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सन सत्तावन की महान देशज संवेदना

उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ 1857 की बगावत बेमिसाल ही नहीं, एक नए भारत की महती भावना का भी इजहार थी, आज हम क्या अपने पुरखों की भावना पर खरे उतर रहे हैं?
बगावत में व‌िध्वंश और घेराबंदी का दृश्य

इस साल नौ मई को 1857 विद्रोह की 160वीं बरसी वैसे ही चुपचाप बीत गई, जैसे पिछले वर्षों गुजर जाती रही है। अब हममें से ज्यादातर लोगों को यह एहसास ही नहीं है कि इसी दिन 1857 में इतने बड़े पैमाने पर एक सशस्त्र क्रांति की शुरुआत हुई थी, जिसकी मिसाल भारत में कभी नहीं मिलती। यकीनन, यह उन्नीसवीं सदी में दुनिया में उपनिवेशवाद के खिलाफ सबसे बड़ा विद्रोह था। यहां तक कि लैटिन अमेरिका में भी महान बोलिवार के नेतृत्व में सशस्त्र क्रांतिकारियों की संख्या कभी कुछ हजार से ऊपर नहीं जा पाई थी। भारत में 1857 में बंगाल आर्मी के 1,25,000 सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था।

भारत की तीनों प्रेसिडेंसी की सेना में सबसे बड़ी बंगाल आर्मी ब्रितानी साम्राज्यवाद की सिर्फ भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी 'असली ताकत’ थी। यह टुकड़ी लगातार अपने हुक्मरान के लिए 1839 से लेकर 1857 के दौरान चीन से लेकर क्रिमिया तक में लोहा लेती रही। 1856-57 में भी पर्सिया में जंग जारी थी। उसमें और चीन में भी भारतीय फौजें मोर्चे पर थीं। पेशेवर जनरलों की यह आम राय थी कि फौज को आराम की जरूरत होती है लेकिन अठारह साल तक बंगाल आर्मी के लिए आराम हराम था। समकालीन ब्रितानी सैन्य इतिहासकार जॉन विलियम के ने जिक्र किया है कि अंग्रेज अधिकारी अमूमन बंगाल आर्मी के सिपाहियों को छोटी-सी भूल-चूक के लिए भी धमकाया करते थे कि 'बर्मा या चीन रवाना कर दिए जाओगे, जहां मरने के अलावा कोई चारा नहीं है।’

सिपाहियों की यह हताशा कई रूपों में अभिव्यक्त होती थी, जो यह जाहिर करती थी कि ब्रितानियों ने कैसे अपनी फौज तैयार की थी। सुविधा के लिहाज से, अंग्रेजों ने बंगाल आर्मी के लिए उन्हीं इलाकों से सिपाहियों की भर्ती की थी, जो एक ही भाषा, हिंदुस्तानी, बोलते और समझते थे। इसलिए ये सिपाही मोटे तौर पर उन्हीं इलाकों के थे, जो आज उत्तर प्रदेश, पश्चिम बिहार और हरियाणा राज्यों में हैं। करीब 40,000 सिपाही मौजूदा फैजाबाद और लखनऊ संभागों के थे, जो 1856 के पहले अवध राज में हुआ करते थे। बंगाल आर्मी के बारे में दूसरी खास बात यह है कि इसका गठन मोटे तौर पर जाति के आधार पर किया गया था। पैदल सिपाहियों में ब्राह्मणों की भारी तादाद थी। ये लोग अमूमन पढ़ना-लिखना जानते थे और आधुनिक युद्ध के लिए जरूरी अनुशासन में ढल जाने के लिए जाने जाते थे। इसके उलट परंपरागत भारतीय फौज के सामान्य 'बहादुर’ जातियों को अनुशासन में ढालना कुछ दिक्कत वाला होता था। 1850 में नियम बनाए गए कि ऊंची जातियों के पुरुषों को ही बंगाल आर्मी में भर्ती किया जाएगा। इसके साथ ही मुहिम में बेहतर तालमेल के लिए बंगाल आर्मी में धर्म के आधार पर डिविजन नहीं बनाए गए। शायद साम्राज्यवाद को तब तक यह एहसास नहीं हुआ था कि वह हर मामले में हिंदू और मुसलमानों के बीच फर्क को अपने फायदे में इस्तेमाल कर सकता है। इस तरह इस आधुनिक फौज का पुराने जमाने के भारतीय सत्ताशाली वर्ग से कोई लेनादेना नहीं था और शायद भारतीय समाज के उस दौर के सबसे आधुनिक जमातों से बनाई गई थी। इसके दो खास पहलू थे: इसके सिपाहियों में जाति संवेदना तीखी थी लेकिन उनमें तब तक सांप्रदायिक विभाजन नहीं था।

