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जनादेश-2019/नए सूत्र और सूरमा: सत्रहवीं संसद के दल और देश

अगली लोकसभा में नई पीढ़ी के नेताओं के हाथ कमान ही नहीं आएगी, बल्कि नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन की इबारत लिखी जाएगी
बदलाव की फितरतः कांग्रेस का घोषणा-पत्र जारी करते पार्टी के दिग्गज

वह नारा याद कीजिए, जिसकी गूंज अब थम-सी गई है, देश बदल रहा है। इस नारे की नीयत और नजरिए से एक पल को ध्यान हटा दीजिए तो यकीनन बहुत कुछ बदल रहा है। कल्पना कीजिए जब 23 मई को 17वीं लोकसभा का जनादेश आएगा तो राजनीति और देश की सूरत कैसी होगी? क्या कमान उन्हीं नेताओं और मुद्दों-मसलों के हाथ रह जाएगी, जो पांच साल पहले 16वीं  लोकसभा के प्रारंभ में प्रभावी थे? जी नहीं, राजनैतिक क्षितिज पर न सिर्फ उन नेताओं की रोशनी गायब दिखेगी, बल्कि वे मुद्दे-मसले भी चमक खो देंगे। यह कोई सामुद्रिक ज्ञान नहीं, बल्कि जनादेश हासिल करने के लिए छिड़ी जंग से ही जाहिर हो रहा है। कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग पूरी राजनैतिक बिरादरी का रंग-रोगन बदल चुका है और कमान नई पीढ़ी के जिम्मे आ गई है, जिस पर ये आम चुनाव मुकम्मल मुहर लगा देंगे। इसी तरह विकास का वह नव-पूंजीवादी 'गुजरात मॉडल' ही नहीं गुम हो गया है, बल्कि निवेश और बाजार पर जोर देने वाली अर्थव्यवस्‍था चर्चा से गायब है। नब्बे के दशक से आर्थिक उदारीकरण से शुरू हुई यह धारा अब लोक कल्याणकारी राज्य की ओर मुड़ती दिख रही है। प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के घोषणा-पत्र या हाल के दौर में ऐलान-कार्यक्रम ही इसकी गवाही दे रहे हैं। इस तरह इसमें अब शक की गुंजाइश नहीं रह गई है कि ये आम चुनाव देश की तस्वीर मुकम्मल तरीके से बदलने जा रहे हैं। यह दीगर है कि इसके नतीजे क्या होंगे या किसके हाथ देश की कमान आएगी। लेकिन इतना तो यकीनन कहा जा सकता है कि चाहे मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान जीते या कोई वैकल्पिक सत्ता स्‍थापित हो, न वे नीतियां बनी रहेंगी, न जनता मौन रहेगी।

दरअसल, पिछले पांच साल में गंगा-यमुना-नर्मदा-कावेरी में इतना पानी बह चुका है कि न पानी का वह रंग बचा है, न देश की वह काया रह गई है। रोजगार और किसानों की तबाही पहली बार तीन दशकों बाद सुर्खियों में आ गई है, वरना दो-ढाई दशकों से किसानों की आत्महत्या भी नीतियों का रुख मोड़ने में कामयाब नहीं हो पाई थी। इसी के साथ निजीकरण की बयार भी क्रोनी कैपिटिलिज्म या याराना पूंजीवाद के भंवर में उलझकर रह गई है और अब फिर सार्वजनिक उपक्रमों के कल्याणकारी दिशा की हवाएं बहने लगी हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं, “नरेंद्र मोदी अगर विकास के नाम पर अपने दस-पंद्रह दोस्तों के लाखों करोड़ माफ कर सकते हैं तो कांग्रेस गरीबों-किसानों को क्यों नहीं दे सकती।”

नेतृत्व का दमः अमित शाह के पर्चा भरने के पहले गांधीनगर में एनडीए के नेता

इसका कुछ दंश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी सालता दिखा। उन्होंने 2 अप्रैल को ओडिशा के कालाहांडी की रैली में कहा, “कांग्रेस 70 साल में वादे पूरा नहीं कर पाई तो मैं पांच साल में कैसे कर पाता।” दरअसल,नब्बे के दशक से प्रभावी जिन आर्थिक और राजनैतिक नीतियों को मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया, उस पर संदेह के बादल घिर आए हैं। रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि लोगों की परीक्षा लेने लगी है। फिर मोदी सरकार के नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों ने इस पूरे मामले पर पुनर्विचार को मजबूर कर दिया है।

