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स्त्रियों का कौन-सा देश

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र की प्रोफेसर गरिमा के देह ही देश में सोवियत ब्लॉक के विघटन के पीछे पूंजीवाद के प्रति बढ़ते आकर्षण के विश्लेषण से ज्यादा उन औरतों की कहानी है
यह किताब क्रोएशिया प्रवास के दौरान वहां के अनुभवों पर लिखी डायरी है

डायरियां समय का दस्तावेज होती हैं। यह किताब क्रोएशिया प्रवास के दौरान वहां के अनुभवों पर लिखी डायरी है, जिसे उन्होंने लिख कर बस यूं ही रख लिया था। बाद में उन्हें लगा कि “देश के नाम पर देह बना दी गई औरतों” का कहीं जिक्र नहीं है। इन औरतों की कहानी जानना सभी के लिए जरूरी है, क्योंकि ऐसे अनुभव खबरों की सुर्खियां तो हैं लेकिन उनकी चर्चाएं गुम हो जाती हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र की प्रोफेसर गरिमा के देह ही देश में सोवियत ब्लॉक के विघटन के पीछे पूंजीवाद के प्रति बढ़ते आकर्षण के विश्लेषण से ज्यादा उन औरतों की कहानी है, जिन्होंने यातना झेली। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही यूगोस्लाविया के विखंडन की भूमिका भी तैयार हुई और जब क्रोएशिया, बोस्निया, हर्जेगोविना की आम जनता के मन में सर्बिया के राष्‍ट्रपति स्लोवोदान मिलोसेविच के प्रति अपार घृणा जागी, तब इसका नतीजा युद्ध हुआ और युद्ध की सबसे ज्यादा मार उन स्त्रियों ने झेली, जिनका किसी देश के टूटने, पूंजीवाद, साम्यवाद से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं था। बस वे वहां की नागरिक थीं, जो शांति से घर और बच्चों को संभाल रही थीं।

क्रोएशिया प्रवास-डायरी में युद्ध की विभीषिका के साथ उन घावों का अहसास है जिसे इतिहास में या तो स्थान नहीं मिला या इतना कम है कि वह पीड़ा उभर कर आ ही नहीं पाई। यूगोस्लाविया के विखंडन के बाद जो यातना महिलाओं ने झेली, चाहे वे बूढ़ी ही क्यों न हों, उसे पढ़ते वक्त दिमाग यंत्रणा से गुजरता है। बच्चियों के साथ इस तरह निर्मम यौन व्यवहार किया गया कि कुछ बच्चियां जीवन भर इस स्थिति से नहीं उबर पाईं। यह पुस्तक उन लड़कियों, महिलाओं से बातचीत पर आधारित है, जिन्होंने इसे भुगता। पढ़ते हुए लगता है कि दुनिया अभी भी बर्बर युग में है और औरतें उनकी सबसे आसान शिकार।

एक पीड़ित होसेसिस जब 1992 में अपनी दुर्दशा बयान करती है तो लगता है, इतनी यातना के बाद शायद एक स्‍त्री का ही माद्दा है कि वह यह सब झेल कर भी नई शुरुआत कर लेती है। लेखिका होसेसिस की दास्तान सुन कर लिखती हैं, ‘कितना आसान है सुनना और कितना कठिन रहा होगा झेलना।’ पुस्तक का हर पन्ना एक दर्दनाक दास्तान है। यह ऐसी यात्रा है जहां देश की संस्कृति से आगे वहां की यातनाएं, हत्याएं और क्रूरता चलती है।

जैसे-जैसे इस पुस्तक को पढ़ते चलते हैं, लगता है देह ही देश के सिवा इस पुस्तक का कोई दूसरा नाम हो ही नहीं सकता था। यह किताब झकझोरती है और लगता है जैसे आज भी कुछ नहीं बदला है। दुनिया में कहीं न कहीं दो देश वर्चस्व के लिए लड़ रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा औरतें ही भुगत रही हैं। तब से लेकर अब तक कुछ नहीं बदला है। इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली यजीदी मुस्लिम लड़की नादिया मुराद की कहानी भी बिलकुल ऐसी ही है। युद्ध के बीच वह भी लड़की से ‘सेक्स स्लेव’ के रूप में बदल दी गई और उसने भी यातना के लंबे वर्ष गुजारे।

यह भी यात्रा वृत्तांत ही है लेकिन इस यात्रा में यातना बहुत है। इस डायरी में दर्ज घटनाएं इकट्ठी करने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की। पीड़िताओं से मिलना और फिर उनके जख्म हरे कर उन्हें लिखना गरिमा के लिए भी आसान नहीं रहा। कोई भी उन स्मृतियों को सहेजना नहीं चाहता जिसने उसके जीवन में सब कुछ छीन लिया हो। यही वजह है कि यह डायरी तारीख-दर-तारीख के बजाय घटना-दर-घटना चलती है। सर्ब-क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष के दौरान भीषण रक्तपात हुआ था और लगभग बीस लाख लोग शरणार्थी हो गए थे। क्रोएशिया और बोस्निया के खिलाफ सर्बिया के पूरे युद्ध का एक ही उद्देश्य था, यहां के नागरिकों को इतना प्रताड़ित किया जाए कि वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएं। और सबके लिए सबसे मुफीद था, औरतों पर अत्याचार।

औरतें हमेशा से ही कॉमोडिटी के तौर पर इस्तेमाल की जाती रही हैं। चाहे वह दुनिया का कोई भी कोना हो। युद्ध सब कुछ बदल देता है, रिश्ते भी। युद्ध एक उद्योग है जो मनुष्य से सबसे पहले मनुष्यता ही छीनता है। लेकिन जब स्त्रियां इसे याद करती हैं तो उसकी व्याख्या ही बदल जाती है। उनकी स्मृतियों में इतिहास का उपेक्षित पक्ष दिखाई देता है। देह ही देश पढ़ते हुए लगता है, क्या हम इन कहानियों से कुछ सीखेंगे। क्या इन किस्सों का सच किसी राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्र के नाम पर गुंडागर्दी और मनमानी करने वालों के दिलों को चीर पाएगा? या ये सवाल भी एक किताब में सिमट कर रह जाएंगे।

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