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केसीआर ही किंग

कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन बेअसर सत्ता में टीआरएस की वापसी
जीत लिया मैदानः नतीजों के बाद विक्ट्री साइन दिखाते केसीआर

यह ऐसा चुनाव था जिसमें एक तरफ तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टी थी तो दूसरी ओर ऐसा गठबंधन था, जिसके एक साझेदार की अलग राज्य के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका थी तो दूसरा आंध्र प्रदेश के विभाजन के विरोध में था। आखिर में बाजी सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के हाथ ही लगी। 47 फीसदी वोटों के साथ 119 सदस्यीय विधानसभा की 88 सीटें उसकी झोली में गिरीं। इस प्रचंड बहुमत में क्षेत्रीय गौरव के साथ-साथ समाज के विभिन्न वर्गों के लिए टीआरएस सरकार द्वारा शुरू की गई कल्याणकारी योजनाओं का अहम योगदान रहा। इन नतीजों ने राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के टीआरएस के इरादों को भी नई धार देने का काम किया है।

वैसे, तेलंगाना में चुनाव अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा चुनावों के साथ होने थे। लेकिन, मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों के घालमेल से बचने के लिए नौ महीने पहले ही चुनाव का दांव चल दिया। शुरुआत में इसे उनका मास्टर स्ट्रोक माना गया, लेकिन जब दो पुराने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु की तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) ने हाथ मिला लिया तो आसान सी दिखने वाली लड़ाई दिलचस्प हो गई। कांग्रेस-तेदेपा के ‘महाकुटमी’ (महागठबंधन) में सीपीआइ और कभी केसीआर के साथी रहे प्रो. कोदांदरम की पार्टी तेलंगाना जन समिति भी थी। लेकिन, गठबंधन को केवल 21 सीटें ही मिलीं। भाजपा को एक और एआइएमआइएम को सात सीटें मिली हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में टीआरएस 63 सीटें ही जीत पाई थी। हालांकि बाद में कांग्रेस और तेदेपा में फूट के कारण यह आंकड़ा 90 हो गया था।

इस बार केसीआर का चुनाव अभियान अपनी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं पर केंद्रित था। चाहे गरीब परिवार की लड़कियों की शादी के लिए शुरू की गई ‘कल्याण लक्ष्मी’ योजना हो या नवजात शिशुओं की देखभाल की योजना या फिर ‘रायतू बंधु’ जिसके तहत किसानों को प्रति एकड़ आठ हजार रुपये की सालाना मदद सरकार की ओर से दी जाती है। चुनाव से पहले लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वेक्षण से यह बात उभरकर सामने आई थी कि टीआरएस सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की मतदाताओं के बीच काफी स्वीकार्यता है। केसीआर सरकार के कामकाज पर नाराजगी जताने वालों से दोगुनी संख्या प्रशंसकों की थी। यही कारण है कि चुनाव में उन्हें सभी वर्गों का समर्थन मिला।

माना जा रहा था कि प्रत्येक दलित परिवार को तीन एकड़ जमीन देने का वादा पूरा नहीं करने के कारण यह वर्ग टीआरएस से खफा है। कुछ हद तक नाराजगी कायम रहने के वाबजूद 53 फीसदी एससी मतदाताओं ने टीआरएस का साथ दिया। 43 फीसदी एसटी वोट भी मिले। परंपरागत तौर पर तेदेपा के समर्थक माने जाने वाले ओबीसी वर्ग में भी टीआरएस सेंधमारी में सफल रही। ऊंची जातियों के करीब आधे, कांग्रेस के परंपरागत समर्थक रेड्डी समुदाय के 39 फीसदी वोट भी पार्टी को मिले। कम्मा, कापू और कृषि पर निर्भर रहने वाले अन्य लोगों का भी समर्थन उसे मिला है। टीआरएस से ऊंची जातियों के जुड़ने का एक बड़ा कारण राज्य में जिलों की संख्या 10 से बढ़ाकर 31 करने का फैसला था। नए जिले बनने के कारण रिएलिटी सेक्टर में तेजी आई जिसका बड़ा फायदा ऊंची जातियों को मिला। एक तिहाई मुस्लिम वोट भी मिले। एआइएमआइएम से मधुर संबंध बनाए रखने, मुसलमानों को शिक्षा और रोजगार में बारह फीसदी आरक्षण देने के वादे और मुस्लिम बच्चों के लिए आवासीय स्कूल की वजह से इस वर्ग में टीआरएस की स्वीकार्यता बढ़ी है। एआइएमआइएम ने हैदराबाद की सीटों को छोड़कर अन्य जगहों पर टीआरएस को समर्थन दिया था।

दूसरी ओर, विपक्ष चुनाव से पहले सुस्त पड़ा था। केसीआर के कामकाज के स्टाइल, सरकारी काम में उनके परिवार की दखल और भ्रष्टाचार के आरोपों को भुनाने में कांग्रेस कामयाब नहीं हो पाई। लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि तेलंगाना के करीब 56 फीसदी लोग चंद्रबाबू नायडू को पसंद नहीं करते। कांग्रेस के परंपरागत समर्थकों में से करीब आधे को भी वे नहीं भाते। कांग्रेस के परपंरागत वोटरों में से एक चौथाई और तेदेपा के एक तिहाई परंपरागत वोटर इनके गठबंधन से खुश नहीं थे। नतीजतन, 15 फीसदी परंपरागत वोटर कांग्रेस को छोड़ टीआरएस के पाले में चले गए। ऐसा ही तेदेपा के परंपरागत वोटरों ने भी किया। इस गठबंधन ने क्षेत्रीय गौरव का मसला भुनाने का मौका भी केसीआर को दिया। गठबंधन ने उम्मीदवार तय करने में भी काफी वक्त लगाया और उसका प्रचार अभियान भी टीआरएस के मुकाबले फीका था। इसलिए, ये नतीजे केवल टीआरएस की जीत ही नहीं, बल्कि विपक्ष की रणनीतिक हार भी है।

(साथ में सी. रमैया और जी. श्रीनिवास राव। दोनों हैदराबाद यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं)

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