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दोस्ती का खुलकर इजहार मगर संतुलन पर भी नजर

आखिर पच्चीस साल बाद पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री के बेहिचक दौरे से इजरायल को लेकर नैतिक बाधा और दोहरापन मिटा, असल में पश्चिम एशिया के हालात बदले तो भारत की प्राथमिकताएं भी बदलीं
तेल अवीव हवाई अड्डे पर नरेन्द्र मोदी का स्वागत करते बेंजामिन नेतन्याहू

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चार से छह जुलाई तक इजरायल का दौरा किसी भारतीय राज्याध्यक्ष की पहली यात्रा थी। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भी मोदी के स्वागत के लिए प्रोटोकॉल तोड़कर यरुशलम पहुंचे। यह भारतीय विदेश नीति में उस बदलाव की तार्किक परिणति जैसा है, जो 25 साल पहले शीत युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नर‌स‌िंह राव ने शुरू किया था। शायद यह द्विपक्षीय रिश्तों को आगे ले जाने में उपयोगी होगा।

राव ने 1991 में जब प्रधानमंत्री का पद संभाला था तब खजाना खाली था और अर्थव्यवस्था खस्ताहाल थी। भारत का सदाबहार दोस्त सोवियत संघ टूट रहा था। बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद दुनिया का दो ध्रुवीय संतुलन समाप्त हो गया और अमेरिका इकलौती महाशक्त‌ि बन गया। सिद्धांतकार फ्रांसिस फुकुआमा ने इतिहास के अंत का ऐलान कर दिया था जिसका मतलब था कि पश्चिमी उदारवादी धारा जीत गई। 1991 में खाड़ी में अमेरिका ने कुवैत पर कब्जा जमाए सद्दाम हुसैन की फौज को खदेड़कर यह साफ कर दिया कि वही दुनिया का इकलौता दादा है। उसके बाद उसने इजरायल-फिलस्तीन विवाद के निपटारे की ओर रुख किया। अमेरिका और रूस ने संयुक्त रूप से 30 अक्टूबर से एक नवंबर 1991 तक (तीन दिवसीय) मैड्रिड शिखर शांति वार्ता का आयोजन किया। इसमें जॉर्डन, लेबनान, सीरिया और फिलस्तीन को आमंत्रित किया गया कि वे इजरायल से बात करें। यह पहला मौका था जब फिलस्तीनी नेता इजरायलियों के साथ बैठे, अलबत्ता जॉर्डन के प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनकर।

जहां तक भारत की बात है, प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अर्थव्यवस्था को ही नहीं, विदेश नीति को भी नया मोड़ दिया। उनकी सफलता के लिए जरूरी था कि अमेरिका के साथ रिश्ते मजबूत हों। अमेरिका ने संदेश दिया कि मैड्रिड सम्मेलन के बाद उसकी अगुआई में राजनैतिक उप-समूह की बैठक में आमंत्रित देशों के सभी सहभागियों से राजनयिक रिश्ते अनिवार्य होने चाहिए। फिलस्तीन के हितों का मजबूत पैरोकार रहा भारत इस बैठक में इजरायल से पूर्ण राजनयिक संबंधों के बिना पर्यवेक्षक के रूप में भी भाग नहीं ले पाया। अक्टूबर या नवंबर में ही कभी, जब मैं निदेशक (पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका) था, विदेश सचिव जे.एन. दीक्षित के कार्यालय ने इस समस्या से निबटने के लिए कैबिनेट नोट का मजमून तैयार करने को कहा।

विदेश मंत्रालय की पटियाला हाउस लाइब्रेरी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर कई पुस्तकें हैं। लेकिन वहां इजरायल पर आधारभूत आंकड़ों वाली कोई किताब तक नहीं थी। जबकि वह अरब देशों का मुख्य प्रतिद्वंद्वी और पश्चिमी एशिया के भू-राजनैतिक ढांचे को आकार देने वाला था। कैबिनेट से इस बारे में मंजूरी सप्ताहांत में आ गई। उसके बाद भारत की पश्चिम एशिया नीति नए भू-राजनैतिक बदलावों के मुताबिक आकार दी जाने लगी।

