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राजनैतिक नफा-नुकसान का भंवर

जाट आरक्षण के नए आंदोलन से बदलने लगे राजनैतिक समीकरण, मसला कोर्ट में अटकने की सरकारी दलील नहीं आ रही काम
नया आगाजः रोहतक में रैली के दौरान अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक

जाटों ने हरियाणा में आरक्षण को लेकर तीसरी बार आंदोलन छेड़ दिया है। पिछले जाट आरक्षण आंदोलनों की तरह जान-माल का कोई नुकसान न हो और सरकार पर भी पूरा दबाव बना रहे, इसलिए अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने इस बार आंदोलन की गुप-चुप रणनीति बनाई है। आंदोलन के पहले दिन (16 अगस्त) से लेकर अभी तक प्रदेश भर में सामान्य जन-जीवन पर कोई असर नहीं पड़ा है, लेकिन 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में यह सत्तारूढ़ भाजपा की राह मुश्किल कर सकता है। राज्य की 29 फीसदी जाट आबादी को सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिले में आरक्षण का बिल भले ही राज्य सरकार ने पारित कर दिया है, लेकिन मसला कोर्ट में अटकने से चुनावों में असर पड़ने का डर हर दल को सता रहा है। सबसे ज्यादा नुकसान सत्तारूढ़ भाजपा को हो सकता है।

2014 के आम चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा यहां लोकसभा की 10 में से सात सीटें जीत गई थी। पहली बार उसने अपने दम पर प्रदेश की सत्ता भी पाई। इसकी एक बड़ी वजह जाट वोटों का भाजपा के पाले में जाना था। लेकिन मुख्यमंत्री गैर-जाट को बनाने का संदेश जाट बिरादरी में भाजपा सरकार के खिलाफ जा रहा है। जाट आरक्षण की आंच से 2019 के चुनावों में जाट और गैर-जाट वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को झेलना पड़ सकता है।

शायद यही वजह है कि भाजपा गैर-जाट वोटों में 2019 का भविष्य तलाश रही है जबकि कांग्रेस और इनेलो की राजनीति जाट वोटों के समीकरण पर टिकी है। गैर-जाटों में भी दलित (19 फीसदी), ब्राह्मण, बनिया, अहीर, गुर्जर और यादवों के वोट बंटे हुए हैं। कभी किसी एक पार्टी के पक्ष में इनका ध्रुवीकरण नहीं रहा है। फिर भी भाजपा इसे अपना सुरक्षित वोट बैंक मानकर चल रही है। इसके अलावा, जाट आरक्षण के विरोध में ओबीसी जातियों के वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए भाजपा के कुरुक्षेत्र से बागी सांसद राजकुमार सैनी की ओबीसी ब्रिगेड ने भाजपा की राह में कांटे बिछा दिए हैं।

उधर, प्रदेश के जिन नौ जिलों रोहतक, कैथल, हिसार, जींद, सोनीपत, पानीपत, भिवानी, चरखी-दादरी और झज्जर में जाटों का आधार मजबूत है, वहां के ग्रामीण इलाकों में मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर से लेकर वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु और कृषि मंत्री ओम प्रकाश धनखड़ तक के तमाम कार्यक्रमों का बहिष्कार शुरू हो गया है।

दूसरी तरफ, सरकार और प्रशासन चौकन्ना है। डीजीपी बी.एस. संधू के आदेश के बाद संबंधित जिलों के एसपी लगातार संघर्ष समिति के पदाधिकारियों के संपर्क में हैं। गांव में गठित की गई शांति कमेटियों की बैठकें भी जारी हैं।

जाट आरक्षण संघर्ष समिति के नेताओं को शांति और सौहार्द कायम रखने को कहा गया है। अधिकारियों ने आंदोलन के दौरान शांति और कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने पर कार्रवाई की चेतावनी दी है। जाट नेताओं ने कहा कि उनका आंदोलन शांतिपूर्ण रहेगा। उधर, सरकार की कोशिशों से कोई समाधान निकलता नहीं दिख रहा है। हरियाणा में जाट समुदाय को सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिले को आरक्षण के दायरे में लाने के उद्देश्य से विधानसभा में 29 मार्च 2016 को हरियाणा पिछड़ा वर्ग (सेवाओं तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले में आरक्षण) विधेयक 2016 को मंजूरी दे दी गई। फिर पिछड़ा वर्ग ब्लाक ‘ए’, पिछड़ा वर्ग ब्लॉक ‘बी’ और पिछड़ा वर्ग ब्लॉक ‘सी’ को वैधानिक दर्जा देने का विधेयक पेश किया गया। 13 मई 2016 को अधिसूचित एक्ट में हिंदू, सिख और मुस्लिम जाटों, बिश्नोई, त्यागी और रोड बिरादरी को सी वर्ग में रखते हुए वर्ग तीन और चार की नौकरियों में 10 फीसदी और वर्ग एक और दो की नौकरियों में छह फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन 26 मई 2016 को पंजाब एवं हरियाणा हाइकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। मामला लंबित है। मुख्यमंत्री कहते हैं, “अब सरकार क्या कर सकती है।”

