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ताजा धुनों की बरसात

नई सदी के संगीतकारों ने 18 साल में जो विविधता दिखाई है, वह बीती सदी के 80 साल में नहीं दिखे
जय होः संगीतकार ए.आर. रहमान के नए प्रयोगों से बदली सुरों की दुनिया

भारतीय सिनेमा को जब से आवाज मिली, तब से उसमें संगीत की गूंज है। पहली बोलती फिल्म आलम आरा आई, तो उस फिल्म में सात गाने थे। लगभग अस्सी साल के इस फिल्मी सफर में इसके कई रूप और रंग देखे गए। लेकिन नई सदी के 18 साल में ही फिल्‍मी संगीत अनेक परिवर्तनों और नए अंदाज से रू-ब-रू हुआ है। कालखंड की दृष्टि से हम इसे तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। पहला कालखंड 2000-2005 का है। वर्ष 2000 ऐसा था, जब हिंदी फिल्मी संगीत ने बहुत से बदलाव देखे। यह वह दौर था जब एक तरफ इंडिपेंडेंट म्यूजिक एल्बम में हम नए तरह का प्रयोग देख रहे थे, तो दूसरी तरफ मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में भी नए प्रयोग करने वाले संगीतकारों और गीतकारों की एक पूरी जमात उतर आई थी। यह वह वक्त था, जब एम टीवी, बी4यू, इटीसी जैसे म्यूजिक चैनल मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरू जैसे शहरों से आगे बढ़ते हुए भोपाल, रायपुर, कानपुर और इंदौर जैसे छोटे शहरों में अपना दर्शक वर्ग तैयार कर रहे थे। रेडियो सिटी, रेडियो मिर्ची जैसे प्राइवेट रेडियो एफएम चैनलों के आ जाने के बाद लोगों तक संगीत को पहुंचाने के माध्यम बढ़ गए। जब म्यूजिक की सप्लाई करने वाले माध्यम बढ़े तो नए म्यूजिक की मांग भी बढ़ी।

प्राइवेट म्यूजिक एल्बमों ने ही सोनू निगम, शान, लकी अली, श्रेया घोषाल और शंकर महादेवन जैसे बड़े कलाकारों से हमारा परिचय कराया। ऐसा नहीं है कि संगीत के कलाकार इसी समय किसी यज्ञ की अग्नि से अचानक प्रकट हुए थे। ये 90 के दशक से ही अपने संघर्ष या साधना में जुटे हुए थे। चाहे वह सोनू निगम के दीवाना एल्बम का अब मुझे रात दिन तुम्हारा ही ख्याल है हो या बॉम्बे वाइकिंग का क्या सूरत है, वो चली वो चली देखो प्यार की गली, सुनीता राव का गाया हुआ परी हूं मैं, शान का तन्हा दिल, बॉम्बे रॉकर्स का तेरी तां याद सतावे, यूफोरिया का माय री, लकी अली का मोहब्बत की कसम, अलीशा चिनॉय का मेड इन इंडिया या शंकर महादेवन का ब्रेथलेस।

इनमें  कई  2000 से पहले 1998 और 1999 के भी हैं, लेकिन इनका जिक्र यहां इसलिए जरूरी है, क्योंकि यही वह वक्त है, जब नई सदी के संगीत की नींव रखी जा रही थी।

एक तरफ बादल, बिच्छू और बुलंदी फिल्मों का संगीत लोकप्रिय था, तो दूसरी तरफ रिफ्यूजी  और कहो न प्यार है जैसी फिल्में, फिल्मी संगीत की विविधता को दर्शा रही थीं। 2001 में लगान और गदर जैसी दो बड़ी फिल्मों में कहानी और निर्देशन के अलावा संगीत सबसे मजबूत पक्ष था। लगान में जावेद अख्तर के लिखे गीत और ए.आर. रहमान के संगीत ने पूरी फिल्म को एक मधुर लय में बांध रखा था। ठीक उसी तरह गदर में आनंद बख्शी जी के सीधे-सादे और सरल बोल और उत्तम सिंह के सुमधुर संगीत ने फिल्म को एक अलग ही संगीतमयी परिभाषा दी थी।

