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इस बेरुखी का तो कोई टीका भी नहीं

उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में सही से लागू नहीं हो पा रहे हैं केंद्र के टीकाकरण कार्यक्रम, जमीनी हकीकत उजागर करती विशेष रिपोर्ट
गोरखपुर में जापानी इंसेफेलाइट‌िस की रोक के ल‌िए और उपाय क‌िए जाने की जरूरत

यह तीसरा मौका है जब रूबी अपने 16 दिन के नवजात शिशु को टीका लगाने की अनुमति नहीं देती है। रूबी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के कोताना गांव की रहने वाली है। वह गांव की मुस्लिम बस्ती में रहती है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता वीणा देवी उसे बार-बार समझाती है पर वह टस से मस नहीं होती। वह कहती है कि उसका पति नहीं चाहता कि उसके बच्चे को किसी भी तरह का टीका लगाया जाए। यूनिवर्सल टीकाकरण प्रोग्राम (यूआईपी) के तहत यह जरूरी है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हर नवजात बच्चे के बारे में जानकारी रखने के साथ ही यह भी तय करे कि हर बच्चे का टीकाकरण हो जाए। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह काम राज्य के लगभग अधिकांश हिस्से में पूरा नहीं हो पा रहा है।

केंद्र सरकार द्वारा चलाए जाए रहे यूनिवर्सल टीकाकरण प्रोग्राम (यूआईपी) का लक्ष्य है कि देश में नवजात बच्चे से लेकर 16  साल तक के किशोरों को टीका लगाया जाए। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर प्रति हजार 48 है। ऐसे में टीकाकरण की मदद से ठीक होने वाली बीमारियों से हो रही मौतों को कम किया जा सकता है। भारत में सरकारी कार्यक्रम के तहत 85  फीसदी टीकाकरण मुफ्त में किया जाता है। इसे मान्यता प्राप्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) और आंगनवाड़ी की सहायता से गांवों में चलाया जाता है। इसमें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचएसी) की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

रूबी का मामला तो बस एक उदाहरण है। रूबी जब गर्भवती थी तो उसने स्थानीय आंगनवाड़ी से दो टीके लगवाए थे। ये वही टीके थे जिन्हें गर्भावस्था के दौरान लेना जरूरी होता है। मगर जब उसने बेटे को जन्म दिया तो उसके पति ने बच्चे को किसी भी तरह का टीका लगाने से मना कर दिया। वह इसका कारण यह बताती है कि व्हाटस्ऐप पर ऐसे कई संदेश चल रहे हैं जिसमें कहा गया है कि सरकार टीकाकरण से मुस्लिम बच्चों को बांझ बनाना चाहती है। इस पर कोताना गांव की दो आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं में से एक वीणा देवी कहती हैं कि इस तरह के अफवाह इस कारण उड़ते हैं क्योंकि लोगों में टीकाकरण कार्यक्रम के प्रति जागरूकता का अभाव है।

कोताना से 30 किलोमीटर दूर स्थित गांव असारा की भी यही स्थिति है। यहां भी बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। इस गांव में दो आशा कार्यकर्ताओं के अलावा चार सामुदायिक संघटन संयोजक (सीएमसी) भी हैं। इनमें सीएमसी की जिम्मेदारी है कि वह लोगों में टीकाकरण के प्रति जागरूकता पैदा करे जबकि आशा कार्यकर्ताओं को बच्चों और महिलाओं को टीका लगाने का जिम्मा रहता है। कोताना और असारा गांव में काम करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता बताते हैं कि इन गांवों के कई बच्चे पिछले दो साल में पोलियो, निमोनिया और खसरे की बीमारियों से ग्रस्त रहे हैं। ये वैसी बीमारियां हैं जो सरकारी कार्यक्रम के तहत चल रहे टीकाकरण अभियान से रोकी जा सकती हैं।

लोगों में जागरूकता का नहीं होना उत्तर प्रदेश में यूनिवर्सल टीकाकरण प्रोग्राम (यूआईपी) में रुकावट पैदा करने वाला एक प्रमुख कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्‍ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार यूआईपी पर अमल करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश की स्थित सबसे खराब है। यहां सिर्फ 57.4 फीसदी बच्चों का ही टीकाकरण हो पाया है। कई गांवों में घूमने के दौरान यह बात साफ हुई कि टीकाकरण करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी,  अपर्याप्त उपकरण और जरूरी मूलभूत सुविधाओं  के अलावा जागरूकता की कमी इसके कारण हैं।