जाति संवेदना तीखी होने के नाते चर्बी लगे कारतूसों को मंजूर कर लेना सिपाहियों के लिए आसान नहीं था। उनके लिए प्रमोशन के भी मौके मामूली ही थे। बीस या तीस में कोई एक जमादार होता था और सूबेदार तो और कम थे। सूबेदार मेजर तो विरले ही कोई हो पाता था। उन्हें तनख्वाह तो मिलती थी लेकिन लगातार उनके अफसर उन्हें निचली नस्ल के लोग कहकर अपमानित किया करते थे। सिर्फ अपनी जाति का गौरव ही उनके पास बचा था। वह भी अंग्रेज सरकार गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूसों के जरिए उनसे छीन रही थी।

बंगाल आर्मी में विद्रोह भड़कने के लिए महज लगातार सैन्य मुहिम का तनाव और अचानक चर्बी वाले कारतूसों का 'संयोग’ ही वजह नहीं थी, इसकी कुछ और बुनियादी वजहें भी थीं। यह कोई 'संयोग’ नहीं था कि ज्यादातर सिपाही जिन इलाकों से आते थे, वहां देश में सबसे अधिक कर वसूला जा रहा था। वहां किसानों और 'गांव के जमींदारों’ पर 1822 से कायम की गई महालवार व्यवस्था के तहत लगातार कर का बोझ बढ़ता जा रहा था। महालवारी व्यवस्था के तहत न सिर्फ काश्तकारी सिर्फ बीस साल की थी, बल्कि लगान की दरें भी किसी भी वक्त बदल जाया करती थीं। लगान भुगतान की भी सामूहिक जिम्मेदारी हुआ करती थी। यानी कोई एक किसान या खेत मालिक ने लगान चुका दिया हो लेकिन उसके पड़ोसी ने लगान नहीं चुकाया तो उसकी जमीन भी सरकार जब्त कर सकती थी। एरिक स्टोक्स लिखते हैं कि ‘‘1839 से 1858 के बीच अलीगढ़ जिले की आधी जमीन की मिल्कियत बदल गई, मुजफ्फरनगर में 1841 और 1861 के बीच करीब चौथाई जमीन की मिल्कियत बदल गई। 1833 के बाद लगान-मुक्त (माफी) जमीनें एकमुश्त बहाल कर दी गईं। ब्राह्मण और मुसलमानों में शेख बिरादरी, जो बंगाल आर्मी में खासकर भर्ती किए जाते थे, अक्सर माफी जमीनों के मालिक थे। अंग्रेजों के पहले ये माफी जमीन आम तौर पर पंडितों और अदबी मौलवियों को दी जाती थीं। किसान और माफी जमीन के मालिक दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे, जिन वर्गों से बंगाल आर्मी के सिपाही आते थे। बेशक, इन सब बातों से सिपाहियों में भावनाएं भड़की होंगी।

बगावत की वजहें चाहे जो रही हों, हकीकत यही है कि करीब-करीब पूरी बंगाल आर्मी ने विद्रोह कर दिया, कदम-दर-कदम लगातार बढ़ते आवेग के साथ जैसे बढ़ा, वह बेहद नाटकीय घटनाक्रम है। कुल एक लाख तीस हजार 'देसी सिपाहियों’ में से एक लाख पच्चीस हजार का बगावत का झंडा उठा लेना वाकई बेमिसाल घटना थी। इसकी आग पहले पहल पश्चिम बंगाल के दमदम में जनवरी 1857 में भड़की। फिर, मार्च में बैरकपुर में मंगल पांडेय ने बगावत का पहला साहसी कदम उठाया। मई के शुरू में इसकी लपटें लखनऊ तक पहुंचीं। नौ और 10 मई को तो मेरठ में बड़े पैमाने पर विद्रोह भड़क उठा। मेरठ के सिपाहियों ने 11 मई को दिल्ली पर कब्जा कर लिया। लिहाजा, यह पूरी बंगाल आर्मी के लिए विद्रोह में उठ खड़े होने का संदेश साबित हुआ।