इसी दौरान आई फिल्म दिल चाहता है में जितनी ताजगी थी, उसके संगीत में भी उतनी ही नयापन था। इसका पूरा श्रेय जाता है फिल्म के निर्देशक फरहान अख्तर और फिल्म के संगीतकार शंकर-एहसान-लॉय को। इस फिल्म के संगीत ने आने वाली फिल्मों के संगीत को बहुत अधिक प्रभावित किया। दिल चाहता है के बाद आई कुछ फिल्मों के संगीत में हम इसका असर देख सकते हैं। 

इन फिल्मों के संगीत के अलावा महेश भट्ट और विक्रम भट्ट के विशेष फिल्म्स के बैनर तले बनी फिल्में राज, कसूर, मर्डर के संगीत में अब भी 90 के दशक के दिल, जिगर, नजर वाला शायराना अंदाज कायम था। समीर गीत लिख रहे थे, नदीम-श्रवण का संगीत था और गाना हिट था।

2003 से लेकर 2005 का समय हिंदी सिनेमा में नए गीतकार और संगीतकार भी नमूदार हुए। चमेली, मकबूल, रेनकोट, सलाम नमस्ते, सोचा ना था, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, यहां, परिणीता, हम-तुम और ब्लैक जैसी फिल्मों ने इरशाद कामिल, प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे जैसे उम्दा गीतकारों से हमारा परिचय कराया। साथ ही, विशाल भारद्वाज, विशाल-शेखर शांतनु मोइत्रा जैसे कमाल के संगीतकारों से भी मिलवाया।

इन सब के बीच 2004 में आई यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी फिल्म, वीर-जारा। यह फिल्मी संगीत की दृष्टि से अत्यंत ही विशिष्ट फिल्म है, क्योंकि महान संगीतकार मदन मोहन की यह आखिरी फिल्म थी। इस फिल्म की सबसे खास बात यह थी कि मदन मोहन के स्वर्गवास के बाद यश चोपड़ा ने उनकी बनाई हजारों धुनें खंगाली और वीर-जारा का मधुर संगीत हमें मिला। मदन मोहन को बाद में इस फिल्म के संगीत के लिए 50वें फिल्म फेयर अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का अवॉर्ड भी मिला। हिंदी सिनेमा के इतिहास में शायद यह पहली ऐसी घटना थी, जब एक संगीतकार किसी ऐसी फिल्म का संगीत सालों पहले बना गया था, जिस फिल्म को भी नहीं पता था कि उसकी किस्मत में कुछ कालजयी धुनें होंगी।

ऐसी ही एक और फिल्म 2004 में आई ऋतुपर्णो घोष की रेनकोट। फिल्म की ही तरह इसका संगीत भी उत्कृष्ट था। फिल्म में सारे गाने बैकग्राउंड में चले हैं, फिल्म के किरदारों से नहीं गवाए गए हैं। सारे गाने ऋतुपर्णो घोष ने ही लिखे थे। म्यूजिक देबज्योति मिश्रा ने दिया था।

यह दौर कैसेट की जगह सीडी और डीवीडी के आने के साथ ही संगीत की पायरेसी का भी था। ऐसा नहीं कि कैसेट के दौर में पायरेसी नहीं होती थी, लेकिन यह काम बॉलीवुड की ही कुछ म्यूजिक लेबल कंपनी करती थी।

छह से ग्यारह के सुर (2006-2011)

हमारा देश नई सदी के छह साल जी चुका था और हमारा सिनेमा भी। जिन नए संगीतकारों और गीतकारों से हमारा परिचय हुआ था, अब वे हिंदी सिनेमा के संगीत के एक नए दौर का अध्याय लिखने वाले थे। 2006 में आईं तीन फिल्में इस बात का प्रमाण थीं। पहली फिल्म थी रंग दे बसंती, दूसरी ओमकारा, और तीसरी लगे रहो मुन्ना भाई। रंग दे बंसती के गीतकार थे प्रसून जोशी। ओमकारा के संगीतकार थे विशाल भारद्वाज और लगे रहो मुन्ना भाई के गीतकार थे स्वानंद किरकिरे और संगीतकार शांतनु मोइत्रा।