मुद्दों के साथ-साथ इस दौरान राजनैतिक पार्टियों और फैसला लेने वाले चेहरे-मोहरे भी बदल चुके हैं। भाजपा में नरेंद्र मोदी-अमित शाह के 'गुजरात मॉडल' के जो बीज बड़ी आक्रामकता के साथ 2013-2014 में पड़े थे, पांच साल बाद वह विशाल वृक्ष बन गया है। उसके साए में सभी पुराने बट-वृक्ष बौने हो गए हैं या उजड़ गए हैं, जिनके नाम से कभी पार्टी का वजूद जाना जाता था। इसी तरह कांग्रेस में अब राहुल गांधी की कमान सर्वोपरि हो गई है।

अब आइए उनकी ओर देखते हैं, जिन्हें खास इलाकों में असर रखने के कारण तथाकथित क्षेत्रीय दल कहा जाता है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शरद पवार की जगह सुप्रिया सुले, अजित पवार वगैरह का स्वर प्रभावी हो जाएगा। राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव का सूर्य ढल चुका है और उनके बेटे तेजस्वी का तेज चमकने लगा है। लोक जनशक्ति पार्टी में रामविलास पासवान के बदले कमान उनके बेटे चिराग पासवान के हाथ आ रही है। समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव-शिवपाल यादव का दौर बीत चुका है और अब अखिलेश यादव के हाथ बागडोर है। इसका नतीजा यह भी है कि चाहे भाजपा और मोदी लहर के दबाव में ही सही, बहुजन समाज पार्टी की मायावती से ऐसा गठजोड़ बन गया, जिसमें दो काया जैसे एक हो गई है। गठजोड़ के झंडे–बैनरों को ही देख लीजिए, जिसमें आधे में नीला और आधे में लाल रंग छाया है। यह साथ दोनों पार्टियों के जनाधार दलित (जाटव) और यादवों के सामाजिक समीकरणों की वजह से भी असंभव जैसा लगता था। मुलायम तो पिछले महीने लखनऊ की एक पार्टी बैठक में गठजोड़ की आलोचना भी कर चुके हैं लेकिन आखिर अखिलेश की ही चली। यह नई सियासत के ही संकेत हैं।

देश में सबसे पहले पिछड़ों और दलितों की राजनीति को परवान चढ़ाने वाले तमिलनाडु में भी नेतृत्व बदल गया है और ये चुनाव इस नए नेतृत्व पर अपनी मुहर लगाएंगे। वहां राजनीति के दोनों पुरोधा द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जयललिता विदा हो चुके हैं। अब द्रमुक की कमान पूरी तरह उनके बेटे एम.के. स्तालिन के हाथ आ चुकी है। दूसरे भाई अलगिरी फोकस से दूर हो चुके हैं। अन्नाद्रमुक में मुख्यमंत्री पलनीसामी की पकड़ भी बागडोर पर मजबूत होने लगी है। हालांकि इस बार के चुनाव तय करेंगे कि तमिलनाडु की राजनीति की अगली दिशा क्या होगी? वहां इन चुनावों में हिस्सेदारी करने वाले कमल हासन और राजनीति में अपनी बारी का इंतजार कर रहे रजनीकांत जैसे फिल्मी सितारों की सियासत का क्या होगा, यह भी ये चुनाव तय कर सकते हैं।

कर्नाटक में जनता दल (सेकुलर) की सियासी कमान भी इन चुनावों में तय हो जाएगी। पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा की यह आखिरी पारी साबित होने जा रही है और पार्टी की बागडोर उनके बेटे मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी के हाथ है। उनकी अगली पीढ़ी भी इस बार मैदान में है। पड़ोस के तेलंगाना में तो मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और उनके परिजनों के हाथ ही कमान है। लेकिन आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम के नेता एन. चंद्रबाबू नायडु अपने बेटे को इस बार मैदान में उतार रहे हैं। फिर, ये चुनाव पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी की सियासत को भी नई दिशा दे सकते हैं। जगनमोहन रेड्डी ने पिता की मृत्यु के कुछ समय बाद ही कांग्रेस से अलग होकर वाइएसआर कांग्रेस का गठन कर लिया था लेकिन पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में खास कुछ नहीं कर पाए थे। इस बार उनकी पार्टी मुख्य मुकाबले में है। यानी चुनावों में वाइएसआर कांग्रेस अगर अच्छा प्रदर्शन करती है तो पहली दफा जगनमोहन रेड्डी राजनीति में एक अहम किरदार बनकर उभर सकते हैं।

