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अभी कैद हैं कई मौलिक अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने आइपीसी की धारा 377 को खत्म कर सुनाया ऐतिहासिक फैसला, मगर अब भी कई मौलिक अधिकार ऐसे हैं जिन्हें मुक्त किया जाना बाकी
अदालती फरमानः केरल हाइकोर्ट ने हदिया के विवाह को रद्द कर दिया था

यह 2018 है और आज से तकरीबन दो सौ साल पहले दुनिया में पहली बार किसी औपचारिक संविधान में मानवाधिकारों को मान्यता मिली थी। फिर, ढाई हजार साल पहले एक राजा (साइरस द्वितीय) ने दर्ज इतिहास में पहली बार दासों को मुक्त किया और प्रजा को अपना धर्म चुनने की आजादी दी। अब वापस अपने देश लौटें तो पिछले दिनों ही हमने अपनी आजादी की 71वीं वर्षगांठ मनाई और संविधान में निहित तमाम चीजों में अपना विश्वास जताया। यही संविधान अपने सभी नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकारों की गारंटी देता है। फिर भी, यहां सीवर टैंक में लोगों का मरना जारी है, जो दूसरों की भलाई के लिए सीवर में उतरते हैं जबकि हाथ से मैला साफ करने की प्रथा पर संविधान रोक लगा चुका है।

पिछले दिनों दिल्ली के मोती नगर इलाके में डीएलएफ कैपिटल ग्रीन्स के तहखाने में सीवेज टैंक की सफाई करते हुए पांच लोगों की मौत हो गई थी। वहीं, दूसरी जगह कथित तौर पर मवेशियों की तस्करी के आरोप में एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मारा डाला गया। अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, जब एक अदालत ने एक महिला के विवाह को रद्द कर दिया था, क्योंकि उसने उस धर्म को अपनाया, जिसमें वह पैदा नहीं हुई थी। अदालत ने इसे कथित तौर पर चरमपंथ से सहानुभूति रखने वालों द्वारा महिला का ‘ब्रेनवॉश’ और ‘प्रोग्रामिंग’ का नतीजा बताया था।

आज हम सभ्यता के उस पड़ाव पर हैं, जहां  हमारी स्वतंत्रता और अधिकारों का लिखित कानून बन चुका है। लेकिन संविधान हमें जिस चीज की गारंटी देता है, वास्तविकता उससे अलग भी हो सकती है। व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को न केवल दूसरे व्यक्तियों, बल्कि सरकार द्वारा भी दबाया जा रहा है। कभी-कभी राज्य और उसके कानूनों द्वारा भी इन अधिकारों के साथ समझौता किया जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब तक भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत “अप्राकृतिक सेक्स” को जुर्म मानने के प्रावधान को खारिज नहीं कर दिया, तब तक समानता के अधिकार को नकारा जा रहा था। संसद के बजाय अदालत ने इसे रद्द किया, जिसके बारे में कुछ लोग तर्क देते हैं कि अदालत हमारी राजनीति और समाज में बहुत अधिक हस्तक्षेप करती है। दूसरे लोगों का कहना है कि समलैंगिकता के गैर-अपराधीकरण से कुछ लोगों का असहज होना बताता है कि अभी भी लोग यह स्वीकार करने के लिए पर्याप्त परिपक्व नहीं हुए हैं कि सभी इनसानों का सेक्सुअल ओरिएंटेशन एक-समान नहीं होता है। जबकि वे समान अधिकारों के हकदार हैं।

यह सिर्फ एक अलग सेक्सुअल ओरिएंटेशन रखने वाले लोगों का ही मसला नहीं है। विभिन्न क्षेत्रों में लोगों के अधिकारों का इतना घोर उल्लंघन हो रहा है कि उसे भुलाया नहीं जा सकता। माओवादियों के साथ कथित संबंध और सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश के आरोप में अगस्त में पांच मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की गिरफ्तारी, फिर जून में इसी तरह की पांच लोगों की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का हथकंडा था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि असहमति “लोकतंत्र का सुरक्षा कवच” है। यह ऐसा बयान था, जिसे मीडिया ने व्यापक रूप से रिपोर्ट किया और नागरिक समाज ने जोशो-खरोश से स्वागत किया। बॉम्बे हाइकोर्ट ने महाराष्ट्र पुलिस को गिरफ्तारियों पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए फटकार लगाई और पूछा कि मामला अभी विचाराधीन है तो वे ऐसा क्यों कर रहे थे। सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय का कहना है कि सरकार अभिव्यक्ति की आजादी छीनकर समाज को पंगु बनाना चाहती है।