प्रधानमंत्री राव को अब इसकी सार्वजनिक पृष्ठभूमि तैयार करनी थी। उन्होंने फिलस्तीन के निर्विवाद नेता यासर अराफात को जनवरी 1992 में भारत आने का आमंत्रण दिया, ताकि भारत के नए रुझान की उन्हें व्यक्त‌िगत रूप से जानकारी दी जाए। अराफात शायद ही इनकार नहीं कर पाते क्योंकि मैड्रिड बैठक के बाद उनका प्रतिनिधिमंडल इजरायल के साथ बात कर रहा था। इसी तरह, नरेन्द्र मोदी ने भी अपनी इजरायल यात्रा के पहले फिलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास को राजकीय यात्रा पर आमंत्रित किया। उसके बाद विदेश मंत्रालय मुख्यालय में अमेरिकी डिवीजन के प्रमुख रहे पी.के. सिंह को वहां का पहला राजदूत मनोनीत किया गया।

फिलस्तीन का मुद्दा अब अरब और इस्लामिक देशों का एजेंडा तय नहीं करता। 9/11 के हमले, अफगानिस्तान और इराक में 2001 और 2003 की अमेरिकी हमले और 2010 के 'अरब बसंत’ के बाद उग्र सुन्नी इस्लामी शक्त‌ियों का उभार सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो गया। इसके मुकाबले के लिए ओबामा ने ईरान के साथ परमाणु कार्यक्रम पर करार किया। इसका मकसद इस्लामिक स्टेट (आइएस) के खिलाफ शिया गठबंधन को मजबूत करना भी था। ईरान ने रूस के साथ मिल कर बुरी तरह घिरी हुई सीरियाई सरकार को मजबूती दे दी, जिसका अंदाजा अमेरिका नहीं लगा पाया था।

डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान को निशाने पर लेकर ओबामा की नीति को पलट दिया, यहां तक कि परमाणु कार्यक्रम पर हुए करार से भी पीछे हटने की धमकी दे डाली। रियाद शिखर सम्मेलन में पहुंचकर उन्होंने अरब जगत में शिया-सुन्नी, अरब-गैर-अरब यानी ईरान और तुर्की के पुराने मनमुटाव को खतरनाक हद तक हवा देने की कोशिश की। मोदी और नेतन्याहू की गलबहियां पर अरब क्षेत्र का कम ही ध्यान गया होगा क्योंकि वहां तो सभी कतर पर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के अल्टीमेटम को लेकर मशगूल थे।

भाजपा का आरोप है कि वोट बैंक की राजनीति के कारण कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों ने दशकों तक भारत की कूटनीति को उलझाए रखा जबकि इजरायल से गोपनीय संबंध थे। लेकिन फिलस्तीन के लिए प्रतिबद्धता भारत की आजादी की लड़ाई और खिलाफत आंदोलन के दौरान ही जाहिर की जा चुकी थी, जब कांग्रेस ने भारतीय मुसलमानों को साथ रखने के लिए इस्लामी मुद्दों को उठाया था। महात्मा गांधी ने 1938 में कहा था, ''फिलस्तीन उसी तरह अरब लोगों का है जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों और फ्रांस फ्रांसीसियों का।’’ वे अंग्रेजों के खिलाफ एक विश्वव्यापी अभियान का ऐलान कर रहे थे, जिसका मकसद हिंदुओं और मुसलमानों की एकता से बढ़कर फिलस्तीन के मुद्दे को जुबानी जमा खर्च से आगे ले जाना था। इस प्रकार, आजादी के बाद फिलस्तीन के मुद्दे ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। घरेलू स्तर पर इजरायल के फिलस्तीन की जमीन पर कब्जे के खिलाफ आम सहमति बनी। विदेश में इससे अरब देशों में भारत की अहमियत बढ़ी, जिससे यह उम्मीद कायम रही कि इस्लामी देश कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ खड़े नहीं होंगे।

इजरायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरिओं ने 1947 में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन से आग्रह किया कि वे भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यहूदियों के मसले पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने के लिए पत्र लिखें। अपने पत्र में आइंस्टीन ने लिखा, ''आपने स्वतंत्रता और न्याय के लिए जोरदार संघर्ष किया है। मुझे विश्वास है कि आप उन लोगों के लिए भी आवाज उठाएंगे जो लंबे समय से बुरी तरह से अपने अधिकारों से वंचित रखे गए हैं।’’ भारत ने 1947 में संयुक्त राष्ट्र में फिलस्तीन के बंटवारे के प्रस्ताव का विरोध किया। भारत ने देखा कि इजरायल का मुद्दा उसके पैरोकारों ने ही दागदार कर दिया है जिनकी फिलस्तीन के खिलाफ औपनिवेशिक शक्त‌ियों से मिलीभगत है।