दक्षिण में केरल इकलौता राज्य है, जहां सियासत वाम मोर्चे और कांग्रेस के पुराने नेताओं के बीच ही अभी स्‍थापित है। हालांकि मुख्यमंत्री पिनरई विजयन की आवाज माकपा में प्रमुख हो गई है। दूसरे, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश में अमेठी के साथ केरल के वायनार से चुनाव लड़ने के फैसले से भी वहां की फिजा बदल सकती है।

पश्चिम में गुजरात में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा स्वर और तेज सुनाई पड़ सकते हैं। हार्दिक पटेल हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुए हैं और जामनगर से संसदीय उम्मीदवारी की जद्दोजहद में भी लगे रहे हैं। गुजरात हाइकोर्ट ने भाजपा कार्यालय में तोड़फोड़ करने के एक पुराने मुकदमे में सजा पर स्टे देने से मना कर दिया तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। जिग्नेश मेवाणी भले कांग्रेस में नहीं हैं लेकिन महत्वपूर्ण दलित चेहरे के रूप में उभरे हैं और अगली राजनीति में अहम भूमिका निभा सकते हैं। दलित राजनीति में एक प्रमुख किरदार भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण भी हो सकते हैं। हालांकि मायावती अभी उन्हें दरकिनार कर रही हैं, मगर उनमें अहम नेता बनकर उभरने की पूरी संभावना है।

महाराष्ट्र में राकांपा और कांग्रेस के अलावा शिवसेना में उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य भी पार्टी के फैसलों में अहम भूमिका निभाने लगे हैं। आने वाले वर्षों में उनकी भूमिका अहम हो सकती है। भाजपा में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस भी पार्टी के तेज चमकते सितारों में हैं।

इससे बड़ा बदलाव उत्तर में है, जहां राजनीति पूरी तरह वारिसों के हाथ में आ रही है। राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह से अब ज्यादा प्रभावी उनके बेटे जयंत चौधरी हो गए हैं। शायद सपा-बसपा-रालोद गठजोड़ में एक बड़े किरदार जयंत ही हैं। यानी फैसले की बागडोर लगभग उनके हाथ आ चुकी है और अगली लोकसभा में वे प्रमुख चेहरे के तौर पर उभरेंगे। यही नहीं, मायावती की बसपा में उनके भाई आनंद कुमार तो परदे के पीछे हैं लेकिन सपा से गठजोड़ के मौके पर जैसे मायावती के भतीजे आकाश प्रमुखता से दिखे, उससे उनकी भूमिका बढ़ती दिख रही है। हरियाणा में देवीलाल का कुनबा ओमप्रकाश चौटाला के बेटों अजय और अभय के परिवारों की कलह से बिखर रहा है। अभय के बेटे दुष्यंत ने जननायक जनता पार्टी बना ली है और हाल के जींद में उपचुनाव में जो दिखा, अगर उस पर गौर करें तो इंडियन नेशनल लोकदल का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। उसके बदले दुष्यंत की जेजेपी की ताकत बढ़ती लग रही है। पंजाब में भी प्रकाश सिंह बादल से कमान सुखबीर बादल के हाथों पहुंच चुकी है। इसी तरह कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस में फारूक अब्दुल्ला भले सक्रिय हैं, पर पार्टी की धारा उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ही तय कर रहे हैं।  पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी में पिछले आम चुनावों में मुफ्ती मुहम्मद सईद मौजूद थे लेकिन अब पार्टी पूरी तरह उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती की है।

ऐसा ही पीढ़ीगत बदलाव बाकी पार्टियों और वामपंथी पार्टियों में भी दिख सकता है। कन्हैया कुमार को भी इसी कड़ी का हिस्सा मान सकते हैं।

