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ममता को दोहरी चुनौती

अलगाववाद और सांप्रदायिकता से जूझती पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के लिए राहें आसान नहीं
रणनीतिः गोरखालैंड मुद्दे पर अधिकारियों और नेताओं के साथ बैठक करती ममता बनर्जी

हाल में मोदी विरोधी राष्ट्रीय राजनीति में बंगाल की अग्निकन्या और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी की भूमिका बढ़ गई है लेकिन वे अपने ही राज्य में अलगाववाद और सांप्रदायिकता की दो बड़ी चुनौतियों से बुरी तरह घिर गई हैं। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में ममता को सबसे कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है। अलग गोरखालैंड का आंदोलन करीब तीन महीने से जारी है। मुख्यमंत्री ने गोरखालैंड मसले पर वार्ता कर बर्फ पिघलाने का यत्न जरूर किया और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का विनय तमांग गुट वार्ता में शरीक भी हुआ और उसने 12 सितंबर तक पहाड़ में हड़ताल वापस लेने की घोषणा भी की मगर विमल गुरुंग धड़े ने उसे नामंजूर करते हुए विनय तमांग को ही पार्टी से निकाल दिया है। ममता सरकार को अच्छी तरह से यह बोध हो गया है कि पहाड़ में विमल गुरुंग के रहते स्थिति सामान्य नहीं होने वाली। इसलिए उनके प्रशासन ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए विभिन्न मामलों में विमल गुरुंग की गिरफ्तारी के लिए लुक आउट नोटिस जारी किया है। ममता व गुरुंग के इस टकराव को बांग्ला व नेपाली अस्मिताओं की टकराहट के रूप में भी देखा जा रहा है। इस टकराहट के गंभीर नतीजों से इनकार नहीं किया जा सकता।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का विमल गुरुंग गुट अगर समझ रहा है कि अलग राज्य के लिए जंगी आंदोलन की राह पकड़कर वह राज्य सरकार पर दबाव बनाएगा तो वह मुगालते में है क्योंकि गोरखालैंड आंदोलन के प्रति ममता बनर्जी की सरकार ने इस बार कड़ा रुख अख्तियार कर रखा है। मोर्चा को यह बोध भी होना चाहिए कि हिंसा का सहारा लेकर वह जब तक आंदोलन करेगा तब तक राज्य सरकार को हिंसा से निपटने के लिए पुलिस बल के प्रयोग का बहाना मिलता रहेगा क्योंकि कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी अंततः राज्य सरकार की है। मुख्यमंत्री को भी इसे याद रखना चाहिए कि अलगाववादी आंदोलनों से निपटने के लिए सरकारें जब-जब बल प्रयोग करती हैं तो परिस्थिति और जटिल हो जाती है। तीन महीना पहले तक दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र शांत था। छह साल से शांत था। पहाड़ व जंगलमहल में शांति को ममता सरकार की बड़ी उपलब्धि माना जाता रहा है लेकिन पहाड़ में फिर बवंडर मचने से यह तो साफ है कि गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) का जो समझौता ममता ने कराया था, वह गोरखालैंड समस्या का समाधान नहीं था।

ममता बनर्जी को दूसरी चुनौती राज्य में धार्मिक ध्रुवीकरण के प्रयासों ने दी है। ध्रुवीकरण के प्रयासों की ही वजह से पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के बदुरिया और उसके बाद बशीरहाट, देगांगा और स्वरूपनगर में सांप्रदायिक हिंसा भड़की। ममता बनर्जी की सरकार ने इस बार दुर्गापूजा के समय हिंसा की आशंका को कम करने के लिए ही मुहर्रम के दिन दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन नहीं करने का फैसला किया। बंगाल भाजपा ममता के इस फैसले को मुस्लिम तुष्टिकरण के रूप में प्रचारित कर रही है। बंगाल भाजपा का आरोप है कि हिंसा प्रभावित उन इलाकों में ममता सरकार ने इसलिए सख्ती नहीं की क्योंकि हमलावरों में अधिकतर अल्पसंख्यक थे और सरकार उन्हें नाखुश नहीं करना चाहती। बीते साल हाजीनगर में मुहर्रम के दिन भी सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी। दंगाइयों की भीड़ ने एक समुदाय के घरों को जला दिया था। उस हिंसा की आग हावड़ा, पश्चिमी मिदनापुर, हुगली और मालदा जिलों में भी फैल गई थी।

हावड़ा जिले में स्थित इलाका धूलागढ़ तो पिछले साल कई दिनों तक सांप्रदायिक तनाव से प्रभावित था। वहां मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पूरे इलाके को भयाक्रांत कर रखा था। मालदा जिले के चांचल थाना क्षेत्र में स्थित चंद्रपाड़ा और कोलीग्राम जैसे गांवों पर 10 हजार से अधिक मुस्लिम कट्टरपंथियों की उग्र भीड़ ने हमला किया था। वहां विवाद की शुरुआत विजयदशमी के दिन आयोजित एक मेले में आई एक लड़की के साथ मुस्लिम युवक द्वारा छेड़खानी किए जाने से हुई थी। जब दूसरे समुदाय के लोगों ने  उसका विरोध किया तो मुस्लिम समुदाय के लोगों ने तोड़फोड़ की। सवाल यह उठ रहा है कि क्या पश्चिम बंगाल की सरकार जानबूझकर मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कानून-व्यवस्था की अनदेखी कर रही है?

