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55 साल बाद गर्तांगली पुल के पार

भारत-तिब्बत के बीच व्यापार के लिए बना अनूठा पुल चीन युद्ध के बाद से है बंद
गर्तांगली के ऐतिहासिक पुल पर तिलक सोनी

उत्तरकाशी की नेलांग घाटी के गर्तांगली में चट्टानों के बीच से दशकों पहले लकड़ी का एक पैदल पुल बनाया गया था। जिसका इस्तेमाल भारत-तिब्बत व्यापार के लिए किया जाता था। लेकिन भारत-चीन युद्ध के बाद इस पुल से आवाजाही पर पाबंदी लगा दी गई थी। पिछले दिनों एक एडवेंचर स्पेशलिस्ट ने साढ़े पांच दशक बाद 105 मीटर लंबे इस पुल को न सिर्फ पार किया बल्कि इसे गुमनामी के अंधेरे से बाहर लाने की कोशिश की है। अब जिला प्रशासन पुल को पर्यटकों के लिए खोलने की कवायद में जुटा है।

एडवेंचर स्पेशलिस्ट तिलक सोनी ऐतिहासिक पुल को पार करने पहुंचे तो उनके मन में इसकी मजबूती को लेकर तमाम शंकाएं थीं। लेकिन तिलक ने साहस और सावधानी से जब पुल को पार किया तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। इस पुल से गुजरते हुए हवा में चलने जैसा अनुभव करने वाले तिलक पिछले पांच दशक में पुल को पार करने वाले संभवत: पहले व्यक्त‌ि थे। यह लद्दाख की तरह जमे हुए रेगिस्तान वाली उत्तरकाशी की नेलांग घाटी की गर्तांगली में बेजोड़ वास्तुकला को प्रदर्शित करता अनूठा पैदल पुल है। करीब 200 साल पुराना माना जाने वाला लकड़ी का पुल चट्टानों को काटकर बनाया गया है, जो जाट गंगा नदी के करीब 400 मीटर ऊपर बना है। कभी दो देशों के बीच व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला यह पुल वर्ष 1962 से बंद पड़ा है। इस वजह से वास्तुकला का यह नायाब नमूना अभी तक सैलानियों की नजरों से दूर रहा। लेकिन अब यह देश के पर्यटन मानचित्र पर जगह बना सकता है। 

तिलक सोनी के आग्रह पर जिला प्रशासन ने पुल को सैलानियों के लिए खोलने की कवायद शुरू कर दी है। दरअसल खूबसूरत नेलांग घाटी में भारत-चीन युद्ध से पहले आम लोगों के जाने पर रोक नहीं थी। भारत और तिब्बत के व्यापारी सामान बेचने और खरीदने के लिए इसी घाटी से होकर गुजरते थे। वर्ष 1962 में हुए युद्ध के दौरान नेलांग घाटी में रहने वाले लोगों को विस्थापित करने के साथ ही यहां आम जनता के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी। नेलांग, जादुंग और अन्य गांवों के लोगों को उत्तरकाशी के डुंडा और उसके आसपास बसाया गया था। इस पूरे क्षेत्र को सेना ने अपने अधिकार में ले लिया था। इसके बाद से गर्तांगली में बना अद्भुत पुल गुमनामी में खो गया। पत्थरों को काटकर तैयार किया गया चार फुट चौड़ा यह पुल आज भी सुरक्षित है। बताया जाता है कि इस अनूठे पुल को तैयार करने के लिए खासतौर पर पेशावर से पठान कारीगरों को बुलाया गया था। वर्तमान में गर्तांगली में जाने पर सख्त पाबंदी है। पैदल पुल से गुजरने में रोमांच का अनुभव होता है।

पुल को पार करने वाले तिलक ने बताया कि जादुंग, नेलांग घाटी में रहने वाली रांगपा जनजाति को भारत-चीन युद्ध के समय विस्थापित कर दिया गया था। यह पुल उस दौर की इंजीनियरिंग का बेहतर नमूना है। बरसों से बंद पड़े पुल पर चलना आसान नहीं है। पुल में लकड़‌ियों की बाड़ लगी है, लेकिन उसकी मजबूती पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इस साल आठ मार्च को पुल पार करने के बाद तिलक ने इसकी जानकारी जिले के अफसरों को दी थी। 11 मार्च को जिलाधिकारी डॉ. आशीष श्रीवास्तव की अगुआई में प्रशासनिक टीम ने पुल का निरीक्षण किया। अफसरों के प्रयासों के बाद गर्तांगली पुल की मरम्मत के लिए बजट भी मंजूर हो चुका है। उत्तरकाशी से तकरीबन 90 किलोमीटर की दूरी, फिर दो किलोमीटर पैदल घना जंगल और दुर्गम रास्ता पार करने के बाद पुल तक पहुंचा जा सकता है। पुल को देखकर नहीं लगता कि इसका इस्तेमाल करने में वनकर्मियों ने दिलचस्पी दिखाई होगी।

डीएम आशीष श्रीवास्तव बताते हैं कि गर्तांगली में चट्टानों के बीच बना करीब 200 साल पुराना पुल अभी लोगों के चलने के लायक बचा है। लेकिन कुछ जगहों पर सीढ़‌ियां और लकड़‌ियों की सुरक्षा बाड़ भी क्षतिग्रस्त हो चुकी है। गंगोत्री नेशनल पार्क का हिस्सा होने की वजह से अभी इस क्षेत्र में जाने पर मनाही है। लेकिन प्रशासन की ओर से पुल को पर्यटकों के लिए खोलने के प्रयास किए जा रहे हैं। उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद ने गर्तांगली पुल की मरम्मत के लिए 26.50 लाख रुपये की धनराशि आवंटित की है और इसकी देखभाल का काम गंगोत्री नेशनल पार्क के अधिकारियों को करना है।

तिलक सोनी कहते हैं कि कुछ जगहों को छोड़कर अधिकांश पुल ठोस चट्टान को छेनी और हथौड़े की मदद से काटकर बनाया गया है। पुल की मरम्मत किए बिना उस पर चलना बेहद घातक साबित हो सकता था। बेशक, यह सैलानियों के लिए अनोखी और रोमांच पैदा करने वाली जगह होगी। उनकी कोशिश है कि इस नायाब ऐतिहासिक धरोहर का संरक्षण हो और राज्य सरकार इसे हैरिटेज वॉक के रूप में विकसित करे। 

 

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