 भाजपा में अब मोदी नाम केवलम

यह तो पिछले आम चुनावों के पहले ही तय होने लगा था कि भाजपा का ढांचा गुजरात मॉडल की तरफ मुड़ जाएगा। इसकी पहल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कमान मोहन भागवत के हाथ में आते ही शुरू हो गई थी। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्‍ण आडवाणी से संघ परिवार उनके जिन्ना वाले बयान के बाद से ही नाराज था। इसलिए 2013 में राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष बने तो उन्होंने पहले नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष और बाद में गोवा सम्मेलन में पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा दिया। दोनों ही मौकों पर आडवाणी ने खुलकर विरोध किया। वे गोवा सम्मेलन में गए ही नहीं। मोदी इसके पहले सोशल मीडिया पर कथित तौर पर अभियान चलाने के लिए कुछ हजार टोली बना चुके थे। मोदी की उम्मीदवारी का आडवाणी के विरोध करने पर उन्हें सोशल मीडिया पर इस टोली ने अपशब्दों तक की भरमार कर दी। इसी से संकेत उभर आए थे कि भाजपा के नए नेतृत्व में पुराने लोगों की कोई जगह नहीं होगी। सरकार बनी तो मुरलीमनोहर जोशी, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे तमाम नेताओं को कोई जगह नहीं मिली। उमा भारती, सुषमा स्वराज जैसी नेताओं को मंत्री पद तो दिया गया, मगर सब कुछ पीएमओ से चल रहा था, इसलिए उनकी खास अहमियत नहीं दिखी। राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी जरूर अहम मंत्रालयों के प्रभारी बने लेकिन वे उस तरह वाजपेयी-आडवाणी के दौर के नेताओं की सूची में नहीं हुआ करते थे।

लेकिन भाजपा के ढांचे में बदलाव के सबसे बड़े सूचक बने अमित शाह। उन्हें जब मोदी अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे, तो यह सवाल उभरा कि एक ही राज्य से प्रधानमंत्री और अध्यक्ष के होने की परंपरा नहीं रही है। लेकिन यह परंपरा टूटी तो भाजपा का चाल, चरित्र, चेहरा सब बदलने लगा। मोदी लहर में पार्टी राज्यों में जीतने लगी तो दूसरी पार्टियों और कांग्रेस से टूटकर आए नेताओं की भी भरमार होती गई। इसके नजारे हरियाणा, महाराष्ट्र, असम, मणिपुर, त्रिपुरा तक में देखे गए। अब भाजपा के लिए विचारधारा से बढ़कर सत्ता में येन-केन-प्राकरेण पहुंचना ही प्रमुख हो गया।

इन चुनावों के बाद आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, कलराज मिश्र, सुमित्रा महाजन जैसे नेता लोकसभा में नहीं दिखेंगे। पार्टी के इस बदलाव का सबसे बड़ा संकेत गांधीनगर से अमित शाह के पर्चा भरने के वक्त राजनाथ ‌सिंह, गडकरी, सुषमा स्वराज के साथ शिवसेना के उद्धव ठाकरे, अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल, लोजपा के रामविलास पासवान की मौजूदगी थी। अब भाजपा में राजनाथ सिंह, गडकरी, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, वसुंधरा राजे जैसे कुछ पुराने नेता तो दिखेंगे, लेकिन असली कमान मोदी और शाह के नजदीकी देवेंद्र फडनवीस, धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, जेपी नड्डा, नरेंद्र तोमर, कैलाश विजयवर्गीय के हाथों में और मजबूती के साथ रह सकती है।

राहुल की कांग्रेस

बतौर कांग्रेस अध्यक्ष दिसंबर 2017 में कमान संभालने के बाद राहुल गांधी को श्रेय न सिर्फ तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्‍थान, छत्तीसगढ़ में पार्टी की कामयाब जीत का मिला, बल्कि कांग्रेस को राजनैतिक-आर्थिक नीतियों में भी नए मुकाम पर पहुंचा दिया। आम चुनावों के पहले पार्टी के घोषणा-पत्र ने एक बार फिर देश में नई सियासत की दिशा तय करने की नींव रख दी है। गौरतलब है कि कांग्रेस को ही यह श्रेय है कि नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीतियां अपना कर देश की सियासत की दिशा मोड़ दी थी। अब कांग्रेस को ही यह श्रेय दिया जा सकता है कि उदारीकरण और निजीकरण की धारा मोड़कर फिर कल्याणकारी और सरकारी हिस्सेदारी बढ़ाने की ओर कदम बढ़ाए जा रहे हैं, बशर्ते चुनावों के नतीजे इस राह को प्रशस्त कर सकें।