तथ्य है कि पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है और राज्य की तीनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां-सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस, माकपा और कांग्रेस कट्टरता के प्रतिरोध का साहस सिर्फ इसलिए नहीं दिखा रही हैं क्योंकि एक समुदाय के मतदाताओं को नाखुश करने का खतरा वे मोल लेना नहीं चाहतीं। बंगाल में माकपा तथा कांग्रेस औंधे मुंह गिरी हुई हैं और इसी का लाभ उठाने की पुरजोर कोशिश भाजपा कर रही है। वह बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तुष्टिकरण की नीतियों को ही जिम्मेदार ठहराती है। उसके आरोप को पूरी तरह से झुठलाना भी कठिन है क्योंकि ममता बनर्जी ने बंगाल की सत्ताइस प्रतिशत मुस्लिम आबादी का समर्थन हासिल करने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं। ममता ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाया, सैकड़ों मदरसों और वहां की हजारों डिग्रियों को मान्यता दी। ममता सरकार मुस्लिम छात्रों को बड़े पैमाने पर छात्रवृत्ति प्रदान करती है। छह साल पहले सत्ता में आते ही ममता ने मस्जिदों के इमामों और मोअज्जिमों को क्रमशः 2,500 रुपये व 3,500 रुपये प्रतिमाह भत्ता देने की घोषणा की थी। हालांकि, सरकार के उस फैसले को कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट के फैसले से नाखुश ममता बनर्जी ने एक दूसरा रास्ता निकाला। अब इमामों और मुअज्जिमों का भत्ता वक्फ बोर्ड के माध्यम से दिया जाता है। ममता ने मुसलमानों तक विकास, रोजगार और शिक्षा के अवसर मुहैया कराने के समानांतर मुस्लिम धर्मगुरुओं के बीच भी पैठ बनाई और एक के बाद एक मुस्लिम रैलियां कर आम मुसलमानों को भी अपनी तरफ करने की चेष्टा की। ममता ने कोलकाता में शहीद मीनार मैदान में हुई जमीयत की रैली में एक लाख की भीड़ को संबोधित किया था तो वहीं फुरफुरा शरीफ में ताहा सिद्दिकी के द्वारा निकाली गई रैली में शरीक हुई थीं। और तो और, ममता मुसलमानों की तरह इबादत करने या दुपट्टे की तरह सिर पर साड़ी रखने से परहेज नहीं करतीं।

मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए ही ममता सरकार ने बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन को कोलकाता आने की इजाजत नहीं दी। एक दशक पूर्व तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने तसलीमा नसरीन को कोलकाता से बाहर कर दिया था। कोलकाता से वे जयपुर गईं और वहां से दिल्ली। तब से वे दिल्ली में ही रह रही हैं।

ममता की तुष्टिकरण की नीति के कारण मुस्लिम आतंकी भी बंगाल में अपने पांव पसार रहे हैं। याद करें जब तीन साल पहले बर्दवान के खगड़ागढ़ में बम विस्फोट हुआ था और जांच के बाद यह खुलासा हुआ था कि बम कांड के आतंकियों का बांग्लादेश के जमात-ए-इस्लामी से नियमित संपर्क था। बर्दवान कांड पर भी ममता ने प्रशासनिक दृढ़ता नहीं दिखाई थी। एक दशक पूर्व बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार किया था कि राज्य के कतिपय मदरसों का उपयोग आतंकियों के प्रशिक्षण केंद्र के रूप में किया जा रहा है। भट्टाचार्य जैसा साहस मौजूदा राज्य सरकार के पास नहीं है। ममता बनर्जी ने बंगाल में मुसलमानों के सत्ताइस प्रतिशत वोटों को बचाने के लिए पूरे बंगाल को विपन्न कर दिया है। ममता की इस नीति को ही बंगाल भाजपा ने हथियार बना लिया है और हिंदुओं के ध्रुवीकरण पर अपना सारा ध्यान लगा रखा है। सवाल है कि भारत में एक धर्म के कट्टरपंथ का पोषण कर तुष्टिकरण की नीति अपनाई जाएगी तो दूसरे धर्म के कट्टरपंथियों को बढ़ने से कैसे रोका जा सकेगा?  

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