2005 में सूचना का अधिकार लागू होने से पहले इस आंदोलन की अगुआई करने वाली राय कहती हैं, “अगर यह छीन लिया जाता है, तो हम सरकार का विरोध नहीं कर सकते या उसकी विफलताओं पर सवाल नहीं पूछ सकते हैं। चुप्पी में छुपे खतरे और जो भी चुप रहना चाहते हैं, उन्हें महसूस करना चाहिए कि यह दासता की वजह बन जाएगी।” भारत वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 2016 में 133वें स्थान पर था और इस साल पांच पायदान गिरकर 138वें पर पहुंच गया।

मॉब लिंचिंग की लगातार घटनाएं भी देश में मानवाधिकार की स्थिति पर काली परछाईं डाल रही हैं। इन घटनाओं को अंजाम देने वालों को कभी-कभी नेताओं और प्रशासन का स्पष्ट संरक्षण मिला होता है। नलसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफा मानवाधिकार और संवैधानिक कानून पर कई लेख लिख चुके हैं। वे कहते हैं, “हममें से कई लोगों को किसी अपराधी की गैर-न्यायिक तरीके से हत्या के विचार ठीक लगते हैं। अगर हम फटाफट न्याय करने की ओर बढ़ रहे हैं, तो हम उन सभी कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं, जो निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के तहत आते हैं। असल में, मॉब लिंचिंग के आंकड़े बतलाते हैं कि सबसे अहम मौलिक अधिकार “जीने का अधिकार” भी सभी नागरिकों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। हमें सतर्क हो जाना चाहिए।”

मॉब लिंचिंग की ही तरह कई ऐसे अपराधों को अंजाम दिया गया है, जो न सिर्फ जीने के अधिकार का उल्लंघन नहीं करते हैं, बल्कि बतलाते हैं कि किसी भी व्यक्ति में दूसरों के प्रति नफरत या उपेक्षा की भावना कितनी अधिक हो सकती है। राजस्थान के राजसमंद में एक व्यक्ति की कुल्हाड़ी से काटकर हत्या कर दी गई और उसे जला दिया गया। हमलावर इस घटना की रिकॉर्डिंग करता रहा और बाद में उसने इस करतूत का बचाव करते हुए हिंदू गौरव और मुसलमानों के प्रति नफरत जाहिर करने वाले कई वीडियो जारी किए। यह बतलाता है कि लोग किस अपमानजनक स्तर तक गिर चुके हैं।

इसी तरह कठुआ मामले में आठ वर्षीय बकरवाल बच्ची की हत्या से पहले कम-से-कम उसे चार दिनों तक ड्रग्स दिए गए और उसके साथ बलात्कार किया गया। फिर तिरुचिरापल्ली में अंतरजातीय जोड़े और उनके बच्चे की ऑनर किलिंग की गई। देश की राजधानी की सड़कों पर निर्भया के साथ जघन्य बलात्कार हुआ। राजस्थान के डांगवास में एक ट्रैक्टर से तीन दलितों को कुचल दिया गया। कश्मीर के बडगाम में पत्थरबाजों के खिलाफ मानव ढाल के रूप में सेना के एक मेजर द्वारा जीप की बोनट पर मतदान के लिए निकले कश्मीरी मजदूर फारूक अहमद डार को बांध दिया। यह सूची बढ़ती ही जाती है।

मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले ऐसे कई मामले हैं। श्रीनगर के एक इंटरटेनमेंट पेशेवर आउटलुक से बातचीत में इन अधिकारों के उल्लंघनों के बारे में खुलकर बात करते हैं। वे कहते हैं, “हर रात जब मैं दफ्तर से घर लौट रहा होता हूं तो एक पुलिसवाला मुझे रोकता है। वह मेरे चेहरे पर तेज रोशनी वाला टॉर्च मारता है और पूछताछ करता है। यह हर दिन होता है।” वे नाम न छापने का आग्रह करते हैं और कहते हैं, “रहने दो यार। परेशान करेंगे।” हर जगह सेना की मौजूदगी, लगातार पूछताछ और कभी-कभार उत्पीड़न ने कश्मीर घाटी में मानवीय गरिमा को तबाह कर दिया है। 26 वर्षीय यह पेशेवर कहता है, “पिता परिवार के सर्वेसर्वा हैं। जब कोई पुलिसवाला परिवार के सामने उन्हें थप्पड़ मारता है, तो उनका वजूद ही खतरे में पड़ जाता है।”

जम्मू-कश्मीर, असम और मणिपुर के कुछ हिस्सों में लागू सशस्‍त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम (अफस्‍पा) जैसे कानूनों के परिणामस्वरूप मानवाधिकारों के उल्लंघन के बड़े आरोप सामने आए हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ 2016 में ही भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के खिलाफ 92 शिकायतें मिली थीं।

दक्षिण एशिया में ह्यूमन राइट्स वॉच की डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली कहती हैं, “विभिन्न हिस्सों में हिंसक विद्रोह चाहे वह जम्मू-कश्मीर, असम या मणिपुर या माओवादियों की मध्य भारत के जंगलों में सक्रियता हो, सरकार और विद्रोही गुटों, दोनों ने मानवाधिकारों के दुरुपयोग को बढ़ावा दिया है।” वे कहती हैं, “भारत को प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अत्यधिक बल, मनमाने तरीके से हिरासत में लेने, उत्पीड़न और गैर-न्यायिक हत्याओं को रोकना होगा। साथ ही, दंड की संस्कृति को खत्म करने की जरूरत है।” कानूनविद मुस्तफा के मुताबिक, कभी-कभी खुद गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जैसे कानून ही लोगों के अधिकारों, आजादी और सम्मान को चोट पहुंचाते हैं। वे कहते हैं, “अगर किसी उदार अदालत में इन कानूनों की सख्ती से समीक्षा की जाए, तो ये संवैधानिक भी नहीं ठहरेंगे। इससे पहले के आतंकरोधी कानून-टाडा के तहत गिरफ्तार लोगों की रिहाई की संख्या देखिए। वर्षों या दशकों तक बेकसूर लोगों को जेलों में बंद रखा गया, बाद में वे सभी आरोपों से बरी हो गए।”

इन प्रत्यक्ष उल्लंघनों के अलावा, आदिवासियों, महिलाओं, उपभोक्ताओं, मजदूरों के अधिकारों का भी नियमित रूप से उल्लंघन होता है। गोपनीयता के कानूनों का भी उल्लंघन होता है। सरकारी एजेंसियांे और तकनीकी क्षेत्र के दिग्गज लोगों के व्यक्तिगत डेटा में छेड़छाड़, रिकॉर्डिंग और उसका दुरुपयोग हो रहा है। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में देरी और सरकारी विभागों के संक्षिप्त जानकारी देने या न देने से सूचना का अधिकार बेमानी होता जा रहा है। भोजन और शिक्षा के अधिकार भले ही कानून की शक्ल ले चुके हैं, लेकिन अभी भी जरूरतमंद लोगों की पहुंच से बहुत दूर हैं। पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन की असमानता भी काफी है। एक अध्ययन के मुताबिक, 70 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वे आर्थिक अन्याय की भुक्तभोगी हैं।

कानूनों और उनके क्रियान्वयन में समस्याओं के बावजूद संविधान एक मजबूत दस्तावेज प्रतीत होता है, जो हमारे समाज के मुकाबले बहुत प्रगतिशील है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के मानद फेलो आशीष नंदी इसे एक “उत्कृष्ट दस्तावेज” बताते हैं। वे कहते हैं कि वामपंथी या उदारवादी या नास्तिक भी कह सकता है कि हमारे पास दुनिया का सबसे बेहतरीन संविधान है। अरुणा राय का कहना है कि संविधान निर्माताओं को भारतीय परंपरा पर गर्व था, लेकिन वे इसकी समस्याओं से अनजान नहीं थे। इसी वजह से उन्होंने भारतीय सामाजिक-कानूनी तंत्र के कई विरोधाभासों से निपटने के लिए संविधान में व्यवस्‍था की। अरुणा राय कहती हैं, “संविधान को पूरी तरह इस मान्यता से तैयार किया गया था कि भारत वास्तव में क्या था।”