कांग्रेस में इसी दौर में प्रियंका गांधी का भी औपचारिक राजनीति में प्रवेश हो चुका है। नेतृत्व में इस बदलाव का बड़ा संकेत यह भी था कि 2 अप्रैल को घोषणा-पत्र जारी करने के कार्यक्रम में एक पत्रकार के सवाल पर सोनिया गांधी ने जवाब देने से मना कर दिया और राहुल को ही जवाब देने दिया।

आर्थिक धारा मुड़ी

लेकिन नेतृत्व की अगली पांत के हाथ कमान आने से भी बड़ा बदलाव ये चुनाव मुद्दों-मसलों और नीतियों के मामले में ला सकते हैं। यह मोदी सरकार के एजेंडे में ही नहीं, कांग्रेस के घोषणा-पत्र और क्षेत्रीय दलों के फोकस से भी जाहिर हो रहा है। अब गरीब, किसान, छोटे उद्योग-धंधे पर जोर देना लाजिमी हो गया है। सिर्फ विकास की बातें अब कारगर नहीं रह जाएंगी। जो भी जीते अब किसानों, रोजगार और बढ़ती गैर-बराबरी के मुद्दों की अनदेखी करना संभव नहीं हो पाएगा। इसी को दर्शाने के लिए इसके साथ कांग्रेस के घोषणा-पत्र और भाजपा के संभावित वादों की फे‌हरिस्त दी गई है।

भाजपा का इन मुद्दों पर जोर

भारतीय जनता पार्टी ने भले ही अपना घोषणा-पत्र अभी तक जारी नहीं किया है लेकिन कैंपेन में पार्टी नेताओं ने अपना फोकस तय कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हो या फिर दूसरे वरिष्ठ नेता, सभी का जोर राष्ट्रवाद के मुद्दे और बजट में किए गए ऐलान पर खास तौर से है।

राष्ट्रवाद

पार्टी ने बालाकोट में हुई एयरस्ट्राइक के बाद अपना फोकस प्रमुख रूप से राष्ट्रवाद के मुद्दे पर कर दिया है। इसकी आड़ में चुनावी कैंपेन से लेकर इंटरव्यू और मीडिया के बीच पार्टी के नेता राष्ट्रीय सुरक्षा को अहम मुद्दा बना रहे हैं। वे यह लगातार दावा कर रहे हैं कि मोदी ही देश की सीमाओं को सुरक्षित रख सकते हैं और आंतकवाद के खिलाफ कड़ा कदम उठा सकते हैं।

किसान के खाते में 6,000 रुपये

अंतरिम बजट में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का ऐलान किया गया था। इसमें पांच एकड़ तक जोत रखने वाले सभी किसानों को तीन किस्तों में 6,000 रुपये सालाना देने की घोषणा की गई है। चुनावी रैलियों में पार्टी के सभी नेता इस ऐलान को भुनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना तक बढ़ोतरी के दावों को भी हर उम्मीदवार मतदाताओं तक पहुंचा रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और करोड़ों जनधन खाते खोलने को भी बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश किया जा रहा है।

पांच लाख तक इनकम टैक्स छूट

अंतरिम बजट में एक बड़ा दांव सरकार ने पांच लाख रुपये तक की आय को टैक्स से मुक्त करके भी चला है। इसके तहत अगर किसी व्यक्ति की आय पांच लाख रुपये से ज्यादा नहीं होती है तो उसे  इनकम टैक्स नहीं देना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सभी प्रमुख नेता इस बात को जनता तक पहुंचा रहे हैं, और यह दावा कर रहे हैं कि इनकम टैक्स में इतनी छूट कभी नहीं दी गई है। साथ ही प्रधानमंत्री श्रमयोगी मानधन स्कीम के तहत 3,000 रुपये की पेंशन योजना से भी मतदाताओं को लुभाने की कोशिश है। इसी तरह जीएसटी लागू करने को भी बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है।

सबको घर, बिजली और आयुष्मान

चुनावी अभियान में इसके अलावा पार्टी के उम्मीदवार प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत दिए गए घर और हर गांव में बिजली पहुंचाने को भी बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं। साथ ही उज्‍ज्वला योजना और आयुष्मान योजना भी पार्टी के नेताओं के लिए मतदाताओं के बीच अपने पांच साल के काम गिनाने में काम आ रही है। हालांकि घोषणा पत्र के जरिए पार्टी निश्चित तौर पर एक बड़े मतदाता वर्ग को लुभाने की कोशिश करेगी।

