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अभिशप्त बचपन

अपनों और परायों की हवश और शोषण के शिकार मासूमों के मामलों में लगातार इजाफों से उभरे नए सवाल मगर सरकार और समाज की
बिना गुनाहों की सजा

हाल ही में चंडीगढ़ में मात्र दस साल की बच्ची ने एक बच्चे को जन्म दिया। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर के रख दिया। बच्ची के साथ कई दिनों तक दुष्कर्म होता रहा, वह गर्भवती हो गई और किसी को पता नहीं चला। जब जानकारी मिली तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि गर्भ गिराया नहीं जा सकता था। हाल ही में ब्रिटिश नागरिक द्वारा नेत्रहीन बच्चों से ज्यादती की खबरें आईं हैं। दिल्ली में ही एक सरफिरे ने दुष्कर्म के बाद कई बच्चों की हत्या करना कबूला है इन घटनाओं का कहीं कोई अंत नहीं है। लड़कियों की तरह लड़कों पर भी वैसा ही खतरा मंडरा रहा है। बच्चे लगातार विकृत दिमाग लिए घूम रहे लोगों के आसान शिकार बन रहे हैं। दोषियों को सजा देने की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि दोषियों को सजा दिलाने में सालों लग जाते हैं।

कुछ बच्चे इतने दुर्भाग्यशाली होते हैं कि उनके साथ महीनों कभी-कभी सालों ऐसी हरकतें होती रहती हैं और वे किसी को नहीं बता पाते। बच्चों को पता ही नहीं चलता कि उनके साथ क्या हो रहा है। ऐसा उन बच्चों के साथ ज्यादा होता है जो परिवार के ही किसी सदस्य द्वारा शोषित होते हैं। जब तक मामला बिगड़ न जाए बात बाहर नहीं आती। बच्चे इतने बड़े मानसिक सदमे में आ जाते हैं जिससे उबरना मुश्किल होता है। अनीशा* ऐसी ही बच्ची है जो पिछले दो सालों से पोस्ट ट्रामेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएस) से जूझ रही है। वह एक थेरेपी सेंटर जाती है जहां उसके साथ हुए हादसे को भुलाने और उसे सामान्य बच्चों की तरह रहने के लिए दवा, काउंसलिंग सब तरह की मदद दी जा रही है। दो सालों में इतना फर्क तो आया है कि वह अब अपने पापा के साथ सेंटर तक चली आती है। अनीशा की मम्मी कहती हैं, ‘‘पहले वह किसी भी मर्द को देख कर कांपने लगती थी।’’ अनीशा के पिता बैंक में उच्च अधिकारी हैं और मां एक नामी अंग्रेजी स्कूल में टीचर हैं। इस घटना से पहले परिवार संयुक्त था और घर में बड़े-छोटे मिला कर लगभग आठ बच्चे थे। लेकिन घर के एक बुजुर्ग ने इस परिवार का विश्वास और बच्ची की जिंदगी को तबाह कर दिया।

