के अलावा अब वाट्स ऐप भी प्राथमिकता में है और इसके लिए कम से कम 10-12 हजार वाट्स ऐप ग्रुप को लक्ष्य बनाया जा रहा है। सक्रियताएं इतनी ही नहीं हैं।

अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी से पहले इस प्रचार रणनीति के जरिए उनकी छवि चमकाने के प्रयास भी किए जाएंगे। इसके अलावा प्रोफेशनल्स को पार्टी से जोड़ने के लिए ऑल इंडिया प्रोफेशनल्स कांग्रेस की स्थापना की गई है, जिसका जिम्मा शशि थरूर के पास है। इसी तरह असंगठित क्षेत्र के लोगों और मजदूरों को जोड़ने की भी कोशिशें जारी हैं। आरटीआइ और मानवाधिकारों के लिए टीमें बनाई गई हैं। इन तमाम कोशिशों के बावजूद विपक्ष की प्रमुख ताकत के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए कांग्रेस को कई चुनौतियों से जूझना पड़ेगा। राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों को एकजुट करने की पार्टी की कोशिशें खास कारगर नहीं रहीं। अध्यक्ष बनते ही राहुल गांधी के सामने इन चुनौतियों का अंबार रहेगा। उनकी चुनौती दोहरी है। उन्हें पार्टी के भीतर और बाहर अपने नेतृत्व का दमखम साबित करना है और उम्मीदों पर खरा उतरना है।

बहरहाल, गुजरात से शुरू हुई कांग्रेस की चुनौती अब फिर गुजरात पहुंच गई है। शंकर सिंह वाघेला समेत कई विधायकों की बगावत के बाद किसी तरह अहमद पटेल की जीत ने राज्य में कांग्रेस को मनोवैज्ञानिक बढ़त दिलाई। इस बढ़त को थामने के लिए राहुल गांधी ने द्वारका से चुनावी अभियान की शुरुआत करने का फैसला किया है। इस दौरान वे बड़ी चुनावी रैलियों के बजाय पूरे गुजरात का सफर करेंगे। द्वारका के जरिए शायद कांग्रेस गुजरात के बहुसंख्यकों को संदेश देना चाहती है। देखना है, 12 दिनों का राहुल गांधी का यह कारवां कांग्रेस को कितना आगे ले जा पाएगा। मगर उनके कारवां के लिए चुनौतियां और भी हैं।

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