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करुणानिधि के मायने

करुणानिधि ने तमिल समाज, राजनीति और संस्कृति पर जो छाप छोड़ी, उसका जोड़ मिलना मुश्किल
एम. करुणानिधि  (1924-2018)

इसे जिंदगी की गजब की विडंबना कहिए कि तमिलनाडु के अद्वितीय वक्ता, संवाद वाहक को अपने आखिरी दिन खामोशी में गुजारने पड़े। करीब छह दशकों तक तमिलनाडु की राजनीति की दिशा तय करने वाला सूनी आंखों से चुपचाप यह देखता भर रह गया कि राज्य की राजनीति कैसे हिचकोले खा रही है। यहां तक कि उनके भीतर बैठा चतुर लेखक भी शायद ही यह भांप पाया होगा कि उनकी सक्रिय राजनीति से विदाई और उनके धुर विरोधी के अवसान के बाद दो सुपरस्‍टार अपना सियासी दावा पेश कर बैठेंगे।

दिग्गज मुत्तुवेल करुणानिधि जब अस्पताल के विस्‍तर पर करवटें बदल रहे थे, हर दिन उनके ‘उडन पिराप्पुगल’ (भाई-बहनें) इसी चमत्कार की उम्मीद में थे कि वे उठेंगे और फिर अपने व्हील चेयर पर आसन रमाकर उनका खैर-ख्याल रखेंगे। लेकिन वह दिन नहीं आया। करुणानिधि 7 अगस्त 2018 की शाम 6.30 बजे अलविदा कहकर चले गए। उनका जाना तमिलनाडु की सियासत से उस राजनेता का विदा होना है जिसने करीब दर्जन भर मुख्यमंत्रियों से लोहा लिया, जिसने दोस्त से धुर विरोधी बने एमजीआर और उनकी शिष्या जे. जयललिता को टक्कर दी।

यही नहीं, 3 जून 1924 को जन्मे करुणानिधि ऐसे पहले नेता भी थे, जिन्होंने राज्य में नेताओं की मूर्ति-पूजा का दौर शुरू किया और एमजीआर और फिर जयललिता का सामना करने के लिए बेझिझक अपनी छवि का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने इसे अपनी भाषण कला से निखारा और अपनी पार्टी के मुखपत्र मुरसोली के जरिए धारदार बनाया। मीडिया को तो वे अपनी वाकपटुता से हैरान ही करते रहे। तमिल पौराणिक गाथाओं और शास्‍त्रों पर उनकी गजब की पकड़, अद्‍भुत याददाश्त, घटनाओं और कथाओं से नया कथानक गढ़ने की उनकी बेमिसाल काबिलियत उनके प्रतिद्वंद्वियों और मीडिया को लाजवाब कर दिया करती थी। 

द्रमुक प्रवक्ता आरके राधाकृष्णन कहते हैं, “एमजीआर ने जब अन्नाद्रमुक बनाई और  1977 में सत्ता में पहुंचे तो समूचे तमिलानाडु में उनके करिश्मे की तूती बोलने लगी थी, तब भी करुणानिधि अपनी पार्टी को बांधे रखने में कामयाब रहे और एमजीआर सरकार की गड़बड़ियों पर हमला बोलने से नहीं हिचके। सही है कि एमजीआर सहानुभूति लहर पर सवार होकर दो-दो चुनाव जीत गए, लेकिन करुणानिधि हमेशा चुनौती देते रहे। उन्हें कोई हल्के में नहीं ले सका।”

पहले एमजीआर और फिर वायको ने द्रमुक को तोड़ा, फिर भी पार्टी का जलवा बरकरार रहा तो यह बेशक लोगों में उनके नेतृत्व के आकर्षण की ही गवाही देता है। राजीव गांधी हत्याकांड के बाद 1991 के चुनावों में पार्टी के सफाए से कई लोग द्रमुक को ख्‍त्म हुआ मानने लगे थे लेकिन करुणानिधि ने धैर्य रखने की सलाह दी और कहा कि नौसिखिया जयललिता गलतियां जरूर करेंगी। वही हुआ और करुणानिधि 1996 में वापस सत्ता में पहुंच गए।