अपनों का कहर

यूनीसेफ द्वारा दो साल पहले कराए गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि ज्यादातर मामलों में शोषण करने वाले परिवार के भीतर या परिचित लोग होते हैं। यूनीसेफ की रिपोर्ट कहती है कि 69 प्रतिशत बच्चे परिवार के भीतर ही यौन शोषण का शिकार होते हैं। यूनीसेफ ने 13 राज्यों से नमूने इकट्ठे किए थे जिनमें 54.68 प्रतिशत लड़के थे। परिवार में कोई सोच भी नहीं सकता कि घर का ही सदस्य ऐसा करेगा और कई बार शोषण के मामले लंबे समय तक चलते रहते हैं। यही वजह है कि कई बार लंबे समय तक पता नहीं चलता और बच्चे का जीवन बदतर हो जाता है। ज्यादातर मामले पांच से ग्यारह साल तक के बच्चों के बारे में दर्ज किए जाते हैं। चूंकि बच्चों की निर्भरता बड़ों पर ही होती है इसलिए किसी वस्तु (चॉकलेट, आइसक्रीम, खिलौने) के एवज में उनके साथ क्या घट गया यह जानने के लिए वे बहुत छोटे होते हैं। स्वीडिश कमेटी फॉर अफगानिस्तान में बच्चों की शिक्षा और अधिकार के लिए फिलहाल काबुल में काम करने वाले वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ. संजीव राय कहते हैं, ‘‘भारत में कम्युनिटी मैकेनिज्‍म नहीं है। बच्चों की दुनिया बड़ों की दुनिया से बिलकुल अलग है। बच्चों को देखने का अलग नजरिया कभी-कभी भारी पड़ता है। शहरों में बच्चों की देखभाल नौकरों के भरोसे होती है। बच्चे को क्या परेशानी है यह नौकर को पता है, यदि नौकर ही परेशानी का सबब है तो क्या होगा। बच्चे कुछ बताना भी चाहें तो माता-पिता को सुनने का समय नहीं होता है। कई मामलों में नौकरों, आया से इसलिए नरमी बरती जाती है कि यदि वे नाराज हो कर चले गए तो दफ्तर से छुट्टी कौन लेगा! यानी सुरक्षा का एक बड़ा मुद्दा जिसमें माता-पिता की जिम्मेदारी शामिल है, दफ्तर की व्यस्तता के कारण पीछे धकेल दिया जाता है। बच्चे खुद भी इतना डरे हुए होते हैं कि जब तक शारीरिक यातना बढ़ न जाए वे किसी को भी अपनी पीड़ा नहीं बताते। डर की वजह से कई केस दर्ज होने से पहले ही खत्म हो जाते हैं। बच्चे जानते भी नहीं हैं कि आखिर वह अपने साथ हो रही ज्यादती के बारे में कैसे समझाएं।’’

आंकड़ों की जुबानी

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2015 के आंकड़े बताते हैं, 2014 के 89,423 मामलों के मुकाबले 2015 में 94,172 मामले देश में दर्ज हुए थे। बच्चों के प्रति अपराध एक साल में 5.3 प्रतिशत की दर से बढ़ा। देश के कुल दर्ज मामलों में महाराष्ट्र में 14.8 प्रतिशत मामले हैं। दूसरे नंबर पर 13.7 प्रतिशत के साथ मध्यप्रदेश था। उत्तर प्रदेश में 12.1 और दिल्ली में 10.1 प्रतिशत मामले दर्ज हुए थे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक अधिकांश मामलों में दोषी अनजान लोगों के बजाय परिचित या घनिष्ठ थे। इनमें से 25 प्रतिशत बलात्कार के मामले ऐसे हैं जिनमें बच्चे बाल श्रमिक थे। हरियाणा में बच्चों के अधिकारों को लेकर ‘स्पर्श’ नाम का संगठन चलाने वाली तुलसी कादियान कहती हैं, ‘‘बाल मजदूरी प्रतिबंधित है लेकिन कई घरों में सफाई आदि के काम के लिए 10-15 साल की लड़कियां काम करती हैं और उन पर हमेशा खतरा बना रहता है। यह नियम का उल्लंघन है लेकिन जब तक बच्ची पर अत्याचार की कोई बड़ी घटना न हो जाए, बाल मजदूरी पर कोई बात करना नहीं चाहता।’’ वह कहती हैं, 2016 में पहली बार एनसीआरबी ने बाल श्रम और बलात्कार या दैहिक शोषण के बीच संबंध पर बात की है। सटीक आंकड़े आना बाकी हैं लेकिन बाल शोषण के रजिस्टर्ड मामले बताते हैं कि बाल श्रमिक अपराधियों के लिए आसान लक्ष्य होते हैं। चूंकि वे मालिक भी हैं इसलिए वह बच्चों को आसानी से अपना शिकार बना लेते हैं। इसमें एक खास तथ्य यह है कि कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ हुए बलात्कार के रजिस्टर्ड केस जहां सिर्फ दो प्रतिशत थे वहीं 2007 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के साथ कराए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि छोटी उम्र के लड़के भी बच्चियों की तरह ही दुष्कर्म के शिकार हुए थे। 488 मामलों में देखा गया कि पीड़ित बच्चों के साथ, दादा, भाई, पिता ने दुष्कर्म किया था। बाल श्रमिकों के साथ आपराधिक, खास कर शारीरिक छेड़छाड़ में तमिलनाडु 55 प्रतिशत और गुजरात 49 प्रतिशत के साथ सबसे आगे थे। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं, साल 2015 में चाइल्ड एब्यूज के 8904 मामले प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सेक्सुअल अॅफेंस (पॉक्सो) एक्ट के तहत रजिस्टर हुए थे। रजिस्टर्ड केस पर नजर डालें तो पता चलता है कि 94.8 प्रतिशत मामलों में दुष्कर्म करने वाले व्यक्ति जान-पहचान वाले थे। इसमें 3149 मामले पड़ोसी द्वारा ज्यादती के थे। जबकि 10 प्रतिशत मामलों में सीधे परिवार के किसी सदस्य या रिश्तेदार ने यौन उत्पीड़न किया था।