रंग दे बंसती ने हिंदी सिनेमा के संगीत और गीत में नई परिपाटी की शुरुआत की। इस फिल्म ने भारतीय समाज के बदलते जनमानस को दिखाया था। इस फिल्म के संगीत में भी वह बात दिखाई देती है, जब देशभक्ति का गाना खूब चला। यह फौजियों के लिए न होकर कुछ अराजक कहे जाने वाले लड़कों के लिए था।

ओमकारा में विशाल भारद्वाज और गुलजार साहब की जोड़ी ने मिलकर एक अद्भुत एल्बम हिंदी सिनेमा के चाहने वालों को दिया था। आज भी बीड़ी जलइले, नमक इश्क का, नैना, साथी रे, जग जा री गुड़िया में से कोई भी गीत सुन लीजिए, ये गीत आपके मन के गहरे तल को छूते हैं। लगे रहो मुन्ना भाई में स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा की जोड़ी ने 'बंदे में था दम वंदे मातरम’ गीत रचकर देश को एक नया एंथम दे दिया। इस गीत को 2007 में सर्वश्रेष्ठ गीत का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

यह वह वक्त था, जब लग रहा था कि हिंदी सिनेमा में कविताओं की वापसी हुई है। चाहे वह फना के गीत हो, ब्लू अम्ब्रेला के, खोया-खोया चांद के या तारे जमीं पर के कविता का पुट लिए गीत हों। सिर्फ तुकबंदी के बजाय गीतों से कोई बात कही जा रही थी। इसलिए इस दौर के गीत, फिल्मों में जबरदस्ती डाले हुए न लगकर कहानी का हिस्सा लगते हैं।

श्रोताओं के लिए अच्छे संगीत की जैसे वर्षा हो रही थी, वो लम्हे, आमिर, हनीमून ट्रेवल्स, लाइफ इन अ मेट्रो, वेक अप सिड, आयशा, अजब प्रेम की गजब कहानी, उड़ान, लव आज कल, गैंगस्टर, इश्किया इन सभी फिल्मों के लगभग सारे ही गीत बेमिसाल हैं।

जैसे पिछले कालखंड ने हमारा परिचय गीत-संगीत की बेहतरीन प्रतिभाओं से कराया था, यह कालखंड भी कहीं कम नहीं है। इस दौर ने हमें अमित त्रिवेदी, स्नेहा खानवलकर, शैलेंदर सिंह सोढ़ी यानी शैली और अमिताभ भट्टाचार्य जैसे प्रतिभा के धनी लोगों से मिलवाया, जिन्होंने देव डी, ओए लकी ओए और आमिर जैसी फिल्मों में कमाल का गीत-संगीत दिया।

इस दौर में गुलाल, रॉक ऑन और तनु वेड्स मनु तीन अलग तरह की फिल्में थीं और तीनों के संगीत भी बिलकुल अलग तरह के थे। गुलाल में पीयूष मिश्रा के लिखे हुए थिएटरनुमा गीत और वैसा ही संगीत था, तो रॉक ऑन में लीड एक्टर के लिए अलग से कोई प्लैबैक सिंगर नहीं था। फरहान अख्तर पर फिल्माए गए सारे गाने फरहान अख्तर ने ही गाए और तनु वेड्स मनु ने हमें रोमांटिक गीतों की एक नई शब्दावली दी।

ओए लकी लकी ओए, देव डी  और गुलाल जैसी फिल्मों का संगीत ही नए दौर के संगीत की झलक था, जहां गीतों से कल्पना हटती जा रही थी और उनकी जगह यथार्थ लेता जा रहा था। लेकिन उस यथार्थ में भी एक अलग तरह का आनंद था।