करुणानिधि ने राजनीति में समझौता करने से भी गुरेज नहीं किया। इंदिरा गांधी ने 1976 में उनकी सरकार गिरा दी थी, मगर इससे वे 1980 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस से समझौता करने से नहीं हिचके। वे उस चुनाव में तो जीत गए, लेकिन विधानसभा के चुनावों में एमजीआर से हार गए। इसी तरह जब 1999 में जयललिता ने करुणानिधि सरकार को गिराने के लिए केंद्र में वाजपेयी सरकार पर दबाव बनाया, तो करुणानिधि ने अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए का साथ दिया, फिर साथ चुनाव लड़ा और अगले चार साल तक एनडीए में ही रहे। लेकिन फिर वे 2004 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए में शामिल हो गए  और अगले दस साल तक सत्ता में भागीदारी की।

करुणानिधि हमेशा राज्य की स्वायत्तता पर जोर देते रहे, लेकिन समय-समय पर केंद्र की शर्तें मानने से पीछे नहीं हटे। वे तमिल अधिकारों के चैंपियन भी थे। हालांकि, करुणानिधि तब असहाय दिखे, जब श्रीलंकाई राष्ट्रपति राजपक्षे ने नई दिल्ली के मौन समर्थन से लिट्टे का सफाया किया। सामाजिक न्याय के योद्धा के रूप में

करुणानिधि का कद एमजीआर या जयललिता से हमेशा ऊंचा रहा, भले ही अन्नाद्रमुक नेताओं ने  लोकलुभावन कल्याणकारी नीतियों से जनता को खूब लुभाया हो। अति पिछड़ी जातियों को विशेष आरक्षण, ग्रामीण छात्रों और पहली बार के स्नातकों को रियायत देने जैसे उनके काम तो याद रखे ही जाएंगे, उन्होंने ‘समतावपुरम’ की भी स्‍थापना की, जहां विभिन्न जातियों के गरीब लोग एक कॉलोनी में रहते थे और गैर-ब्राह्मणों को मंदिरों के पुजारी की ट्रेनिंग दिलाई। वीसीके नेता डी. रविकुमार का कहना है, “करुणानिधि ने एससी में सबसे पिछड़े अरुंडातियार समुदाय को विशेष आरक्षण दिलवाया। बतौर समाज सुधारक उनका ओहदा पेरियार से कम नहीं था।”

दूसरी ओर करुणानिधि को शराबबंदी हटाने और तमिलों की एक पूरी पीढ़ी को नशे की लत में धकेलने का भी जिम्मेदार माना जाता है। इसके लिए उनके तर्क थे, “जब चारों ओर आग लगी हो तो तमिलनाडु कैसे अछूता रह सकता है? जब पड़ाेसी राज्य में शराबबंदी नहीं है तो तमिलनाडु में यह कैसे सफल हो सकती है?” सबसे ज्यादा जिस चीज ने उनकी छवि पर दाग लगाया वह है 1971 से 1976 के उनके कार्यकाल में हुआ भ्रष्टाचार। कहा जाता है कि इस दौर में करुणानिधि ने भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दिया। इसके बाद यूपीए के सहयोगी रहते हुए केंद्र में जब उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो चीजें और बिगड़ीं।

इन सबके बावजूद तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास में करुणानिधि एक बड़ी शख्सियत की तरह याद किए जाएंगे। उनकी प्रतिभा विविध थी। राजनीतिज्ञ के अलावा वे साहित्यकार, पटकथा लेखक, सामाज सुधारक और प्रशासक के रूप में भी याद किए जाएंगे। उनका साया राज्य की नीतियों पर हमेशा बना रहेगा और यही उनकी असली विरासत है।