तमाम अटकलों के बावजूद अभी तक ऐसे कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि अचानक      भड़के इस विद्रोह के पीछे सिपाहियों के बीच मजबूत भाईचारे के अलावा कोई लंबी योजना या स्पष्ट नेतृत्व भी था। अंग्रेजों के लिए साथ-साथ खून बहाने से पैदा हुआ भाईचारा ही शायद इकलौती वजह है, जिससे मेरठ के बागियों के साथ एकजुटता दिखाने का सिपाहियों ने मन बना लिया। हम 1857 की बगावत के लिए कहे गए 'गदर’ की निंदा करते हैं तो हमें बागी सैनिकों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए। एक लाख पच्चीस हजार सिपाही जो लड़ते हुए मारे गए या फांसी पर लटकाए गए या घाटियों में फेंक दिए गए, उनमें शायद ही कोई मैदान छोड़कर भागा, बेहद थोड़ी संख्या ने आत्मसमर्पण किया।

यह भी सही है कि बागी सैनिकों को फौरन आम लोगों का समर्थन हासिल हो गया। जिन इलाकों से ये सिपाही आते थे, वहां सिपाहियों की हमदर्दी में लोग उठ खड़े हुए और विद्रोह की आग जल उठी।

यह भी गौरतलब है कि भारत के सभी सामाजिक तबके साम्राज्यवाद से बुरी तरह पस्त थे। उन इलाकों में, जहां से ये सिपाही आते थे, तो भारी असंतोष घुमड़ रहा था। वहां लगान बेहिसाब ज्यादा था और जमींदारों तथा किसानों के जमीन की मिल्कियत कभी भी जब्त की जा सकती थी। अवध को 1856 में अंग्रेजों ने अपने राज में मिला लिया। अवध की रीढ़ माने जाने वाले तालुकदारों पर भी वही महालवारी व्यवस्था लागू कर दी गई, जिसने बाकी प्रदेशों में तबाही मचा रखी थी। सो, हालात ऐसे थे कि किसान और खेतिहर दोनों ही भारी शोषण का शिकार हो रहे थे।

हर किसान क्रांति की तरह इस मामले में भी हालात बेशक अलग-अलग थे। मथुरा की एक रिपोर्ट (15 मई 1858) में मार्क थॉर्नहिल का दावा है कि ‘‘ऊंचे खेतिहर वर्ग, जो उत्तर प्रदेश में महालवारी व्यवस्था से सबसे अधिक पीड़ित हुए, अंग्रेजों के वफादार बने रहे जबकि किसान, 'जिन्हें हमारे राज से सबसे ज्यादा लाभ हुआ (!), वे सबसे ज्यादा खिलाफ हैं।’’ जाहिर है, यह एकतरफा नजरिया है, जो बाद के दिनों में जमींदारों को लाभ पहुंचना और किसानों पर जुल्म ढहाने की नीति का एक पूर्वाभास देता है। हर हाल में अवध के गवर्नर जनरल कैनिंग ने खुद सोचा कि तालुकदार विद्रोह के अगुआ थे, इसलिए 1857 की अपनी प्रसिद्ध उद्घोषणा की, जिसमें ऐलान किया गया कि तालुकदारों की मिल्कियत वाली समूचे अवध की जमीन अब ब्रिटिश सरकार जब्त करती है। (बाद में इस धमकी में कुछ सुधार किया गया।)

इस विद्रोह के ग्रामीण पहलू के अलावा इसमें शहरी लोगों की भी शिरकत थी। अंग्रेजी राज में शहरी बेरोजगारी में भारी इजाफा हो गया था। लखनऊ उस जमाने में बड़ा शहर था, शायद तब के कलकत्ता से भी बड़ा। 1856 में अवध पर अंग्रेजी हुकूमत के कब्जे के बाद दरबार के खत्म होने से बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए। विलायती सामान की आमद से कारीगर, खासकर बुनकरों का रोजगार सबसे अधिक प्रभावित हुआ। लखनऊ में 1857 के एक चश्मदीद अंग्रेज एल.ई.एस. रीस ने कबूल किया, ‘‘लखनऊ के लोग हमारे खिलाफ उठ खड़े हों, इसकी संभावना बन रही थी...हम उनका प्यार पाने के कतई काबिल नहीं हैं।’’ जो हालात लखनऊ के लिए थे, कमोबेश वही स्थिति प्रभावित इलाकों के ज्यादातर शहरों की थी। इसलिए 1857 की बगावत किसान विद्रोह से कहीं ज्यादा बड़ी थी। शहरों के लोगों ने भी बगावत में हिस्सा लिया। दिल्ली, लखनऊ, बरेली, कानपुर, झांसी और दूसरे शहर क्रांति के बड़े केंद्र बने।