उनका मानना है कि भविष्य में भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्ष भारत को बनाए रखने के लिए संघर्ष होगा। दूसरों को लगता है कि पुलिस अत्याचारों से मुक्ति और शरणार्थियों के अधिकारों को जल्द संविधान में जोड़ा जाना चाहिए। प्रौद्योगिकी और इंटरनेट के दौर में व्यापक दस्तावेजीकरण, निजता का अधिकार, गोपनीयता का अधिकार, भूलने का अधिकार, जिसमें इंटरनेट पर व्यक्ति से संबंधित अपमानजनक जानकारी को मिटाना शामिल होगा, भी अधिकारों से संबंधित बहस का तेजी से हिस्सा बनते जा रहे हैं।

दकियानूसी कानून

आइपीसी की धारा-497ः इस कानून के तहत किसी विवाहित महिला के साथ सेक्स संबंध बनाने पर सिर्फ पुरुषों को ही सजा देने का प्रावधान है  

भारतीय कारागार अधिनियमः इस कानून के तहत जेल में किसी अपराध के लिए पुरुष बंदियों को उनके पिछवाड़े पर 30 चाबुक मारे जा सकते हैं

भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम-1885ः भारत ने पांच साल पहले ही टेलीग्राम भेजना बंद कर दिया, लेकिन देश में आज भी टेलीग्राफ से संबंधित यह कानून बरकरार है

कैसे-कैसे कानून

भारतीय पोस्ट ऑफिस अधिनियम-1898 ः आप “दस्तावेजों” को प्राइवेट कूरियर से भेज सकते हैं, लेकिन चिट्ठी सिर्फ भारतीय पोस्ट ऑफिस से ही भेजी जा सकती है

भारतीय एयरक्राफ्ट अधिनियम-1934 ः एयरक्राफ्ट कानून के तहत पतंग और गुब्बारे उड़ाने को छूट दी गई है, वरना इसके लिए भी मंजूरी चाहिए, क्योंकि इन्हें “एयरक्राफ्ट” के रूप में परिभाषित किया गया है

जनप्रतिनिधि अधिनियम-1951 की धारा 160ः आपकी निजी गाड़ी चुनाव ड्यूटी के लिए ली जा सकती है। आप खुद उसे चलाते हैं तो दिनभर के लिए सिर्फ 50 रुपये ही मिलेंगे

“कई कानूनों में फौरन संशोधन की दरकार”

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक आकार पटेल ने सलीक अहमद को बताया कि हमारा समाज लोकतांत्रिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए संविधान के मानकों से अभी पीछे है। बातचीत के कुछ अंशः

हमें जो अधिकार मिले हैं, उन्हें देखते हुए  हम समाज के रूप में कितने प्रगतिशील हैं?

हम अपने संविधान की तुलना में बहुत कम प्रगतिशील हैं। हमने सात दशक पहले अपने लिए जो कानून लिखे थे, एक राष्ट्र के रूप में हम उनसे काफी पीछे हैं। हमारी लोकप्रिय या यहां तक कि संसदीय बहसें भी कानूनों से पीछे हैं। यह हमें काफी असामान्य बनाता है। हम एक उदार और प्रगतिशील संविधान से दूर हो गए हैं, बल्कि एक रूढ़िवादी और दकियानूसी समाज हैं।

क्या संविधान पर्याप्त प्रगतिशील है?