सुरक्षा से जरूरी सावधानी

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के सदस्य जसवंत जैन कहते हैं, ‘‘ऐसे मामले रोकने के लिए सुरक्षा उपाय जैसे सीसीटीवी लगा देना भी कई बार नाकाफी सिद्ध होता है। क्योंकि बच्चे तो नहीं जानते कि उनके साथ क्या हो गया। कब और कैसे उनके परिचित, जिनसे वे प्यार करते हैं या विश्वास करते हैं उन्हें छल गए हैं। लगातार संवाद और समझाइश ही इन मसलों में कारगर होती है। ऐसी घटनाएं न हों इसके लिए कमीशन जागरूकता अभियान चलाता है। पायलेट प्रोजेक्ट के तौर पर हमने कुछ राज्यों को चुना है जहां सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में बच्चों और अध्यापकों के बीच जागरूकता अभिनयान चलाया जा रहा है। फिर भी ऐसी कोई घटना हो जाए तो कमीशन कोशिश करता है कि तुरंत एफआईआर दर्ज हो, बच्चों के अधिकारों का किसी भी तरह से वायलेशन न हो। आयोग ने पहल की है कि हर राज्य निश्चित फॉर्मेट में बच्चों के साथ या बच्चों द्वारा किए गए अपराध के आंकड़े आयोग को दे। साथ ही राज्यों के सभी बालगृहों को रजिस्टर करने की कवायद की जा रही है। यदि कोई एनजीओ या संस्था भी ऐसा कोई सुधार गृह चलाता है तो उसे भी आयोग के साथ पंजीकृत होना होगा। इससे तय होगा कि किस राज्य में कितने बालगृह हैं और हर बाल गृह में कितने बच्चे हैं। अकसर आरोप लगते रहते हैं कि यौन शोषण के लिए बालगृह के बच्चों का उपयोग होता है। बालगृहों के संचालकों पर भी आरोप लगते हैं। जब संख्या तय होगी तो चाइल्ड ट्रेफिकिंग पर भी अंकुश लगेगा और यदि संचालक दोषी है तो उस पर शिकंजा कसना आसान होगा।’’ आयोग ने घर से भागे या परिवार से बिछुड़ गए बच्चों के लिए भी पहल की है। जैन कहते हैं, ‘‘अभी ऐसे बच्चों का ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं होता। इससे पता नहीं चलता कि किस राज्य में दूसरे राज्य के कितने बच्चे हैं। अब आयोग ने राज्य सरकारों से कहा है कि वह ऐसे बच्चों का हिसाब रखें जो दूसरे राज्यों के हैं। जैसे कोई बच्चा हरियाणा में मिले और वह बंगाली बोल रहा है तो यह संभावना ज्यादा है कि वह बंगाल से भटक कर आ गया है। यदि वह घर का पता, माता-पिता का नाम नहीं बता पा रहा है और लंबे समय हरियाणा में रह गया तो यकीनन वह बंगाली भूल जाएगा और हिंदी बोलने लगेगा। ऐसे में उसके घर पहुंचने की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी। राज्यों को कहा जा रहा है कि वह जल्द से जल्द ऐसे बच्चे को उसके राज्य तक पहुंचाने की कोशिश करें। जाहिर सी बात है स्थानीय पुलिस इस मसले में ज्यादा मददगार साबित हो सकती है। राज्य सरकारें यदि राज्यों को बच्चे लौटाने का काम तत्परता से करने लगें या इसमें रुचि लें तो बच्चों के यौन शोषण मामले में बहुत कमी आएगी। ये बच्चे परिवार में नहीं रहते इसलिए इनकी व्यथा आसानी से बाहर नहीं आ पाती।’’