1950 के दशक में जाहिर हुए दस्तावेज इस मामले में अहम हैं, जिनमें विद्राहियों की कुछेक भावनाओं से हम रू-ब-रू होते हैं। मसलन, मुगल शहजादा फिरोज शाह के 25 अगस्त 1857 के ऐलान में उस वक्त की कई लोकप्रिय मांगों का जिक्र है और उसमें आबादी के अधिक से अधिक तबकों को विद्रोही राज के तहत लाने के लिए कुछ खास वादे किए गए। देखा जाए तो इसमें समाज के हर तबके के लिए राहत के खास उपायों का वादा किया गया था।

वाकई सबसे परंपरागत किस्म के बागी नेता भी जनता से अपील करने की जरूरत के प्रति सचेत थे। यह अपने ऐलान के लिए छापेखाने के इस्तेमाल में भी खासकर जाहिर होता है। अवध दरबार ने बिरजिस कद्र के नाम से 'इस देश के आम लोगों और जमींदारों के नाम इश्तिहारनामा’ छपवाया, जो हिंदुस्तानी में दो लिपियों उर्दू और नागरी में छापा गया। भाषा सोच-समझकर सरल रखी गई। इस दस्तावेज से यह भी पता चलता है कि उन दिनों हिंदी-उर्दू के विवाद अभी नहीं उभरे थे।

नाना साहेब की घोषणा भी एक और मायने में महत्वपूर्ण है। कुछ इतिहासकारों में लंबे समय से यह रुझान रहा है कि नाना साहेब और झांसी की लक्ष्मीबाई को विद्रोह के 'हिंदू’ केंद्रों के रूप में दर्शाए जाएं, जबकि दिल्ली और बरेली की बगावत को 'मुसलमान’ केंद्र की तरह देखा जाए। इस तरह उनके बीच आपसी द्वंद्व की एक अंतर्धारा का पूर्वानुमान कर लिया गया। यह पूर्वानुमान कितना गलत हो सकता था, यह इसी तथ्य से जाहिर है कि नाना साहेब की पहली उद्घोषणा न सिर्फ उर्दू में छापी गई, बल्कि उसमें तारीख भी हिजरी संवत में डाली गई थी, बल्कि उसका मूल मजमून यह है कि तुर्की के सुल्तान ने भारतीयों की ओर से मिस्र में अंग्रेजों का कत्लेआम किया! जहां तक झांसी की रानी का मामला है तो उनके कुछ सबसे बहादुर लड़ाकों में मुसलमान तोपची और पठान अंगरक्षक थे।

जहां तक कथित तौर पर 'मुसलमान’ पक्ष का मामला है तो जिस तरह दिल्ली में मई 1857 में जामा मस्जिद से जेहाद की बात हटाई गई, शायद उसे हिंदुओं के खिलाफ होने की आशंका हो, और मुसलमानों के ईद-उज-जुहा के समय गाय-भैंस को काटने पर प्रतिबंध जाहिर करता है कि विद्रोही सांप्रदायिक टकराव के हर मामले को दूर करने के प्रति कटिबद्ध थे। इस मामले में पर्सिवल स्पीयर 'ट्वीलाइट्स ऑफ द मुगल्स’ में 1857 के दौरान दिल्ली के विस्तार से वर्णन में बागियों की 'शानदार सफलता’ बताते हैं। बरेली में बागियों के मुख्य नेता बहादुर खान ने हिंदू रियासतदारों के नाम एक अपील छपवाई कि वे अंग्रेजों के खिलाफ जंग में शामिल हों। उसमें यह भी बताया गया कि अंग्रेज कैसे हिंदू रिवाजों और मान्यताओं पर हमला करते हैं। उसमें यह वादा भी था कि मुसलमान गोहत्या और गोमांस खाना छोड़ रहे हैं।

अपनी महत्वपूर्ण किताब 'फेल्ट कम्युनिटी’ में रजत कांत राय बताते हैं कि 1857 की बगावत में ज्यादातर विद्रोहियों के दिलोदिमाग से धार्मिक अलगाव की भावनाएं आश्चर्यजनक रूप से मिट-सी गई थीं। हिंदू टुकड़ियां मुसलमान को अपना प्रतिनिधि चुन रही थीं और मुस्लिम टुकड़ियां अपना सिपहसालार किसी हिंदू सूबेदार मेजर को बना रही थीं।