कालेधन पर प्रहार

2019 में भाजपा प्रचार में कालेधन पर लिए गए एक्शन को मुद्दा बना रही है। नेता चुनावों में नोटबंदी, बेनामी संपत्ति कानून और कालेधन पर बनी स्पेशल टॉस्क फोर्स को कामयाबी बता रहे हैं।

कांग्रेस के वादे

नीतियों का रुख मोड़ने का एजेंडा

कांग्रेस ने 2019 के लिए अपना चुनाव घोषणा-पत्र “हम निभाएंगे” जारी कर दिया है। घोषणा-पत्र में पांच अहम बातों पर फोकस किया गया है और मूल मंत्र है समृद्धि और कल्याण।

न्यूनतम आय योजना (न्याय)

कांग्रेस न्यूनतम आय योजना (न्याय) लाएगी, जिसके तहत हर साल 72 हजार रुपये देश के 20 फीसदी सबसे गरीब परिवारों के महिला सदस्य के खाते में ट्रांसफर किया जाएगा।

नौकरी और रोजगार

- कांग्रेस के लिए देश के युवाओं को नौकरी (सरकारी और निजी दोनों नौकरी) पहली प्राथमिकता होगी। सार्वजनिक क्षेत्र में 34 लाख नौकरियां देने का वादा

- मार्च 2020 से पहले सभी चार लाख केंद्र सरकार की रिक्तियों को भरने का वादा

- राज्य सरकारों से राज्य के 20 लाख खाली पदों को भरने के लिए बातचीत करना

- हर ग्राम पंचायत और शहरी स्थानीय निकाय में लगभग 10 लाख नए सेवा मित्र पदों का सृजन

- निजी क्षेत्र में भी नौकरियां बढ़ाने का तरीका

- नौकरी सृजन और अधिक महिलाओं को रोजगार देकर कारोबार को बढ़ावा

- तीन साल के लिए देश के युवाओं को कारोबार खोलने के लिए इजाजत की जरूरत नहीं

अलग से किसान बजट

किसानों को कर्जमाफी से कर्ज मुक्ति के रास्ते पर लाने का वादा। यह लाभकारी मूल्य, कम लागत और संस्थागत ऋण तक पहुंच आश्वस्त करके किया जाएगा। हर साल एक अलग “किसान बजट।” कृषि विकास और योजना पर स्थायी राष्ट्रीय आयोग की स्थापना और किसानों के लिए कर्ज अदा न कर पाने के मामलों को फौजदारी से दीवानी में बदलने का वादा।

स्वास्थ्य पर जीडीपी का तीन फीसदी खर्च

राइट टू हेल्थकेयर एक्ट का वादा। सभी को सरकारी अस्पतालों और सूचीबद्ध निजी अस्पतालों में मुफ्त डायग्नोस्टिक्स, आउट-पेशेंट केयर, मुफ्त दवाओं और अस्पताल में भर्ती की गारंटी। 2023-24 तक जीडीपी का तीन प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा पर खर्च।

जीएसटी के लिए एक टैक्स दर

एक टैक्स दर, निर्यात के लिए शून्य रेटिंग और आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के लिए छूट के साथ जीएसटी को सरल बनाने का वादा। पंचायतों और नगर पालिकाओं को भी जीएसटी राजस्व का एक हिस्सा देने का वादा।

रक्षा खर्च बढ़ाएंगे

एनडीए सरकार में रक्षा खर्च में कमी करने का ट्रेंड बदलेगा और सैन्य बलों की जरूरतों को पूरा करने के लिए इसे बढ़ाया जाएगा। सशस्‍त्र बलों के सभी आधुनिकीकरण कार्यक्रमों को पारदर्शी तरीके से आगे बढ़ाया जाएगा। अर्धसैनिक बलों और परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार का वादा।

शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसदी खर्च

सरकारी स्कूलों में कक्षा एक से बारहवीं तक की शिक्षा अनिवार्य और मुफ्त करने का वादा। स्कूलों में पर्याप्त आधारभूत संरचना और योग्य शिक्षक। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 2023-24 तक जीडीपी का छह फीसदी शिक्षा खर्च।

महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण

लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों के आरक्षण वाले महिला आरक्षण विधेयक को 17वीं लोकसभा के पहले सत्र में पारित करने का वादा। महिलाओं के लिए केंद्र सरकार में सभी पदों/रिक्तियों में भी 33 प्रतिशत आरक्षण।