अगर हम उन विशेष कानूनों को हटाना चाहते थे, जो दकियानूसी या असंवैधानिक हैं, तो उनमें से एक थी आइपीसी की धारा 377। एक उदार और आजाद समाज को चलाने के लिए हमारे पास संविधान है, जो तमाम जरूरी चीजों से लैस है। हम वहां तक ठीक हैं, लेकिन हम कुछ कानूनों की व्याख्या के मामले में दुरुस्त नहीं हैं। हमने जो नुकसान पहुंचाया है, उसे देखिए। उदाहरण के लिए, अमेरिकी संविधान में पहला संशोधन कहता है कि कांग्रेस कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगी, जो अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करता हो। लेकिन भारतीय संविधान में पहला संशोधन इसके ठीक उलट है कि राज्य ऐसा कानून पेश कर सकता है, जो अभिव्यक्ति की आजादी को कम कर सकता है। यहीं हमें देखना चाहिए कि हम अभी की तुलना में अपनी आजादी को कैसे पूर्ण बना सकते हैं। जब किसी इनसान की हत्या जैसा अपराध होता है, तो हमें इस बहस में नहीं पड़ना चाहिए कि गाय के साथ कैसा व्यवहार किया गया था।

धारा 377 के अलावा और कौन से अन्य कानूनों को खत्म किया जाना चाहिए?

ऐसे ज्यादा कानून नहीं हैं, जिन्हें खत्म करने की जरूरत है, लेकिन अधिकांश की उदार व्याख्या करने की आवश्यकता है। सशस्‍त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफस्‍पा) उन कानूनों में है, जिसकी निश्चित तौर पर हमें जरूरत नहीं है। हम सैनिकों को अधिक या कम छूट नहीं दे सकते। वैसे भी, अफस्‍पा सैनिकों को छूट नहीं देता है, हमने बस इसका यह अर्थ समझ लिया है। हम नागरिक आबादी पर सेना को ढील नहीं दे सकते हैं। फिर देश में एहतियातन हिरासत में लेने के कुछ अजीब कानून हैं। उनमें से कुछ पूरी तरह बकवास हैं। तमिलनाडु का कानून रेत माफिया और वीडियो पायरेटर्स में फर्क नहीं करता। वे अपराध होने के पहले ही छह महीने तक लोगों को जेल में रख सकते हैं। यह अग्रिम कार्रवाई है। आप लोगों को यह मानते हुए जेल में नहीं डाल सकते कि वे कोई अपराध करने जा रहे हैं। गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) भी एक भयावह कानून है। आप खुद को समझा सकते हैं कि दुनिया भर के कई देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए ऐसा किया है, लेकिन यह देखते हुए कि भारत में अपराध साबित करना और जमानत लेना बहुत मुश्किल है, हम अस्पष्ट व्याख्या वाले यूएपीए जैसे कानून के पक्ष में नहीं हो सकते।

राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून भी हैं। संविधान में हमें विशेष रूप से आजादी दी गई है, जिसे राज्यों की तरफ से छीना जा रहा है। मुझे एक मजिस्ट्रेट के पास जाकर क्यों कहना चाहिए कि मैं धर्मांतरण करना चाहता हूं। संविधान में इस आजादी की गारंटी है। इसे खत्म किया जाना चाहिए। इनमें से बहुत सी चीजें संविधान की भावना के खिलाफ भी जाती हैं।

भारत में सबसे ज्यादा किन अधिकारों को नकारा या उसका उल्लंघन किया जाता है?

अगर संख्या के संदर्भ में बात करें तो यह आजादी से संबंधित होगा। आपको जमानत मिलना इस पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं। अगर आप मुसलमान हैं, तो संभावना कम है। यदि एक अमीर मुसलमान हैं, तो संभावना थोड़ी अधिक है। और यह भारी समझौता है, जिसका लाभ आप उठाते हैं। संसाधनों के बंटवारे में बहुत बड़ा उल्लंघन होता है। उदाहरण के लिए, हम सेना पर चार लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं। हमने आखिरी बार युद्ध लगभग 50 साल पहले लड़ा था। अब हम स्वास्थ्य क्षेत्र से इसकी तुलना करें, तो हम मोदीकेयर पर दो हजार करोड़ रुपये की मामूली राशि खर्च करेंगे।

आपकी नजर में हमें संविधान में और कौन-कौन से अधिकार चाहिए?

संविधान की प्रस्तावना इस मामले में खास है कि हम सभी को क्या-क्या अधिकार चाहिए। उस पर हमारी लोकतांत्रिक राजनीति कितनी समझदार है? लगभग नहीं। इसलिए मुझे नहीं लगता कि हमें एक और अधिकार या अधिकारों का समूह शामिल करने की जरूरत है। हमें सिर्फ यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि संविधान का पालन किया जाए।

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