मशहूर बागी नेता और मजहबी आलिम अहमदुल्ला शाह की सरपरस्ती में निकलने वाले 'रिसाला फतहे इस्लाम’ में लगातार हिंदुओं और मुसलमानों दोनों से अपने धर्म को अंग्रेजों के जुल्म से बचाने के लिए एकजुट होकर लड़ने की अपील की जाती रही। इससे भी अधिक गंभीरता से बागियों के एक साप्ताहिक दिल्ली उर्दू अखबार ने कथित तौर पर एक वहाबी पोस्टर की कड़ी निंदा की, जिसमें मुसलमानों से 'पवित्र किताब के लोग’ होने के नाते अंग्रेजों का साथ देने और 'काफिर’ हिंदुओं से दूर रहने की अपील की गई थी। पत्रिका के संपादक (जिन्हें बाद में अंग्रेजों ने फांसी दे दी) ने हिंदू-मुसलमान गठजोड़ को जायज बताने के लिए मशहूर शायर शादी की एक लाइन को उद्धृत किया कि 'हर आदमी को दूसरे का दर्द समझना चाहिए’ और बागी फौज को गर्व से 'हमारी फौज’ और 'लश्करे हिंदुस्तान’ लिखा।

यहां यह जिक्र करना भी मुनासिब है कि बिरजिस कद्र के नाम से बागियों ने महारानी विक्टोरिया की नवंबर 1858 में उद्घोषणा में किए वादों को धोखा बताया। उन लोगों ने कहा कि अंग्रेजों ने मैसूर के टीपू सुल्तान से लेकर पंजाब के दलीप सिंह तक सभी को धोखे से बर्बाद किया। जाहिर है, बागियों को पूरे 'हिंदुस्तान’ की फिक्र थी। यह भी सही है कि सिपाहियों ने अंग्रेजों की जनरल और कर्नल जैसी पदवियां नहीं इस्तेमाल कीं। लगभग हर जगह 'परिषद’ या 'दरबार’ बनाए गए, जिसके जरिए सारे मामले निबटाए जा रहे थे। लेकिन ये किसी एकीकृत सैन्य कमान का विकल्प नहीं थे जो पूरी बागी फौज की सियासी और सामरिक जरूरत थी। अंग्रेजों के साथ सुविधा यह थी कि वे पुख्ता रणनीति बना रहे थे जबकि बागी स्थानीय स्तर की रणनीतियां ही बना रहे थे। इसलिए भारी संख्या में होने के बावजूद वे अलग-अलग इलाकों में हरा दिए गए।

ये दो दिशाओं पूरब और उत्तर-पश्चिम से दुश्मन से घिर गए और हार गए। हालांकि जंग आसान नहीं रही। दिल्ली का मोर्चा चार महीने से ज्यादा टिका रहा। आखिरी दौर में बख्त खान के हाथ कमान थी। ग्वालियर की टुकड़ी ने अंग्रेजों को हरा दिया और कानपुर पर कब्जा कर लिया। झांसी की रानी का मोर्चा यादगार बना। जगदीशपुर के कुंवर सिंह ने बड़े इलाके में कड़ी मुहिम चलाई। तात्यां टोपे अंग्रेजों से दो साल तक लड़ते रहे और आखिरकार 18 अप्रैल 1859 में फांसी पर लटका दिए गए। बागियों ने कहीं भी बिना लड़े मोर्चा नहीं छोड़ा।

आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर 1857 के बड़े नायकों में नहीं थे, लेकिन वे शायर थे। उन्हें कैद में रखा गया और कागज-कलम से वंचित कर दिया गया। उन्होंने अपनी कोठरी की दीवाल पर चारकोल से नज्म लिखी:

गई यक-ब-यक जो हवा पलट

नहीं दिल को मेरे करार है।

करूं उस सितम का मैं क्या ब्यान

मेरा गम से सीना फिगार है।

रिआया-ए-हिन्द तबाह हुई

क्या-क्या ना उस पर जफा हुई

जिसे देखा हाकिमे वक्त ने

कहा ये भी काबिले दार है।

ना दबाया जेरे चमन उन्हें

ना दिया किसी ने कफन उन्हें

ना नसीब हुआ वतन उन्हें

ना कहीं निशाने मजार है।

मैं वह कुश्ता हूं कि जिसकी लाश पर ऐ दोस्तो

एक जमाना दीदा-ए-हसरत से ताकता जाएगा।

ऐ जफर, कायम रहेगी जब तलक इकलीमे हिन्द

अख्तरे इकबाल इस गुल का चमकता जाएगा।  

आखिरी पक्ति एक विद्रोही की गौरवान्वित उक्ति की तरह है। अब हमें, भारत के लोगों को अपने आचार-व्यवहार से दिखाना है कि हम अपने पुरखों की भावनाओं की कितनी कद्र करते हैं, जिन्होंने एक साथ बिना यह सोचे अपना खून बहाया कि वे हिंदू हैं या मुसलमान या सिख।

(लेखक जाने-माने इतिहासकार हैं।)

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