कोताना और असारा गांवों की आबादी क्रमश: 12000 और 36000 है। मगर इतनी आबादी होने के बाद यहां आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की संख्या मात्र दो है। इनके जिम्मे रोज हर घर में जाकर यह देखना होता है कि पूरा परिवार स्वास्थ्य सुविधाएं ले रहा है या नहीं। असारा में कुछ प्रशिक्षित सीएमसी कार्यकर्ता हैं जबकि कोताना में कोई आशा कार्यकर्ता नहीं है। कोताना गांव में बुधवार और शनिवार को सरकारी नियम के अनुसार आशा कार्यकर्ता टीकाकरण के लिए जाती हैं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता वीणा देवी के अनुसार, ‘हम लोगों के पास स्टाफ की कमी है। ऐसे में जब हमारे पास रूबी जैसे मामले आते हैं तो हमें अधिक जानकारी और मेडिकल अनुभव वाले लोगों की जरूरत पड़ती है।’ वह बताती हैं कि जब जिले में आंगनवाड़ी के सात केंद्र थे तो उनमें से अधिकांश टीकाकरण दिवस के दिन भी बंद रहते थे। उनके इस बयान से ही स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। सबसे चिंता की बात तो यह है कि अधिकांश आंगनवाड़ी केंद्र टीकाकरण कार्यक्रम के संचालन के लिए सुविधाओं से लैश नहीं हैं। एक और परेशानी युवा माताओं को यह समझाने की है कि टीकाकरण उनके बच्चों के लिए कितना जरूरी है।

आसरीन ने एक माह पहले बच्चे को जन्म दिया है, पर अभी उसके बच्चे को टीका नहीं लगा है। उसके बच्चे का जन्म असारा के अस्पताल में नहीं बल्कि घर पर हुआ है। इस कारण बच्चे को जन्म के बाद लगने वाले तीन टीके-बीसीजी, पोलियो और हेपेटाइटिस बी नहीं लगे हैं। यहां काम करने वाली आशा कार्यकर्ता सरला बताती हैं कि देरी का कारण यह है कि डॉक्टर बीसीजी की नई शीशी केवल एक बच्चे के लिए नहीं खोलना चाहते। वे बीसीजी लगाने के लिए और बच्चों का इंतजार करते हैं। वह कहती हैं कि बीसीजी की एक शीशी में दस डोज दवा होती है और अगर इनका एक साथ इस्तेमाल नहीं किया जाए तो वह खराब हो जाती है। ऐसे में जब एक बच्चा होता है तो उसके अभिभावक को टीकाकरण वाले दिन आने को कहा जाता है। इस दिन उम्मीद रहती है कि और बच्चे टीका लगवाने के लिए आएंगे। इसका परिणाम यह होता है कि बच्चे सही समय पर टीका लगवाने से वंचित रह जाते हैं।

कोताना से कुछ किलोमीटर दूर स्थित गांव मंगदपुर में एक आंगनवाड़ी केंद्र है जो 350 लोगों की देखभाल करता है, लेकिन यह पिछले दो महीने से बंद पड़ा है। स्थानीय प्राथमिक स्कूल के मुख्य प्रशासक मनोज कुमार बताते हैं कि पिछले एक साल के दौरान यहां का आंगनवाड़ी केंद्र टीकाकरण दिवस के मौके पर भी कभी-कभी ही खुला है। मनोज के अनुसार गांव में एक आशा कार्यकर्ता भी है। इसके जिम्मे नवजात बच्चों की जानकारी रखना है। पर हमने पिछले कई साल से गांव में टीकाकरण अभियान चलते नहीं देखा है। आशा कार्यकर्ता के घर जाने पर ऐसा लगता है जैसे वह अधिकांश दिन क्षेत्र में लोगों की सेवा में लगी रहती है। लेकिन वास्तविकता है कि वह अभिभावकों को सलाह देने के लिए उपलदब्‍ध नहीं होती है।

घनी आबादी के बावजूद असारा में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) नहीं है। गांव में केंद्र सरकार के आयुष कार्यक्रम के तहत एक यूनानी क्लिनिक चलता है। यह क्लिनिक भी काफी खराब अवस्था में है और यहां एलोपैथिक दवा का कोई स्टॉक नहीं है। इस क्लिनिक में मौजूद एकमात्र डॉक्टर फरहान कहते हैं कि यहां ज्यादा मरीज नहीं आते हैं। कभी-कभी जब माताएं अपने बच्चों को टीका दिलवाने के प्रति अनिच्छुक होती हैं तो आशा कार्यकर्ता उन्हें हमारे पास लेकर सलाह दिलाने के लिए आती हैं।

