Advertisement

पांच साल पर सवाल जरूरी

चुनाव में राष्ट्रभक्ति जैसे भावनात्मक मुद्दे नहीं, पांच साल के कार्यकाल का लेखा-जोखा सामने रखना चाहिए। उसी पर वोट मांगना चाहिए और लोगों को उसी आधार पर वोट देना चाहिए। वैसे भी राष्ट्रभक्ति पर किसी का कब्जा नहीं होता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पिछले कुछ दिन देश और देशवासियों के लिए बेहद घटनापूर्ण रहे हैं। पुलवामा में आतंकी हिंसा के बाद देश गम और गुस्से से भर उठा। फिर बतौर एहतियाती कार्रवाई हमारी वायु सेना ने पड़ोसी देश पाकिस्तान के अंदर आतंकी अड्डों पर बमबारी की। वायु सेना ने 1971 के बाद पहली बार नियंत्रण रेखा पार किया और पाकिस्तान के इस भ्रम को तोड़ दिया कि उसके परमाणु हथियारों की आशंका में भारत नियंत्रण रेखा पार नहीं करेगा। यह कदम उड़ी हमले के बाद 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक के समय भी उठाया गया था। यानी एकजुट और मजबूत भारत ने साफ कर दिया कि सीमा पार की शह से किसी तरह की आतंकी घटना बर्दाश्त नहीं होगी।

दोनों परमाणु-शक्ति संपन्न देश युद्ध के मुहाने पर आ गए, तो कूटनीतिक प्रयासों के जरिए विश्व की बड़ी ताकतों ने मामले को थोड़ा नरम किया। लेकिन पाकिस्तान की बातचीत की पेशकश के बावजूद भारत का सख्त रुख कायम है। बात भी सही है। संसद पर हमले, मुंबई हमले, पठानकोट हमले, उड़ी हमले और अब पुलवामा की आतंकी घटना ऐसी फेहरिस्त है जो हर बार पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए भारत को मजबूर करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कड़े फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं। सो, पुलवामा घटना के बाद सरकार पर भारी दबाव था कि वह कदम उठाए। कदम उठाया भी गया और उसका संकेत वे कई सभाओं, समारोहों और राजनैतिक मंचों पर दे भी चुके थे। उनको देश की जनता और राजनैतिक दलों का समर्थन इस कदम के लिए मिला। जाहिर है, राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के मामले में पूरा देश एक है।

हालांकि यह ऐसा समय भी है जब अगले पांच साल के लिए केंद्र में नई सरकार चुनी जानी है। कोई भी मतदाता सरकार के कामकाज पर ही अपना फैसला देना चाहता है। राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की अखंडता तो सर्वोपरि है, लेकिन देश की जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही भी उतनी ही अहम है। देश की जनता की अपेक्षा सरकार से यह होती है कि वह उसके जीवन को बेहतर करे। नीतियों से लेकर सामाजिक, आर्थिक और ढांचागत सुविधाओं के मोर्चे पर सरकार को ही काम करना है। ऐसे में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को अपने पांच साल के कामकाज का लेखा-जोखा जनता के सामने रखकर ही अगले कार्यकाल के लिए वोट मांगना चाहिए। विपक्ष को भी देश की जनता के बेहतर भविष्य के लिए अपना एजेंडा रखना चाहिए।

लेकिन इस समय देश का माहौल सामान्य और सहज नहीं है। किसानों की बदतर हालत, रोजगार सृजन के मोर्चे पर भारी नाकामी, मानव संसाधन विकास सूचकांक के मोर्चे पर फिसलन और आधी-अधूरी जानकारी के सहारे लोगों को भ्रमित करने पर ज्यादा जोर है। मसलन, विभिन्न क्षेत्रों के लिए आंकड़े जारी करने की प्रक्रिया को ही पटरी से उतार दिया गया है, ताकि लोग सवाल न कर सकें। सूचना का अधिकार कानून के तहत जानकारियां मिलने की प्रक्रिया बेहद सुस्त है। सरकारी जानकारी तक मीडिया की पहुंच भी सीमित हो गई है। ऐसी धारणा पैदा की जा रही है कि सवाल उठाना ही गलत है। तीस साल में पहली बार लोकसभा में किसी एक पार्टी को बहुमत हासिल करने के रिकार्ड के साथ सत्तारूढ़ हुए प्रधानमंत्री मोदी से बड़े सुधारों की अपेक्षा थी लेकिन वे तमाम आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर मामूली बदलाव तक ही सीमित रहे। हालांकि इनमें जीएसटी, आइबीसी और नोटबंदी जैसे कुछ बड़े फैसले भी हैं। मगर नोटबंदी को अर्थव्यवस्था के लिए घातक माना जाता है जबकि जीएसटी की जटिलता ने समस्याएं पैदा की हैं।

लेकिन ऐसे में सवालों का सामना करने की जगह राजनीति की धारा ही मोड़ने पर जोर है। राष्ट्रवाद का नया उन्माद पैदा किया जा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा का तर्क है कि नरेंद्र मोदी जैसा मजबूत नेता ही राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में सही नेतृत्व दे सकता है। कहा जा रहा है कि यूपीए सरकार के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो इतने कमजोर थे कि मुंबई आतंकी हमले के बाद वे पाकिस्तान को जवाब नहीं दे पाए। हालांकि उस समय भी सरकार का रुख काफी सख्त हो गया था लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हस्तक्षेप के बाद मामला ठंडा हुआ। यहां यह बताना भी जरूरी है कि ऐसा ही एक वाकया 2002 का है जब भारत पाकिस्तान पर हमला करने को तैयार था। तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। इस बारे में आउटलुक के इसी अंक में पूर्व सेना प्रमुख जनरल जे.जे. सिंह ने लिखा है कि अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद सेना को कार्रवाई से रोक दिया गया था। इसलिए परिस्थितियां कई फैसले तय करती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई नेतृत्व कमजोर नहीं होता, क्योंकि उसके साथ पूरा राष्ट्र होता है और हमारी सेना हमेशा दुश्मन को सबक सिखाने में सक्षम रही है।

इसलिए जब चुनाव का वक्त है तो राष्ट्रीय सुरक्षा पर फैसले को भुनाने की जगह अपने कार्यकाल के कामकाज पर वोट मांगना चाहिए और मतदाताओं को भी इसी आधार पर मत देना चाहिए। देश के किसी नागरिक की राष्ट्रभक्ति पर किसी भी पार्टी या विचारधारा को संदेह करने का हक नहीं है। उसे इसका प्रमाण किसी दूसरे को देने की जरूरत नहीं है।  

Advertisement
Advertisement
Advertisement