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झुनझुना थमाने का तामझाम

नौकरियों के सिकुड़ने के दौर में पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की मोदी सरकार की पहल में किंतु-परंतु
हर‌ियाणा में प्रदर्शन करते जाट

राजनीति खासकर चुनाव जीतने के तकाजे राजनैतिक दलों को ऐसे फैसलों पर भी पहुंचा देते हैं, जो उनकी अब तक की राजनीति में फिट न बैठते हों। भाजपा और मोदी सरकार की पोटली से निकला राष्ट्रीय सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग संशोधन विधेयक शायद इसकी एक मिसाल है। अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा संबंधी बयान से बिहार चुनावों में मुश्किल में फंस गई भाजपा के लिए आरक्षण का मुद्दा कभी सहज नहीं रहा है। लेकिन जब उसे जाटों, पटेलों, मराठों की आरक्षण संबंधी मांग से सामना करना पड़ा तो उसे निकलने की यही राह सूझी, जिसकी मांग अरसे से कई मंचों से होती रही है। लेकिन इसके पहले की एनडीए या यूपीए सरकारों ने कभी इसे जरूरी नहीं समझा।

प्रस्तावित राष्ट्रीय सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग अभी मौजूद राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की जगह ले लेगा। उसे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग की तरह ही संवैधानिक दर्जा हासिल होगा। यानी इसमें जातियों को शामिल करने या हटाने के लिए संसद से मंजूरी लेनी होगी। फिलहाल यह अधिकार राज्यों का है लेकिन इसके बाद राज्य सिर्फ सिफारिश ही कर सकते हैं। इससे उम्मीद यह की जा रही है कि कई राज्यों में जो जातियां पिछड़ी मानी जाती हैं लेकिन केंद्र की सूची में नहीं हैं तो उन्हें केंद्र में आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। मसलन, जाट आठ-नौ राज्यों में पिछड़ों की सूची में हैं लेकिन केंद्र में उन्हें लाभ नहीं मिलता या हरियाणा में उन्हें पिछड़ा नहीं माना जाता। यानी संवैधानिक दर्जा बहाल होने से इसमें राज्यों की सूची में शामिल जातियों को शामिल किया जा सकेगा। इसी वजह से जाट आरक्षण संघर्ष समिति के नेता यशपाल मलिक इसका स्वागत करते हैं। वे कहते हैं, ‘इससे केंद्र सामाजिक पिछड़ी जातियों के लिए सर्वेक्षण भी करा सकती है और राज्यों को सिफारिश भी भेज सकती है।’

हालांकि इससे आरक्षण की मांग करने वाली कई जातियों का मसला फिर भी नहीं सुलझेगा। मसलन, जाट तो कई राज्यों की सूची में होने के नाते राष्ट्रीय सूची में आसानी से शामिल हो जाएंगे लेकिन गुजरात में पटेल, महाराष्ट्र में मराठा और आंध्र प्रदेश में कापू जैसी जातियों को राज्य की सूची में न होने से यह लाभ फिलहाल नहीं मिल पाएगा। उन्हें संसद का मुंह ताकना होगा और आगे भी लड़ाई जारी रखनी हो सकती है।

यह संशोधन विधेयक फिलहाल राज्यसभा के जरिए संसदीय प्रवर समिति को सौंप दिया गया है। हालांकि पिछड़ा वर्ग आरक्षण पर संसद और उसके बाहर सबसे मुखर जनता दल (यूनाइटेड) के नेता शरद यादव कहते हैं,  ‘मुझे नहीं मालूम किसने इसका विरोध किया। यह तो भाजपा सांसदों की ही मांग थी और सरकार ने उसे मान लिया।’ इसी से शंका होती है कि कहीं सरकार इसका महज सियासी लाभ हासिल करने की ही मंशा तो नहीं रखती है। वजह यह कि सरकारी नौकरियों का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। पिछड़े वर्ग के नेता मांग करते रहे हैं कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।

हालांकि हाल में ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस संवैधानिक आयोग के लिए प्रस्ताव पेश करने वाले बुजुर्ग सांसद हुकुमदेव नारायण यादव ने आउटलुक से कहा, ‘नए पिछड़ा वर्ग आयोग के आने से सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में काम कर रहे पिछड़ी जाति के लोगों को प्रोन्नति, तबादलों, तैनाती और यूनियन बनाने में फायदा होगा। ओबीसी के 27 फीसदी कोटे को लागू करने में अड़चन आने पर और छोटी पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने में मदद मिलेगी। आयोग को कानूनी शक्तियां दी गई हैं। कोई भी पीडि़त आयोग के समक्ष शिकायत कर न्याय की गुहार लगा सकता है।’

लेकिन सरकारी नौकरियों के सिकुड़ते जाने के दौर में इसका कितना लाभ मिल पाएगा कहना मुश्किल है। शरद यादव कहते हैं, ‘आज भी बड़ी नौकरियों में पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी महज आठ फीसदी है जबकि होनी चाहिए 27 फीसदी। अब इस आठ फीसदी में किसे क्या मिल जाएगा।’ इसी वजह से कुछ पिछड़े नेताओं की ओर से ऐसी आशंकाएं उठीं कि कहीं इसके जरिए आरक्षण को बेमानी बनाने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। हालांकि ओबीसी शक्ति संघ के संयोजक पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, ‘यह डर बेजा है। असल में पिछड़ों को आगे ले जाने वाली बस में जो चढ़ गया है, वह दूसरों के चढऩे से जगह घट जाने से डर रहा है।‘