जहां, हरियाणा में राज्य स्तर पर आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा है। यह भी दिलचस्प है कि हरियाणा से सटे दिल्ली, राजस्थान (केंद्रीय सेवाओं और शैक्षिक संस्थानों में भी), मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश में जाटों को राज्य स्तर की सेवाओं और शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण मिला हुआ है, जबकि हरियाणा में इन्हें आरक्षण के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के नेता का कहना है कि वे हरियाणा में राज्य स्तर पर आरक्षण के साथ केंद्रीय सेवाओं और शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण के लिए आंदोलन शुरू कर रहे हैं।  2019 के लोकसभा चुनाव से जाट समुदाय आंदोलनों के जरिए आरक्षण की मांग के साथ सरकार पर दबाव बनाने में लगा है। लेकिन अभी गुत्थी सुलझती नहीं दिखती और 2019 में इसके सियासी अक्स दिखने तय लगते हैं।

“नया आयोग सिर्फ राजनैतिक शोशा”

आरक्षण को लेकर जाटों की मांग और आंदोलनों का इतिहास काफी पुराना है। आखिर क्या वजह है कि अभी तक उनकी मांग मुकम्मल नहीं हो पाई है। चंदन कुमार ने अखिल भारतीय जाट आरक्ष्‍ाण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक से बात की। कुछ अंश ः

 आरक्षण को लेकर जाट समाज की प्रमुख मांगें क्या हैं?

जाटों को आठ राज्यों में राज्य स्तर पर आरक्षण मिला हुआ है। नौवां राज्य हरियाणा है, जहां 1991 में आरक्षण मिल गया था लेकिन 1994 में भजनलाल ने राजनीतिक कारणों से छीन लिया। 2013 में फिर राज्य स्तर पर आरक्षण मिला, लेकिन 2015 में छीन लिया गया। केंद्र में 2014 में नौ राज्यों में आरक्षण मिल गया और सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में फिर उसे छीन लिया। अदालतों ने भी जाट समाज के साथ न्याय नहीं किया। 

हरियाणा में 2002 में एक पैनल ने जाटों के पिछड़ेपन को लेकर सर्वे किया। सर्वे के मुताबिक, जाट हरियाणा में दूसरी जातियों के मुकाबले उच्च हैं। फिर यह मांग क्यों?

अगर आप कुम्हार, दर्जी, नाई से तुलना करते हैं, तो निश्चित रूप से एक एग्रीकल्चर कास्ट है और दूसरी लेबर कास्ट हैं। अगर वित्तीय तुलना की जाए, तो कृषि तो दिन-ब-दिन पिछड़ती जा रही है। अगर सामाजिक हैसियत में तुलना की जाए, तो कोई फर्क नहीं आया है, क्योंकि ऊंची जातियों से तो पिछड़ी ही है। फिर, आरक्षण का आधार तो सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन ही है। 

नए संवैधानिक पिछड़ा वर्ग आयोग से क्या उम्मीदें हो सकती हैं?

खास नहीं, आयोग तो पहले भी था ही। अब फर्क यह होगा कि किसी जाति को शामिल करने की मंजूरी संसद से लेनी होगी, जैसा एससी-एसटी आयोग के मामले में होता है। नया आयोग एक राजनैतिक शोशा है। देश में किसी भी दल में राजनीतिक ईमानदारी नहीं है। ऐसे में कोई भी आयोग बने, किसी भी जाति को न्याय नहीं मिलेगा।

क्या कृषि की हालत बिगड़ने से संकट बढ़ा है? अगर कृषि अर्थव्यवस्था सुधर जाती है, तो क्या आप आरक्षण की मांग छोड़ देंगे?      

मौजूदा नीतियों से किसान की स्थिति ठीक नहीं हो सकती है। 1965 से पहले किसान दयनीय स्थिति में था। 1990 के बाद पूंजीवाद आ गया। मामला आगे बढ़ गया है। 92 फीसदी किसानों के पास एक एकड़ से भी कम जमीन है, तो इतनी बड़ी आबादी की आमदनी आप कैसे बढ़ा देंगे।  

पिछले तीन-चार साल में कई आंदोलन हो चुके हैं। अभी तक हल क्यों नहीं निकला?

देखिए, राजनैतिक बेईमानी है। आज प्रजातंत्र में किस पर विश्वास करेंगे। आंदोलन से आवाज उठाई जाती है। देश का प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रमुख राजनैतिक दल के नेता हां कह दें तो उनकी बात तो मानेंगे ही। फिर पता चलता है कि मामला लंबे समय तक टल जाता है।

मराठा धनगर और मुसलमानों के साथ मोर्चा बनाने जा रहे हैं। आपकी क्या राय है?

हमारी तो मई में पहले ही बैठक हो चुकी है। हमारी मराठों से बातचीत हुई है। हार्दिक पटेल के प्रतिनिधि से भी चर्चा हुई। कापू समाज के प्रतिनिधि भी आए थे। अगर सरकार नहीं मानती है, तो हमलोगों की व्यापक मोर्चा बनाने की योजना है। 

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