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सबसे बड़े लड़ैया की महा जंग

पिछले तीन विधानसभा चुनावों में अलग-अलग खेमों में बंटी कांग्रेस के इस बार कमलनाथ के नेतृत्व में एकजुट होने से भाजपा की चुनौती बढ़ी
जोश और जज्बाः जबलपुर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ कमलनाथ, सिंधिया व अन्य

मध्य प्रदेश की चुनावी लड़ाई दशकों से भाजपा और कांग्रेस के बीच सिमटी हुई है। इस बार छोटे दलों की सक्रियता ने चुनाव को बेहद रोचक बना दिया है। इतना ही नहीं, पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद से कांग्रेस में भी नया जोश आया है और पहली बार पार्टी के बड़े नेता एकजुट दिख रहे हैं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में अलग-अलग खेमों में बंटी कांग्रेस की एकजुटता के चलते इस बार भाजपा को तगड़ी चुनौती मिल रही है। साथ ही 15 साल से सत्ता में बने रहने के कारण एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर भी है।

मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों के लिए 28 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। कांग्रेस मीडिया विभाग के उपाध्यक्ष भूपेंद्र गुप्ता का दावा है कि उनकी पार्टी दो-तिहाई सीटें जीतने में कामयाब रहेगी। उन्होंने आउटलुक को बताया, “वादाखिलाफी, धोखेबाजी और खराब प्रशासन भाजपा को भारी पड़ेगी। जनता चमत्कारिक परिवर्तन करेगी।” कमलनाथ के अलावा चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया भी रैली और दूसरे माध्यम से लोगों से जुड़ने की कोशिश में लगे हुए हैं। युवाओं में सिंधिया का क्रेज ज्यादा दिखाई दे रहा हैं। लगतार दस साल राज्य के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पुत्र और विपक्ष के नेता अजय सिंह समेत सभी कमलनाथ की छतरी में दिखाई दे रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का प्रभाव पूरे प्रदेश में है। वहीं, सिंधिया का ग्वालियर-चंबल, कमलनाथ की महाकौशल और अजय सिंह की विंध्य क्षेत्र में मजबूत पकड़ है।

करीब साढ़े 13 साल से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने शानदार जीत हासिल की थी। लेकिन, इस बार राह आसान नहीं दिखती। हालांकि रणनीतिक और सांगठनिक दृष्टिकोण से भाजपा आज भी मजबूत मानी जाती है। लेकिन, किसानों और युवाओं की नाराजगी, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध, राज्य की खराब माली हालत, घोषणाओं का अंबार, भ्रष्टाचार और बेलगाम नौकरशाही को मुद्दा बनाकर कांग्रेस भाजपा को घेरने में जुटी है।

भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता भी अपनी उपेक्षा और चुनिंदा लोगों को ही फायदा मिलने से खफा बताए जा रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह का महाकौशल को छोड़कर दूसरे इलाकों में कोई प्रभाव नहीं दिखता। भाजपा के भीतर कुछ नेताओं के सुर भी अलग बताए जाते हैं। आरक्षण के मुद्दे पर राज्य में अगड़े जिस तरह हाल में सड़कों पर उतरे हैं उसने भी भाजपा की चिंता बढ़ाने का काम किया है। यह स्थिति खासकर, विंध्य और ग्वालियर संभाग में है। इस वर्ग की नाराजगी का भाजपा को बड़ा नुकसान हो सकता है, क्योंकि फिलहाल ज्यादातर सामान्य सीटें भाजपा के पास ही हैं। इसे देखते हुए प्रभात झा और अनूप मिश्रा जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे कर भाजपा सामान्य वर्ग को साधने की कोशिश कर रही है। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता राहुल कोठारी का कहना है कि उनकी पार्टी इस बार दो सौ से अधिक सीटें जीतेगी। उन्होंने बताया कि शिवराज सिंह की सरकार के बेहतरीन कामों के कारण भाजपा के पक्ष में माहौल है।

230 में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इनमें 32 सीटें भाजपा और 15 कांग्रेस के पास हैं। राज्य की साढ़े सात करोड़ की आबादी में करीब 20 फीसदी अनुसूचित जनजातियां हैं और प्रदेश के 19 जिलों में उनका असर है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 सीटों के अलावा 30 सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासी वोटर निर्णायक साबित होते हैं। राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी करीब 18 फीसदी है। अनुसूचित जाति के लिए 35 सीटें रिजर्व हैं। इसमें से दो कांग्रेस, तीन बसपा और 30 भाजपा के पास हैं। 148 अनारक्षित सीटों में से 102 अभी भाजपा के पास हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में 44 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच पांच हजार से भी कम वोटों से हार-जीत हुई थी। 14 सीटें तो ऐसी हैं, जहां मार्जिन तीन हजार से भी कम रहा था।  

पिछली बार भाजपा की सीटें तो बढ़ी थीं, लेकिन वोट शेयर नहीं बढ़ा था। माना जाता है कि 70 हजार के करीब नए वोटर भी भाजपा के साथ थे। दूसरी ओर, वोट शेयर बढ़ने के बावजूद कांग्रेस ज्यादा सीटें हासिल नहीं कर पाई थी।

मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन नहीं होना भाजपा के लिए बड़ी राहत मानी जा रही है। दोनों दल साथ आ जाते तो उसकी मुश्किलें और बढ़ जातीं। 2013 के चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 45 फीसदी और कांग्रेस का 37 फीसदी के करीब था। बसपा और समाजवादी पार्टी से कांग्रेस का तालमेल होने पर वोटों का यह फासला समाप्त हो जाता। कांग्रेस नेता बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे दलों से चुनाव पूर्व तालमेल की कोशिश में लगे थे, पर बात बनी नहीं। कांग्रेस समझौते में बसपा को दस से ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थी। बसपा ने कई सीटों के लिए प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। 2013 के चुनाव में बसपा सात फीसदी के करीब वोट हासिल कर तीसरे नंबर पर रही थी। अभी उसके चार विधायक हैं। विंध्य और चंबल इलाके की कई सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे। इनके अलावा आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, सपाक्स पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, जय आदिवासी शक्ति संगठन (जयस) जैसे दल भी मैदान में हैं। इनके कारण कई सीटों पर हार-जीत का फैसला काफी कम वोटों से हो सकता है।

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