इन फिल्मों ने एक हद तक देशज गीत-संगीत को हिंदी सिनेमा में वापस लाने का काम किया है। चाहे वह हरियाणा की रागिनी हो या राजस्थान की छाप लिए गुलाल फिल्म के गीत। यह बात पीपली लाइव के 'महंगाई डायन...' और दिल्ली 6 के 'ससुराल गेंदा फूल' में भी दिखी। कई बार देशज गीतों का इस्तेमाल करते हुए हिंदी सिनेमा ने मूल लेखकों या संगीतकारों का नाम न देकर उनके साथ अन्याय भी किया है। जैसे दिल्ली 6 में 'ससुराल गेंदा फूल' गाने में गीतकार की जगह प्रसून जोशी का नाम है, जबकि इस गीत के मूल गीतकार छत्तीसगढ़ के गंगाराम थे और भुलवाराम यादव ने संगीत दिया था।

हिंदी सिनेमा ने वैसे तो बहुत पहले से ही सारी भाषाओं के शब्दों को अपने गीत संगीत में सम्मिलित किया है। पंजाबी, राजस्थानी और भोजपुरी गाने सुनते हुए, अब श्रोताओं को यह लगता ही नहीं कि वह हिंदी नहीं, बल्कि एक लोकभाषा में गीत सुन रहे हैं। फिल्म धोबी घाट इस दायरे को बढ़ाते हुए अर्जेंटीना पहुंच गई और वहां के प्रतिष्ठित संगीतकार एकेडमी अवॉर्ड विजेता, गुस्तावो सांताओलला ने इस फिल्म में बैकग्राउंड स्कोर दिया।

वैसे तो हर चीज का एक दौर होता है, पर कुछ चीजें कालजयी होती हैं। गुलजार और ए.आर. रहमान हिंदी सिनेमा के संगीत से जुड़े कुछ ऐसे ही नाम हैं, जिनका दौर कभी खत्म नहीं हुआ। इन दो महान गीतकार और संगीतकार की जोड़ी ने फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर के गीत ‘जय हो’ के लिए 2009 का बेस्ट ओरिजनल स्कोर और बेस्ट ओरिजनल सांग का एकेडमी अवार्ड जीता।

बारह से अठारह की ताल (2012- 2018)

2012 से 2018 के दौर में सीक्वेल बहुत बने, तनु वेड्स मनु 2, गैंग्स ऑफ वासेपुर, गैंग्स ऑफ वासेपुर 2, हेट स्टोरी 2, हेट स्टोरी 3, आशिकी , आशिकी 2, जन्नत 2, मर्डर 3, रागनी एमएमएस 2, डेढ़ इश्किया। संगीत में भी हमें वह दोहराव देखने को मिला। ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों के दूसरे या तीसरे भाग के संगीत में नीरसता थी, लेकिन कहीं न कहीं संगीत पर पहले बने भाग का प्रभाव दिखाई देता है। गैंग्स ऑफ वासेपुर का संगीत स्नेहा खानवलकर ने दिया था। इस फिल्म के संगीत की सबसे खास बात थी कि इसमें बिहार के लोक गीतों से लेकर, वेस्टइंडीज में बसे प्रवासी बिहारियों के संगीत तक हैं।

2012 से लेकर 2018 का समय अति विविधता वाले संगीत का था। इंटरनेट के माध्यम से श्रोता अलग-अलग तरह के संगीत से रू-ब-रू हो रहे थे। पश्चिम का संगीत अब सिर्फ संगीतकारों के हाथों में नहीं, बल्कि आम श्रोताओं तक भी पहुंच रहा था। यही वह दौर था जब पहली बार हमने म्यूजिक के लिए वायरल शब्द सुना। धनुष का गाया हुआ ‘वॉय दिस कोलावरी डी’ शायद ऐसा पहला गीत था जिसके लिए वायरल शब्द का प्रयोग हुआ। यह तमिल फिल्म तीन का गीत था, लेकिन हिंदी श्रोताओं के बीच भी काफी लोकप्रिय हुआ।

