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तनाव, बेचैनी और चिंताएं

फिजा में तनाव, बेचैनी और चिंताएं हैं। अर्थव्यवस्थाल का हर क्षेत्र मंदी की चपेट में है। सवाल है कि सबसे कुशल और अच्छा प्रशासन देने का दावा करने वाली सरकार के रहते ये हालात कैसे बने?
अर्थव्यवस्था को लेकर चुनौतियां बढ़ीं

कुछ भी कहें यह समय सामान्य तो नहीं है। कुछ तनाव, कुछ बेचैनी, कुछ चिंताएं हवा में तैर रही हैं। देश, समाज और लोगों के मन में कई तरह के गंभीर मसले उथल-पुथल मचा रहे हैं। कहा जा रहा है कि हम एक शक्तिशाली राष्ट्र और अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर हैं। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। हर रोज समाचार माध्यमों में अर्थव्यवस्था के किसी न किसी क्षेत्र में छंटनी और कारोबारी दर गिरने या सिकुड़ने की खबरें आ रही हैं। देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे, दुनिया के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों में शुमार भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन कह रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी चिंता का विषय है। दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं और खासकर उभरती अर्थव्यवस्‍था वाले देशों के बारे में गहरी समझ रखने वाले इन्‍वेस्टमेंट एक्सपर्ट रुचिर शर्मा कह रहे हैं कि भारत के लिए अब सात फीसदी के बजाय पांच फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर 'न्यू नार्मल' है। केंद्र सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी पिछले दिनों हार्वर्ड की अपनी रिसर्च में कहा था कि भारत की आर्थिक विकास दर सरकार के आंकड़ों से करीब ढाई फीसदी कम है जो 3.5 फीसदी के आसपास बैठती है।

हालांकि, सरकार और सरकारी अर्थविदों ने इसे गलत साबित करने में पूरा जोर लगा दिया था। लेकिन जब पांच रुपये के दाम वाले बिस्कुट के पैकेट की बिक्री गिरने, अंडवियर की बिक्री घटने, अर्थव्यवस्था की दिशा के सूचक ऑटो उद्योग की बिक्री में 19 साल की सबसे बड़ी गिरावट के आंकड़े आने लगे तो हार्वर्ड और ‘हार्ड वर्क’ वाले सब एक लेवल पर आ गए। प्रधानमंत्री इकोनॉमी को पटरी पर लाने के लिए वित्त मंत्री के साथ बैठकें करने लगे हैं। बमुश्किल डेढ़ माह पहले देश की इकोनॉमी को पचास खरब डॉलर के रास्ते पर ले जाने वाला बजट पेश करने वाली वित्त मंत्री मंदी से जूझ रहे क्षेत्रों को उबारने के उपायों के लिए उद्योग प्रतिनिधियों के साथ बैठकें करने लगी हैं। प्रोत्साहन पैकेज घोषित होने की खबरों से लेकर, करों में कटौती के विचार आने लगे और टैक्स टेररिज्म पर अंकुश की सलाह दी जाने लगी। खुद प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के भाषण में कहा कि देश के लिए धन-संपदा पैदा करने वालों को सम्मान से देखा जाना चाहिए।

यानी कुछ तो है जिसे बदलने की जरूरत पड़ रही है। उद्यमी और उद्योग संगठन सरकारी नीतियों की नाकामी को इसकी वजह बताने लगे हैं। वे बयान दे रहे हैं कि 'मेक इन इंडिया' नौकरियां देने में नाकाम रहा है। 2013-14 में जीडीपी की विकास दर 6.6 फीसदी थी, जो 2018-19 में 6.8 फीसदी तो रही, लेकिन इसी साल की अंतिम तिमाही में यह 5.8 फीसदी पर आ गई। अगले कुछ दिनों में चालू साल की पहली तिमाही में इसके और गिरने की आशंका है। खुद रिजर्व बैंक ने चालू साल के लिए अनुमान 6.9 फीसदी कर दिया है। अब कोई वित्त मंत्रालय के अधिकारियों से कैसे पूछे कि उन्होंने तो पूरा बजट ही आठ फीसदी की विकास दर के आधार पर बनाया था। लेकिन राजस्व संग्रह और औद्योगिक उत्पादन से लेकर निर्यात तक के आंकड़े उसे सपोर्ट नहीं कर रहे हैं। इस बीच आजादी के बाद के सबसे बड़े सुधार जीएसटी को अब मुश्किलों के लिए याद किया जाता है।

सवाल है कि जब देश में सबसे सक्षम और कुशल प्रशासन देने का वादा करने वाली सरकार है, तो ये हालात क्यों बने? अब अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कड़े सुधार लागू करने की जरूरत बताई जा रही है। वैसे, हमें कुछ पिछले और ताजा आंकड़ों पर गौर करना चाहिए। भारत में 1991 में आर्थिक सुधार शुरू हुए थे और चीन में इससे कुछ साल पहले। 1990 में जीडीपी के हिसाब से भारत में प्रति व्यक्ति आय 368 डॉलर थी जबकि चीन की प्रति व्यक्ति आय उस समय हमसे कम 318 डॉलर थी। सबसे कमजोर बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 306 डॉलर थी जबकि युद्धोन्माद में व्यस्त रहने वाले पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय चारों देशों में सबसे अधिक 372 डॉलर थी। अब मौजूदा दौर में आते हैं, 2018 के आंकड़ों के मुताबिक चीन की प्रति व्यक्ति आय हमसे करीब पांच गुना 9,771 डॉलर हो गई है और हम 2,016 डॉलर पर ही अटक गए। बांग्लादेश 1,698 डॉलर के साथ हमसे तो पीछे है लेकिन पाकिस्तान की 1,473 डॉलर प्रति व्यक्ति आय से आगे निकल गया। यह गति कायम रही तो ताज्जुब नहीं कि पांच साल बाद बांग्लादेश भारत से आगे निकल जाए और हम पाकिस्तान के करीब अटके रहें। ये आंकड़े देश, देश के लोगों और अर्थव्यवस्था पर हो रहे काम के लिए बहुत कुछ कहते हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं।

इन चिंताओं के साथ और कई मसले 73वां स्वतंत्रतता बरस लेकर आया है। इसलिए आजादी की वर्षगांठ के महीने में यह विशेषांक ऐसे ही तमाम सवालों पर केंद्रित है। इसमें विद्वानों, शिक्षाविदों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, समाज विज्ञानी और राजनीति के विशेषज्ञों ने अपने नजरिए से देश और समाज के मौजूदा परिदृश्य को आजादी के वक्त और संविधान के संकल्‍पों के साथ तौलने की कोशिश की है। विषय गंभीर और मौका भी अहम है। उम्मीद है, हमारी यह कोशिश कुछ कारगर साबित होगी।

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