रिश्तों को सामान्य बनाने की प्रतीक बनी मोदी की यात्रा एक सिलसिले की कड़ी है। 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आमंत्रण पर इजरायल के प्रधानमंत्री एरियल शेरोन ने भारत की यात्रा की थी। यूपीए सरकार ने भी दस साल तक दरवाजे खुले रखे और मंत्री स्तर पर यात्राएं हुईं। लेकिन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी न तो खुद इजरायल गए और न ही इजरायली रक्षा मंत्री को उनके कार्यकाल में बुलाया गया। उन्होंने कुछ इजरायली रक्षा सामान की आपूर्ति करने वाली कंपनियों को भ्रष्टाचार के आरोप में ब्लैकलिस्ट भी कर दिया। मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले तीन साल में खुद को खाड़ी और पश्चिमी एशियाई देशों तक ही सीमित रखा। 2015 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जरूर इजरायल यात्रा पर गए। वे फिलस्तीनी सरकार के मुख्यालय रमल्ला भी गए।

प्रधानमंत्री मोदी ने इजरायल की यात्रा कर फिलस्तीन से अलग करके इजरायल से रिश्ते कायम करने के अपराधबोध को भी खत्म कर दिया। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि फिलस्तीन का मुद्दा जटिल है। इसका संभावित समाधान चतुष्कोणीय योजना या अरब योजना, भारत के वश से बाहर की बात है। इस तरह पश्चिमी एशिया को लेकर भारत की विदेश नीति नारेबाजी से व्यावहारिकता की ओर खिसकने लगी है। राष्ट्रपति मुखर्जी की यात्रा से पहले भारत पूर्वी यरुशलम के परे फिलस्तीनी राज्य का समर्थक था। लेकिन अब भारत द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर समस्या के समाधान की बात कर रहा है।

भारत-इजरायल के रिश्ते विविधतापूर्ण हैं। इजरायल भारत को रक्षा सामग्री आपूर्ति करने वाला बड़ा देश है। भारत और इजरायल के बीच वर्षों से कम पानी के इस्तेमाल से फसल के उत्पादन, बंजर क्षेत्र में उपज तकनीक, हाईब्रिड किस्म के उत्पादन आदि पर बात चल रही है। दोनों देशों के बीच संयुक्त शोध और विकास के लिए चार करोड़ डॉलर का कोष बनाया गया है। बड़े रक्षा सौदे होने के भी संकेत हैं लेकिन ऐसे सौदे सामान्य तौर पर उच्चस्तरीय दौरों के दौरान नहीं किए जाते। इजरायल हथियारयुक्त ड्रोन समेत कुछ अग्रणी हथियार प्रणाली भारत को बेचता है तो इससे मोदी की यात्रा का महत्व और बढ़ जाएगा। प्रधानमंत्री नेतन्याहू के मार्च में हुए चीन दौरे के दौरान उनकी चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग के साथ बुनियादी विज्ञान के क्षेत्रों, आधुनिक कृषि, स्वच्छ ऊर्जा और बायोमेडिसिन के क्षेत्र में चर्चा हुई। चीन ने भी स्पष्ट तौर पर द्वि-राष्ट्र के रास्ते ही समस्या के समाधान का समर्थन किया और शीघ्र ही शांति वार्ता शुरू करने पर जोर दिया। चीन भी इजरायली कंपनियों में निवेश कर रहा है। भारत की तरह इसने भी 'नवाचार सहयोग’ में इच्छा जताई है। इतनी समानता के बाद भी एशिया के इन दो बड़े देशों के साथ इजरायल बिना किसी का पक्ष लिए काम करेगा।

नेतन्याहू प्रधानमंत्री मोदी को आधुनिक राजनैतिक यहूदीवाद के जनक थियोडोर हर्जल की कब्र पर भी लेकर गए। उन्हें 'हिंदुत्व’ का नारा देने वाले सावरकर के समकक्ष माना जाना चाहिए। जिस तरह से दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों का वैचारिक मिलन हुआ, वैसा धर्म-शासित और धर्मनिरपेक्ष देशों के बीच देखने को नहीं मिलता है। यह संभव है कि मोदी की इस यात्रा से भारत और इजरायल के बीच नया पुल नहीं बना हो, पर दो दिलों का पुनर्मिलन जरूर हुआ है।

(लेखक पूर्व राजनयिक और ईरान में भारत के राजदूत रह चुके हैं)

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