लेकिन असली सवाल यही है कि यह विरासत कौन संभालेगा। उनकी तरह 'कलैगनर'(नेता) कौन कहलाएगा? अब द्रमुक में तो उनके पुत्र एमके स्टालिन निर्विवाद नेता हैं। लेकिन पार्टी सूत्रों की मानें तो स्टालिन के लिए राह आसान रहने वाली नहीं है। स्‍टालिन और उनके भाई अलगिरी के बीच फिलहाल जो शांति है, वह करुणानिधि की अनुपस्थिति में टूट सकती है। मारन बंधु, जिन पर अवैध टेलीफोन एक्सचेंज मामले में फिलहाल जेल जाने की तलवार लटक रही है, पार्टी में पद या संसदीय टिकट लेकर बचने की कोशिश कर सकते हैं।

हालांकि, करुणानिधि की बेटी कनिमोई काफी हद तक स्टालिन का नेतृत्व स्वीकार कर चुकी हैं, लेकिन उनके समर्थक उन्हें उसी तरह केंद्र में देखना चाहते हैं, जैसे वे 2जी घोटाले के पहले हुआ करती थीं। अभी तक तो पार्टी की कमान पूरी तरह  करुणानिधि के हाथ हुआ करती थी, लेकिन स्टालिन के लिए ऐसा शायद ही संभव हो। अन्‍नाद्रमुक की  कलह का लाभ न उठा पाने और 89 विधायकों के बावजूद द्रमुक के सरकार न बना पाने से पार्टी में स्टालिन के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं।

तुगलक के संपादक एस. गुरुमूर्ति के अनुसार “इसमें जरा भी संदेह नहीं होना चाहिए कि करुणानिधि ने ऐसी स्थिति में अपना राजनीतिक कौशल दिखाया होता जबकि स्टालिन ईपीएस सरकार की अस्थिरता पर सिर्फ डेडलाइन पर डेडलाइन ही दे पाए। वे अपनी राजनीतिक विरासत का परिचय नहीं दे पाए हैं।”

यही नहीं, स्टालिन जिस तरह अपने अभिनेता पुत्र उदयनिधि के बेझिझक प्रमोशन में मशगूल हैं, वह भी पार्टी समर्थकों को रास नहीं आ रहा है। अचानक वे पार्टी मंचों पर दिखने लगे हैं। यही नहीं, स्टालिन ने  अपने दामाद सबरीसन को भी पार्टी में ऊंचे ओहदे पर बैठा दिया है। इनसे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में नाराजगी बढ़ी है। अभी तक स्टालिन सहयोगियों को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं लेकिन लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे के वक्त समस्याएं आ सकती हैं। कांग्रेस पहले ही कह चुकी है कि उसे 15 सीटें चाहिए, जबकि द्रमुक आठ सीटें से अधिक न देने का मन बनाए हुए है। स्टालिन को सावधानी से संभालना होगा। अगर वे फिसले तो उससे भाजपा को तमिलनाडु में पांव रखने का मौका मिल सकता है। फिर कमल हासन और रजनीकांत जैसे नए खिलाड़ियों के आने से पेचीदगी बढ़ी है।

ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन लोगों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकाक्षाएं उस वक्त प्रदर्शित नहीं की, जब करुणानिधि और जयललिता जैसे मंझे हुए नेता मैदान में डटे थे। अपने आप को नास्तिक कहकर और ब्राह्मणवाद की आलोचना कर कमल हासन पहले ही खुद को करुणानिधि का असली वारिस बता चुके हैं। करुणानिधि की अनुपस्थिति में द्रमुक विरोधी वोट शायद ही कमजोर अन्नाद्रमुक के खाते में जा पाएं, ऐसे में स्वाभाविक है कि रजनीकांत या दिनकरन जैसे नए चेहरों को लाभ मिल सकता है।

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