इन गांवों के सबसे नजदीक अस्पताल बड़ौत का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचएसी) है। बड़ौत बागपत जिले का एक छोटा सा शहर है जिसकी दूरी असारा से 30 और कोताना से 20 किलोमीटर है। इस सीएचसी में हर महीने करीब 300 बच्चों का जन्म होता है। इस केंद्र में कोल्ड स्टोरेज भी है जिसमें इलाके के 180 गांवों के वैक्सीन रखे जाते हैं। वैक्सीन के लिए रखे चार फ्रिजों को दिखाते हुए यूनिवर्सल टीकाकरण प्रोग्राम (यूआईपी) के मैनेजर सचिन मलिक बताते हैं कि बड़ौत में चार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) भी हैं पर अधिकांश ग्रामीण सीएचसी को ही प्राथमिकता देते हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें लगता है कि यहां रोगियों को ज्यादा उचित देखभाल और सुविधा मिल सकती है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की स्थिति भी इस इलाके से भिन्न नहीं है। बीआरडी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल जिले का सबसे बड़ा अस्पताल है। यहां रोजाना हजारों मरीजों का इलाज किया जाता है। यह जिले के लिए वैक्सीन रखने का भंडार भी है। गोरखपुर देश के उन 11 जिलों में शामिल है जहां बड़ी संख्या में जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) के मामले सामने आए थे। इस बीमारी में तेज बुखार होता है और बच्चों के दिमाग पर भी इसका असर पड़ता है। यही कारण है कि सरकार को इस बीमारी के टीके को भी यूनिवर्सल टीकाकरण प्रोग्राम (यूआईपी) के अंदर रखना पड़ा। लेकिन यूआईपी के प्रति जानकारी की कमी और मुफ्त टीके की कमी के कारण इसमें ज्यादा सफलता नहीं मिली।

अस्पताल प्रबंधन का दावा है कि इलाके के 95 फीसदी आबादी को टीका लगा दिया गया है पर गांव के लोग अलग ही कहानी बताते हैं। मिश्रौली गांव की उमा बताती है कि वह भाग्यशाली है कि उसके बच्चे को अस्पताल में टीका लगा दिया गया लेकिन उसके गांव और आसपास के छोटे गांवों में यह कार्यक्रम सही ढंग से नहीं पहुंच सका है। इतना ही नहीं जब आशा कार्यकर्ता गांव में टीकाकरण के लिए आती हैं तब भी हम अपने बच्चों को टीका नहीं लगवा पाते।

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में पिछले दो साल में खसरे (मिजिल्स) के चार और पोलियो के कई मामले आए हैं। क्या कारण है कि गोरखपुर में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के मामले अन्य जिलों की तुलना में ज्यादा आए हैं। अस्पताल में हर साल जापानी इंसेफेलाइटिस के दो हजार केस आते हैं। जापानी इंसेफेलाइटिस एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम का एक प्रकार है, किसी भी तरह का इंसेफेलाइटिस होने पर यही नाम लिया जाता है। मेडिकल कॉलेज के शिशु चिकित्सा विभाग की प्रमुख डॉ. महिमा मित्तल के अनुसार सभी एईएस केसों में मात्र दस फीसदी ही जापानी इंसेफेलाइटिस के होते हैं। इसकी संख्या में पिछले कुछ साल से कमी आ रही है। डॉ. मित्तल के अनुसार पिछले पांच साल में रोगियों की संख्या में 50 फीसदी की गिरावट आई है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2014 में एईएस के 2208, 2015 में 1760 और 2016 में 1965 केस सामने आए हैं। इनमें से मात्र 173  ही जापानी इंसेफेलाइटिस के थे। इतना ही नहीं बच्चों में भी यह आकंड़ा काफी कम था।

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में शिशु रोग विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ. के.पी. कुशवाहा इस बात के लिए अफसोस जताते हैं कि सरकार ने इस बात के लिए इच्छाशक्ति नहीं दिखाई कि कैसे ऐसे वैक्सीन बनाए जाएं जिससे एईएस के अन्य प्रकारों पर रोक के लिए ज्यादा शोध हो सके। उन्होंने कहा कि एईएस पर रोक के लिए और ज्यादा शोध किए जाने की जरूरत है। यह जानना जरूरी है कि यह बीमारी कैसे होती है और इसे कैसे पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है। डॉ. कुशवाहा के अनुसार भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) सहित दूसरे शोध प्रयोगशालाओं ने साक्ष्यों की अनदेखी की और एईएस के छोटे हिस्से खासकर जापानी इंसेफेलाइटिस पर ज्यादा फोकस किया।

हालांकि टीकाकरण के लिए सरकारी तंत्र जिला स्तर पर मौजूद है पर ‘सभी के लिए टीकाकरण’ के वादे के लिए इसका गांव तक पहुंचना जरूरी है। इसके लिए सरकार को और अधिक काम करने की जरूरत है। इसके लिए सिर्फ गांवों तक संसाधन पहुंचाना ही जरूरी नहीं है बल्कि लोगों में और जागरूकता फैलाने के साथ टीकाकरण के फायदों को बताने की जरूरत है। अगर यूनिवर्सल टीकाकरण प्रोग्राम (यूआईपी) में ढील रह गई तो इसे सफल बनाने के लिए लगाए गए पैसे, समय और उद्देश्य विफल हो जाएंगे।

 

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