आदिवासियों को वन अधिकार

वन अधिकार अधिनियम- 2006 को लागू करेंगे और इसके तहत अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले अधिकारों की रक्षा करेंगे। कोई भी वनवासी  अन्यायपूर्ण ढंग से बेदखल नहीं किया जाएगा। नॉन-टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस (एनटीएफपी) के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना। आदिवासियों की आजीविका और आय में सुधार करने के लिए एनटीएफपी के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य।

घर का अधिकार

अगर किसी के पास घर बनाने के लिए अपनी जमीन नहीं है, तो उसके लिए हर ग्रामीण को घर के लिए जमीन मुहैया कराने के लिए वासभूमि अधिकार अधिनियम लाने का वादा।

हेट क्राइम्स का खात्मा

एनडीए सरकार के पिछले पांच साल में समाज के कमजोर वर्गों के खिलाफ हेट क्राइम्स कई गुना बढ़ गए हैं। यह भावना खत्म करने, भीड़ की हिंसा और अन्य हिंसा को रोकने और एससी, एसटी, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार और घृणा अपराधों को रोकने का वादा। दंगों, भीड़ हिंसा और घृणा अपराधों के मामले में लापरवाही साबित होने पर पुलिस और जिला प्रशासन होगा जिम्मेदार।

अफस्पा में संशोधन और राजद्रोह कानून का खात्मा

संविधान में निहित मूल्यों को बनाए रखने और असहमति की आजादी सहित उनकी स्वतंत्रता की रक्षा का वादा। आधार अधिनियम को मूल उद्देश्यों तक सीमित करके निजता पर एक कानून लाने का वादा। हर नागरिक विशेषकर छात्रों, पत्रकारों, शिक्षाविदों, कलाकारों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों के अधिकारों की रक्षा। उन सभी कानूनों की समीक्षा होगी और उन्हें निरस्त करेगी जो पुराने, अन्यायपूर्ण हैं या अनुचित रूप से लोगों की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं। भारतीय आपराधिक संहिता की धारा 499 को दीवानी अपराध बनाया जाएगा। आइपीसी की धारा 124 ए (राजद्रोह) का दुरुपयोग हुआ, उसे खत्म किया जाएगा। सशस्‍त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा), 1958 में से यौन हिंसा, गायब कर देना और यातना के मामलों में प्रतिरक्षा जैसे मुद्दों को हटाया जाएगा, ताकि सुरक्षा बलों और नागरिकों के बीच संतुलन बना रहे।

संस्थानों की गरिमा की बहाली

पिछले पांच वर्षों में आरबीआइ, चुनाव आयोग, सूचना आयोग, सीबीआइ जैसे संस्थानों को नुकसान पहुंचाया गया। इन्हें संसद के प्रति जवाबदेह बनाते हुए उनकी गरिमा, अधिकार और स्वायत्तता को बहाल किया जाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए एनडीए सरकार द्वारा शुरू किए गए अपारदर्शी चुनावी बॉन्ड को खत्म किया जाएगा और राष्ट्रीय चुनाव कोष बनाया जाएगा। इसके जरिए मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को चुनाव के समय फंड आवंटित किया जाएगा।

शहर प्रबंधन और प्रशासन

शहरीकरण पर एक व्यापक नीति का वादा, जिसमें हमारे शहरों और शहरों से संबंधित मुद्दों का हल निकाला जाएगा। इन मुद्दों में शहरी प्रशासन, आजीविका, आवास, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, शहरी परिवहन और आपदा प्रबंधन शामिल है। शहरी गरीबों के लिए, आवास के अधिकार और बेदखली से सुरक्षा और एक स्लम अपग्रेडेशन का वादा। सीधे निर्वाचित महापौरों के जरिए कस्बों और शहरों के लिए प्रशासन का नया मॉडल।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन

ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण संरक्षण के खिलाफ कार्य एजेंडा। वायु प्रदूषण राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपदा है। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम को मजबूत करने का वादा। वन, वन्यजीव, जल निकाय, नदियां, स्वच्छ वायु और तटीय क्षेत्र बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन हैं। सके लिए एक स्वतंत्र, सशक्त और पारदर्शी पर्यावरण संरक्षण प्राधिकरण का गठन।

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