वैसे मूल सवाल यही है कि नौकरियों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा छोटे उद्योगों पर संकट के कारण जो समस्याएं पैदा हो रही हैं, उन्हें महज इतने उपाय भर से नहीं सुलझाया जा सकता। आरक्षण को लेकर कुछ समय से एक नए तरह की बेचैनी देश के कई हिस्सों में देखी गई है। खासकर उन समुदायों में जो पहले कभी उसकी जरूरत नहीं महसूस करते थे या एक मायने में आरक्षण से बिदकते तक थे। क्योंकि वह उन्हें समाज में अपनी हैसियत कमतर होने का एहसास दिला जाता था। पिछले साल हरियाणा के जाटों का आरक्षण के लिए आंदोलन उग्र हुआ। उसी के आसपास अचानक आंध्र प्रदेश के कापू समुदाय में भी यह चिंगारी भड़की थी। महाराष्ट्र में मराठों ने भी आरक्षण की मांग उठाई। गुजरात में पाटीदार या पटेल समाज के आरक्षण आंदोलन ने सियासी पंडितों को भी चक्कर में डाल दिया था। उसके नेता हार्दिक पटेल को  राजद्रोह के कई आरोपों में गिरफ्तार किया गया था। सवाल है कि क्या गुजरात में पाटीदार, उत्तर भारत में जाट और आंध्र में कापू समुदाय की आरक्षण को लेकर उपद्रव करने की बेताबी किसी और सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा कर रही है?

आरक्षण की मांग करने वाली ये सभी जातियां खेतिहर समुदाय से हैं और अपने-अपने इलाकों में इनका दबदबा भी है। जाट समुदाय तो आज भी बड़े पैमाने पर खेतिहर समाज ही है। उसी तरह गुजरात का पाटीदार और आंध्र प्रदेश का कापू समाज खेती-किसानी में अपने इलाकों में अव्वल रहा है। इन समुदायों का सियासी असर भी खासा रहा है और इनके नेता आला पदों पर पहुंचते रहे हैं।

हाल में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 70वें दौर के आंकड़े जाहिर करते हैं कि ग्रामीण आमदनी में हाल के दौर में भारी कमी आई है। किसानी और खेती का संकट इतना बढ़ गया है कि किसानों की रुचि अब खेती करने में नहीं रह गई है। ये आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में खेती में कुल 13 लाख हेक्टेयर की कमी आई है। इसी सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि छोटे उद्योग-धंधों की हालत भी खस्ता हुई है। इस सर्वेक्षण से नीति आयोग में हड़कंप है और आंकड़ों को लेकर बहस जारी है।

इससे अब इनकार करना मुश्किल है कि किसानी घाटे का सौदा हो गई है या कहें बना दी गई है। उसके मुकाबले औद्योगिक उत्पादों की कीमत कई गुना बढ़ी है। दाम में कोई संतुलन नहीं है। सरकार कृषि जिंसों के दाम पर नियंत्रण रखती है लेकिन कारखानों के उत्पादों पर उसका नियंत्रण नहीं होता। बड़े उद्योगों को तरजीह देने से छोटे उद्योग मर रहे हैं। गुजरात के पाटीदार समुदाय के उदाहरण से इस संकट को आसानी से समझा जा सकता है। पाटीदार समुदाय खेतिहर होने के अलावा बड़े पैमाने पर उद्योग-धंधों में लिप्त रहा है लेकिन पिछले दशक में बड़े कारोबारियों ने छोटे धंधों को तबाह कर दिया।

जब हार्दिक पटेल ने ये बातें कहीं तो विकास के गुजरात मॉडल पर बहस शुरू हो गई। वैसे उच्च शिक्षा के लगातार निजीकरण और खर्चीली होते जाने से इन समुदायों के बच्चों की उन्नति भी प्रभावित हो रही है। दक्षिण गुजरात में करीब एक दशक तक अध्ययन करने वाले समाजशास्त्री जेन बेरमैन अपनी हालिया किताब ‘ऑन पॉपरिज्म इन प्रेजेंट एंड पास्ट’ में बताते हैं कि मौजूदा स्थितियों से हुनरमंद लोग भी गैर-हुनरमंद होते जा रहे हैं और आमदनी में कमी का दंश झेल रहे हैं। इससे रसूखदार खेतिहर समुदाय दोहरे संकट में हैं। शायद इस संकट को जाहिर करने का आरक्षण बहाना बन रहा है। जहां किसान असहाय महसूस करता है, वहां आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। इसलिए संकट को सही परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है। निश्चित रूप से इस संकट को हल करने के वाजिब उपाय किए जाने चाहिए। लेकिन जब सरकार जेएनयू जैसे संस्थान में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़े वर्गों और हाशिए के समाज के बच्चों को प्रवेश में रियायत खत्म कर रही है तो कैसे मानें कि वह पिछड़ा वर्ग को संवैधानिक दर्जा देकर आज के सवालों को हल करने की कोशिश कर रही है। 

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