घटनाएं बढ़ीं या शिकायतें

चाइल्ड काउंसलर प्रांजलि मल्होत्रा कहती हैं, ‘‘दोनों बातें बढ़ी हैं। जागरूकता आने और सख्त कानून बनने से किसी को पता न चले वाली सामाजिक रूढ़ि टूटी है। माता-पिता एफआईआर करा रहे हैं। केस रजिस्टर होने से दोषियों को सजा मिल रही है।’’ लेकिन उनका मानना है कि ऐसी घटनाओं के बढ़ने से माता-पिता चिंता में आ जाते हैं और वे अपने बच्चों को बिलकुल सुरक्षित माहौल में रखना चाहते हैं। इससे धीरे-धीरे बच्चों का समाज से कटाव हो सकता है संभव है वे समाज के प्रति कभी विश्वास अर्जित न कर पाएं। बच्चों को जरूरी बातें समझाई जाएं लेकिन उनमें खौफ न भरा जाए। प्रांजलि मानती हैं, ‘‘2012 में पॉक्सो एक्ट आने के बाद से मामले ज्यादा रिपोर्ट होने लगे हैं। पिछले दिनों अपने साथ हुई ज्यादती को बताने में असमर्थ बच्ची ने अपनी गुड़िया के माध्यम से इशारे में जो समझाया उसे अदालत ने अहम साक्ष्य माना और दोषी को सजा दी।’’ वह कहती हैं, ‘‘स्मार्ट फोन के रूप में हर व्यक्ति की पोर्न तक पहुंच आसान है। यह ‘सामग्री’ देख लिए जाने के बाद आउटलेट का कोई साधन नहीं होता। तब जो सामने आता है, उसे ही शिकार बना लिया जाता है।’’

बुरा वक्त कैसे गुजरे

बच्चे का ध्यान दूसरी तरफ लगाना ही एक उपाय है। हालांकि यह इतना आसान नहीं होता। समाज के निचले तबके से आने वाले बच्चों के पास ऐसी सुविधाएं नहीं होतीं। उन्हें उसी परिस्थिति के बीच रहना होता है। कई स्वयंसेवी संस्थाएं केस रजिस्टर होने पर माता-पिता तक पहुंचती हैं और बच्चे सहित माता-पिता को भी समझाती हैं। लेकिन सरकारी या सामाजिक संस्‍थाओं की मदद नाकाफी है। जरूरत है ठोस प्रयास की। इन सब के बीच यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि हैवानियत करने वाले दिमागों को कैसे सुधारा जाए। बच्चे तभी बचेंगे जब समाज गंदी मानसिकता से मुक्त होगा। सभी को कदम मिलाकर चलना होगा।

(पहचान छुपाने के लिए नाम बदल दिए गए हैं)

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