लुटेरा, रांझणा, बर्फी, तलाश, अग्निपथ, आशिकी, काई पो चे, दम लगा के हईशा, घनचक्कर, डेढ़ इश्किया, हाईवे, सिटी लाइट्स, एक विलेन, उड़ता पंजाब, मिर्ज़्या, रंगून, जग्गा जासूस, बरेली की बर्फी, न्यूटन इस कालखंड के कुछ बेहतरीन म्यूजिक एलबम्स थे। हैदर में गुलजार का लिखा गीत बिस्मिल एक तरह से शेक्सपियर के थिएटर शैली वाला गीत था। रॉकस्टर में इरशाद कामिल का लिखा गीत हवा-हवा भी कुछ इसी तरह का गीत था, ऐसा नहीं कि यह शैली पहली बार हिंदी सिनेमा के संगीत में इस्तेमाल की गई है। इस दौर में ऐ दिल है मुश्किल और दंगल दो बहुत लोकप्रिय एल्बम रहे हैं, पहले दिल टूटने पर जहां रोने वाले गाने होते थे, अब ब्रेकअप सांग होता है। और बापू को सिगरेट की तरह सेहत के लिए हानिकारक बताने वाले गाने होते हैं। इन दोनों ही गानों के गीतकार हैं, अमिताभ भट्टाचार्य जिन्होंने हिंदी फिल्मी गीत में बोलचाल वाले शब्दों को लेकर एक नए तरह का श्रोता वर्ग तैयार किया है। एक और एल्बम मनमर्जियां जिनके गीतकार शैली की चर्चा मैं पहले ही कर चुका हूं। फिल्म के सारे गीत लगभग पंजाबी में हैं और इस फिल्म में आपको एक अलग तरह के पंजाबी गीत सुनने को मिलेंगे। जिनके लिए पंजाबी का मतलब सिर्फ पार्टी सांग होता है, उन्हें एक बार मनमर्जियां और उड़ता पंजाब के गाने जरूर सुनने चाहिए। मसान और मुक्काबाज के बिना बात अधूरी ही रह जाएगी।  मसान का गीत ‘तू किसी रेल सी गुजरती है’, दुष्यंत कुमार की कविता का बहुत ही सुंदर उपयोग है।

मुक्काबाज में हास्य कवि डॉक्टर सुनील जोगी की मशहूर कविता ‘मुश्किल है अपना मेल प्रिये’ का उपयोग किया गया है। दरअसल यह दिखाता है कि इस दौर में हिंदी सिनेमा ने आधुनिक साहित्य की कविताओं के साथ ही समसामयिक कविता को भी अपने अंदर समेटा है, जो भविष्य के हिंदी सिनेमा संगीत के लिए एक अच्छी निशानी है।

इन सारे कालखंडों में हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत में कई खामियां भी रहीं। कई बार शब्दों का गिरता स्तर और औसत संगीत। मगर, वो चीजें जो समय के साथ खुद ही धूमिल हो जाने वाली हों उन पर अपना समय क्यों गंवाना। ये वो दौर था जब लोग गाने सावन और गाना डॉट कॉम पर सुनने लगे, लगभग हर हाथ में स्मार्टफोन आ गया, फ्री इंटरनेट और इंटरनेट पर मौजूद फ्री संगीत ने सीडी और डीवीडी खरीदने की आवश्यकता ही खत्म कर दी। इंटरनेट न होता तो शायद हनी सिंह और बादशाह न होते, अरिजीत सिंह का संघर्ष और बढ़ जाता, तनिष्क, वायु, खामोश शाह, और देर से मिलते, मामे खान, सावन खान को सुन ही ना पाते, सुल्ताना नूरां, ज्योति नूरां की आवाज ही न मिलती, नुक्लेया जैसे हिंदी रैपर न मिलते या फिर सब कुछ होता, पर जैसा हुआ वैसा न हुआ होता।

(लेखक डीडीबी मुद्रा ग्रुप में कॉपी हेड और यशराज फिल्‍म्स के लिए गीत लिख चुके हैं)

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